लोजपा से निकाले गए चिराग पासवान को राजनीति के शह-मात में अपना पहला कड़वा सबक तब मिला जब उनके चाचा पशुपति पारस को उनके दिवंगत पिता रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी के रूप में मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री (Modi Cabinet Minister) के रूप में शपथ दिलाई गई. मंत्री पद चिराग को मिलना चाहिए था ?
रामविलास पासवान के बेटे और उत्तराधिकारी के रूप में, 38 वर्षीय फिल्म स्टार से राजनेता बने चिराग पासवान को भरोसा था कि उन्हें पद मिलेगा. इसके अलावा, क्या उन्होंने पिछले साल के बिहार विधानसभा चुनावों में शोबॉय के रूप में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अपनी योग्यता साबित नहीं की थी?
यह उनका आक्रामक नीतीश कुमार विरोधी अभियान था जिससे उनके सहयोगी परेशान हुए और मुख्यमंत्री को एक हद में रखकर सत्ता की धुरी को अपने पक्ष में झुकाने में मदद मिली.
अगर रामविलास पासवान अपने बेटे को सलाह देने के लिए ज़िंदा होते तो शायद चिराग को बताते राजनीति इतनी आसान नहीं है. राजनीति एक निर्मम रेस है जिसमें कोई मदद करना नहीं चाहता या कोई एहसान नहीं करता. रामविलास 1991 के बाद से केंद्र की हर सरकार में कैबिनेट मंत्री होने का कीर्तिमान स्थापित करने में कामयाब रहे, केवल अपनी चतुर राजनीतिक समझ के कारण, प्रचार-प्रसार या चापलुसी के कारण नहीं.
नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग एक योग्य प्रतिद्वंद्वी हैं ?
बड़े पासवान ने शायद अपने बेटे को नीतीश कुमार से सावधान रहने की चेतावनी दी होगी, जो राजनीतिक हलकों में एक खतरनाक और चालाक दुश्मन के रूप में जाने जाते हैं. नीतीश आधे नेता हो सकते हैं जो वे हुआ करते थे, लेकिन फिलहाल वो भाजपा के चंगुल में फंसे हैं, और अपने सोने के पिंजरे से भी, उन्होंने चिराग को बिहार में स्थापित सत्ता के साथ खेलने के लिए दंडित करना चाहते हैं.
जैसे ही मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करने की तैयारी शुरू की, नीतीश ने अपनी चाल चली. लोजपा में फूट पड़ी और पशुपति पारस ने पार्टी के छह में से पांच सांसदों के समर्थन का दावा किया. चिराग को अलग कर दिया गया.
लेकिन भाजपा ने उनके पिता द्वारा बनाई पार्टी पर नियंत्रण हासिल करने में चिराग की मदद की कोई कोशिश नहीं की. नीतीश इतना सुनिश्चित करने में कामयाब रहे.
उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि पशुपति को कैबिनेट बर्थ के लिए चुना जाएगा न कि चिराग को. यह दिलचस्प है कि नीतीश बदला लेने की इच्छा से इतने प्रेरित थे कि उन्होंने अपनी पार्टी के लिए दो कैबिनेट पदों और राज्य मंत्री के दो पदों की अपनी पूर्व की मांग को छोड़ दिया. इसके बजाय, उन्होंने अपने भरोसेमंद लेफ्टिनेंट आरसीपी सिंह के लिए एक मंत्री पद के लिए समझौता किया.
उन्होंने शायद अपनी पार्टी में कई लोगों को असंतुष्ट और बेचैन कर दिया है, खासकर राजीव रंजन सिंह, जिन्हें लल्लन सिंह के नाम से भी जाना जाता है, जो कैबिनेट मंत्री बनने की उम्मीद कर रहे थे.
कैबिनेट विस्तार से अगर जेडीयू में कोई भी असंतोष बचा रहता है तो भाजपा के अरमानों को पंख लग जाएगा, और एक प्रमुख ताकत बनकर उभरेगी. नीतीश के हाशिए पर खड़े पिछड़ी जातियों के वोटरों पर भाजपा का कब्जा हो जाएगा.
इसलिए, 2019 में दूसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में आने के बाद से मोदी के पहले बड़े कैबिनेट बदलाव में जाति, समुदाय और क्षेत्र पर जोर दिया गया.
लालू प्रसाद यादव की ऐन्टीक्लाइमैक्टिक रिटर्न
बिहार में खेल अभी शुरू ही हुए हैं. राज्य की राजनीति नए गठजोड़ के साथ मंथन कर रही है, और नेताओं की एक पूरी पीढ़ी जो 30 से अधिक वर्षों से राज्य के परिदृश्य पर हावी है, अपने जीवन की सर्दियों में लुप्त होती जा रही है.
हालांकि, बदलते राजनीतिक जमीन का सबसे स्पष्ट प्रमाण लालू प्रसाद यादव का बिहार के सार्वजनिक जीवन में फिर से लौटना था. राजद के स्थापना दिवस पर मोदी सरकार के खिलाफ जोरदार भाषण के साथ धूम मचाने की उनकी कोशिश ने लालू समर्थकों के बीच फिर से एक लहर पैदा कर दी है.
लालू का ट्रेडमार्क उत्तेजना और चुटकुले इसबार गायब थे. शायद ज्यादा उम्र, खराब स्वास्थ्य और जेल की कैद की वजह से. वह आज के समय में अपनी बढ़ती अप्रासंगिकता को समझने के लिए काफी तेज हैं, यही वजह है कि उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी की प्रशंसा करने और अपनी पार्टी को आश्वस्त करने के लिए कहा कि यह अच्छे हाथों में है. "नैय्या पार लगायी," उन्होंने अपने बेटे की नेतृत्व क्षमता में विश्वास जताते हुए कहा.
उस व्यक्ति के बिना बिहार की राजनीति की कल्पना करना मुश्किल है, जिसने इसकी मंडल क्रांति को आकार दिया और ऊंची जातियों के सदियों के दमनकारी वर्चस्व को उलट दिया. कोई भी सत्ताधारी दल आज राज्य में किसी ब्राह्मण, भूमिहार या ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता. लेकिन लालू के प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार के बिना राज्य की कल्पना करना भी मुश्किल है
हालांकि वे एक ही राजनीतिक धारा से आते हैं, नीतीश ने लालू को बाहर करने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाना चुना और लगातार चार बार मुख्यमंत्री बने रहने में कामयाब रहे.
क्या 'बेटों' की पीढ़ी में साथ आएंगे लोजपा-जद (यू)?
लेकिन जैसा कि 2020 के चुनाव परिणामों में दिखा, वह भी, एक ताकत के रूप में खत्म हो रहा है. अगर चिराग पासवान जैसा नौसिखिया युवा राजनीतिज्ञ नीतीश की चुनावी किस्मत को खराब कर सकता है, तो शायद लोहिया के इस दिग्गज को दीवार पर लिखा हुआ पढ़ना चाहिए.
बिहार की राजनीति के दूसरे स्तंभ सामाजिक न्याय के प्रणेता रामविलास पासवान चले गए हैं. नई ताकतों और नए चेहरों के लिए मैदान खुला है.
दिलचस्प बात यह है कि चिराग ने भाजपा से धोखा खाने के बाद एक साझा भविष्य बनाने के लिए तेजस्वी की ओर रूख किया है. दूसरी ओर, भाजपा अपने पारंपरिक सवर्ण समर्थन को मजबूत करते हुए नीतीश के वोट आधार को हासिल करने की कोशिश कर रही है.
बिहार के सामने जल्द या बाद में यह सवाल होगा कि क्या तेजस्वी और चिराग अपने पिता की विरासत के उत्तराधिकारी हैं? या लोग भाजपा जैसी नई ताकत की तलाश कर रहे हैं ताकि राज्य को वह आर्थिक और सामाजिक बढ़ावा मिले जिसकी उसे इतनी सख्त जरूरत है?
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं .उनका ट्विटर हैंडल है @AratiJ.यह एक ओपिनियन पीस है. यह लेखिका के अपने विचार हैं .द क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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