चार वर्ष पहले किए गए एक ट्वीट के लिए एक निडर लेकिन जाने-माने फैक्ट चेकर को जेल भेज दिया गया. इस घटना की अहमियत को उसके वास्तविक स्वरूप में देखा जाना चाहिए. जिस तरह से अचानक से सॉलिसिटर-जनरल निचली अदालत में उनको जमानत देने से इनकार करने के लिए बहस के लिए पेश हुए, वह यह दर्शाता है कि सरकार कितनी गंभीरता से मोहम्मद जुबैर जैसे लोगों को बंद करना चाहती है.
प्राथमिक तौर पर जुबैर और उनके जैसे अन्य लोग भारत में तैयार पोस्ट-ट्रुथ की दुनिया को चुनौती देते हैं. इंफॉर्मेशन वर्ल्ड को नियंत्रित करने का जो काम चल रहा है वह एडवांस स्टेज में है. यह समझना महत्वपूर्ण है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के राजनीतिक मिशन के लिए यह कितना अहम है.
प्राथमिक तौर पर जुबैर और उनके जैसे अन्य लोग भारत में तैयार पोस्ट-ट्रुथ की दुनिया को चुनौती देते हैं.
पूर्व में खारिज किए जा चुके गैर-जिम्मेदार "फ्रिंज" के साथ राज्य की नीति के एकीकरण से सुरक्षित दूरी खत्म हो गई है. पोस्ट-ट्रुथ दुनिया के फलने-फूलने के लिए जरूरी है कि सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करें और जो लोग दूसरी कहानी कहते हैं उनका अपराधीकरण किया जाए.
जून 2020 में रिपोर्ट आई थी कि COVID-19 महामारी के समय बिहार चुनाव से पहले “9,500 आईटी सेल प्रमुख और 72,000 व्हाट्सएप ग्रुप” काम कर रहे थे.
जैसे-जैसे 2024 करीब आ रहा है, सरकार पोस्ट-ट्रुथ 'रोजी इंडिया' यानी 'आनंदित भारत' की कहानी को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है. ऐसे परिदृश्य में, जुबैर जैसे लोगों (जो तथ्यों पर नजर रखने में सक्षम हैं और बिना किसी संकोच के गलत या भ्रामक बयानों को पॉइंट आउट करके सामने रखते हैं) को अपराधी बनाना राजनीतिक अनिवार्यता बन जाती है.
(मिस)इंफॉर्मेशन वाली दुनिया
किसी देश की यादों और इतिहास को बदलने का प्रोजेक्ट काफी बड़ा है. आधिकारिक टिप्पणियां और कार्रवाई पूरी तरह से नफरत से भरी प्राइम-टाइम टीवी चर्चाओं और व्हाट्सएप संदेशों के साथ पूरी तरह से गूंजती हैं जो पूरी तरह से ऐसी किसी भी चीज पर केंद्रित होती हैं जो भारतीयों को धार्मिक आधार पर विभाजित करती हैं.
पूर्व में खारिज किए जा चुके गैर-जिम्मेदार "फ्रिंज" के साथ राज्य की नीति के एकीकरण से सुरक्षित दूरी खत्म हो गई है. भारत खुद अपने इतिहास, अर्थव्यवस्था या यहां तक कि बुनियादी मूल्यों के बारे में अपने स्वयं के नए झूठ की तेजी से कसम खाने का जोखिम उठा रहा है.
"क्या सभी भारतीय समान हैं?" ऐसे मामूली या सामान्य से प्रतीत होने वाले सवालों के आश्चर्यजनक जवाब आज हमें मिल सकते हैं जो उस घृणा को दर्शाते हैं जिसे स्वतंत्रता के साथ व्यक्त करने दिया जा रहा है.
इसका सबसे ताजा उदाहरण, जिस तरह से गुजरात दंगों को संभाला जा रहा है, उसमें सत्तारूढ़ दल, पुलिस और व्हाट्सएप फॉरवर्ड के साथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ हिस्सों के साथ एक साथ आए हैं. 2002 के दंगे (जो नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में हुए) के सभी उल्लेख को स्कूल की पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया है. निर्भीक कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ को गिरफ्तार कर लिया गया है. तीस्ता सीतलवाड़ का संगठन गुजरात हिंसा के 68 मामलों में रिकॉर्ड 120 दोषसिद्धि हासिल करने में कामयाब रहा था. आधुनिक भारत के इतिहास के तौर पर भविष्य में क्या पढ़ा जाएगा, यह तय करने के लिए ये कार्रवाईयां चलती रहेंगी. पोस्ट-ट्रुथ दुनिया के फलने-फूलने के लिए जरूरी है कि सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करें और जो लोग दूसरी कहानी कहते हैं उनका अपराधीकरण किया जाए.
सूचना क्षेत्र में हावी होने के लिए खर्च किये गए पैसे
2014 से पहले भारत में जब सोशल मीडिया उभर रहा था और सस्ते डेटा एवं कनेक्टिविटी गति पकड़ रही थी तब सभी विपक्षी पार्टी और आलोचक इस माहौल का पूरा फायदा उठाने और अपनी ऑनलाइन उपस्थिति को बढ़ाने के लिए स्वतंत्र (यह समय के अनुसार ठीक ही था) थे. एसोसिएशन ऑफ ए बिलियन माइंड्स नामक एक एनजीओ की विस्तृत जांच से यह बात सामने आयी कि इसने न केवल योग्य या उपयुक्त उम्मीदवारों पर अमित शाह को सलाह दी बल्कि बड़े पैमाने पर प्रोपेगेंडा और मिसइंफॉर्मेशन (गलत या भ्रामक जानकारी) कैंपेन ऑनलाइन चलाया. ऑनलाइन सूचनाओं को नियंत्रित करना और फेक न्यूज साइट (झूठी समाचार साइट) बनाना इन सब के केंद्र में था. आंकड़ों और दृष्टिकोणों के साथ समाचार और ज्ञान की दुनिया को नियंत्रित और प्रभावित करने के लिए एक अहम आघात था जो अंततः मतदाताओं को उनके दिल और दिमाग को ढालने में मदद करेगा.
जब दुनिया के सबसे महंगे चुनाव (2019 के लोकसभा चुनाव) के आधिकारिक आंकड़े सामने आए तब यह और भी स्पष्ट हो गया कि 2014 के बाद सत्ताधारी पार्टी के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को अवशोषित करना कितना महत्वपूर्ण था. सीएमएस की एक स्टडी के अनुसार, अकेले बीजेपी ने 2.5 अरब (2.5 बिलियन) रुपये खर्च किए, जो कि चुनाव के दौरान किए गए कुल खर्च का 40 फीसदी था. यह अन्य सभी प्रमुख पार्टियों के कुल खर्च से कहीं अधिक था. आरटीआई से प्राप्त जवाबों के अनुसार बीजेपी को दान की गई राशि का 95 फीसदी से अधिक चुनावी बांड के माध्यम से प्राप्त होता है.
2019 से 2021 के बीच बीजेपी सरकार ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विज्ञापनों पर लगभग 1,700 करोड़ रुपये खर्च किए. पिछले कुछ वर्षों में आउटडोर विज्ञापनों (जिसमें हवाई अड्डों की स्क्रीन पर, सड़कों और पेट्रोल पंपों पर होर्डिंग, बस स्टैंड और बस रैप आदि शामिल हैं) में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. यूपीए-I में यह 3 फीसदी था जो मोदी सरकार के दौरान बढ़कर 15 फीसदी के आंकड़े पर आ गया है.
इसके बाद व्हाट्सएप या निजी सोशल मीडिया के प्रभुत्व ने सत्तारूढ़ पार्टी की काफी मदद की. जून 2020 में रिपोर्ट आई थी कि COVID-19 महामारी के समय बिहार चुनाव से पहले “9,500 आईटी सेल प्रमुख और 72,000 व्हाट्सएप ग्रुप” काम पर लगे थे. सोशल मीडिया में भी तब्लीगी जमात के खिलाफ अनर्गल नफरत फैलाने वाले पोस्ट किए गए.
कम की जा रही है ऑनलाइन आजादी
भारत में डिजिटल दुनिया में तेजी से गिरावट को चिह्नित किया है जबकि यह क्षेत्र के अन्य देशों की तुलना में अधिक मुक्त था. सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 66 को समाप्त किया जा रहा है इसके साथ-साथ व्यक्तिगत डेटा संरक्षण कानून (personal data protection law) का वादा और 2017 का प्राइवेसी जजमेंट खत्म हो रहा है.
"दुनिया की इंटरनेट शटडाउन राजधानी" भारत है. इंटरनेट यूजर्स की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं हैं. इसके बजाय कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए डिजिटल स्पेस में बदलाव हो रहा है. जहां राजनीतिक टिप्पणियों और यहां तक कि क्रिकेट मैच के दौरान अन्य देश के लिए चियर करने पर जेल हो सकती है और नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. जब सरकार अपने नए डिजिटल नियम (पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण के साथ जानबूझकर भ्रमित विनियमन) लेकर आई तब पोस्ट-ट्रुथ प्रोजेक्ट पूरी तरह से सामने आया.
सच कहने की ताकत कुछ के लिए खतरा है
हालांकि डिजिटल तकनीक छोटे खिलाड़ियों को भी सक्षम बनाती है. डिजिटल तकनीक से साइट्स कम बजट में भी संचालित हो पाती हैं जिससे फैक्ट चेकर सही तथ्य दिखा पाते हैं और शासक की पोल खाेल देते हैं. इसी की वजह से ज़ुबैर पोस्ट-ट्रुथ के समर्थकों के लिए खतरनाक बनते हैं. जब जुबैर ने इस बात का खुलासा किया था कि अब निलंबित भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा ने वास्तव में पैगंबर मुहम्मद के बारे में क्या कहा था, तब किसी भी हद तक की ट्रोलिंग सच्चाई से पीछे नहीं ले जा सकती थी. बाद में, पश्चिम एशियाई इस्लामिक राज्यों के दबाव की वजह से बीजेपी और भारत सरकार बैकफुट पर आने के लिए मजबूर हुई और शर्मा को निलंबित कर दिया गया.
क्रिस्टोफ जाफरलॉट जैसे इंटरनेशनल स्कॉलर ने यह स्वीकार किया है कि इन साइटों को काफी नजदीक से फॉलो किया जाता है और भारत में घटनाओं के लिए तथ्यों के आधारभूत संदर्भ के तौर पर इन साइट्स का उपयोग किया जाता है. इससे विभिन्न वैश्विक सूचकांकों को आंकड़े एवं तथ्य मिलते हैं और अनौपचारिक ओपिनियन की पाइपलाइन के माध्यम से गुजरते हैं जो विदेशी सरकारें चाहती हैं.
गैर-समाचारों को देखते हुए माइक्रो-मीडिया (जैसे जुबैर, प्रतीक सिन्हा और उनका संगठन) अपने आकार से कही बढ़कर चोट करने में सक्षम है, जब कि कॉर्पोरेट मीडिया विशेष रूप से टीवी पर फोकस्ड है.
ढह रहा है 'आनंदित भारत' का किला
यह सुनिश्चित करने के लिए कि मतदाता के मन में अपने अधिकारों यहां तक कि मूल्यों के बारे में कोई ऐसे सवाल न पैदा हों जो कि जो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए समस्याएं पैदा कर सकते हैं, सरकार "तर्कवादी राष्ट्र" के कॉमन सेंस को शिफ्ट करने का प्रयास कर रही है. आज के दौर में सूचना क्षेत्र को नियंत्रित करने का मतलब है इंटरनेट को नियंत्रित करना. नीलसन्स भारत 2.0 इंटरनेट स्टडी के मुताबिक "दिसंबर 2021 तक भारत में दो साल और उससे अधिक उम्र के 646 मिलियन सक्रिय इंटरनेट यूजर हैं." यह केवल शहरी परिदृश्य नहीं है, इनमें से ग्रामीण भारत में 352 मिलियन इंटरनेट यूजर हैं. एक साफ-सुधरा डिजिटल स्पेस का निर्माण और मेंटनेंस एक नियंत्रण-उन्मुख शासन की राजनीति के लिए काफी महत्वपूर्ण है, जहां उसे हर पांच साल में जनता की मंजूरी लेनी होती है.
जैसे-जैसे 2024 करीब आ रहा है, सरकार पोस्ट-ट्रुथ 'रोजी इंडिया' यानी 'आनंदित भारत' की कहानी को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है. बीजेपी सरकार की आठ साल की सत्ता के दौरान सामाजिक ताना-बाना, अर्थव्यवस्था और एक क्षेत्रीय खिलाड़ी के तौर पर भारत की स्थिति को कमजोर होते देखा गया है.
जैसा कि बीजिंग अतीत की बात के तौर पर 'दो एशियाई दिग्गजों' की बयानबाजी को पीछे छोड़ते हुए एक और लीग में कूद गया है. चीन के साथ आर्थिक और सैन्य, दोनों क्षेत्र की खाई और ज्यादा चौड़ी हो गई है.
2014 की तुलना में आज जहां भारत खड़ा है उसके बीच का जो अंतर है वह काफी फीका और अप्रभावी है. इस परिदृश्य को एक खराब अर्थव्यवस्था की कहानी के तौर पर चिन्हित किया जा सकता है जहां रिकॉर्ड बेरोजगारी है और इसे ठीक करने के लिए कोई योजना नहीं है, निजी उपभोग व्यय में तेजी से गिरावट हुई है, ग्रामीण मजदूरी और कृषि एक भयानक संकट का सामना कर रहे हैं और पिछले तीन या चार वर्षों में विऔद्योगीकरण (डीइंडस्ट्रिलाइजेशन) की एक उल्लेखनीय विशेषता के साथ 'मध्यम वर्ग' वाला देश सबसे अधिक कृषि श्रमिकों वाला देश बन गया है. ऐसे परिदृश्य में, जुबैर जैसे लोगों (जो तथ्यों पर नजर रखने में सक्षम हैं और बिना किसी संकोच के गलत या भ्रामक बयानों को पॉइंट आउट करके सामने रखते हैं) को अपराधी बनाना राजनीतिक अनिवार्यता बन जाती है.
फायरवॉल वाले यूनिवर्स में रहना
जिस अभूतपूर्व संकट में अर्थव्यवस्था है, उसके सामने यह मिथ काफी भुनाया जा रहा है कि भारत "सबसे तेजी से बढ़ने वाला" देश है. सत्ता के समर्थकों द्वारा भारतीय प्रधान मंत्री को एक अनुकूल, अर्ध-सत्य तरीके से पेश करने के लिए छवियों में हेरफेर किया जाता है. भारत में नफरत फैलाने वालों पर रिपोर्ट करना अपराध है, लेकिन इस तथ्य से नहीं कि ज्यादातर मामलों में नफरत फैलाने वालों को सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता है. चीन और रूस में जो यूजर ऑनलाइन रहते हैं वे अपने स्वयं के तथ्यों और सच्चाई की समझ के साथ वैश्विक इंटरनेट से फायरवॉल किए गए यूनिवर्स में रहते हैं. उनकी सरकारें इस बात पर अत्यधिक नियंत्रण रखती हैं कि उनके लोगों को क्या और कितना जानना चाहिए या विचार रखना चाहिए.
मोदी सरकार द्वारा बनाए गए नए डिजिटल नियमों को पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक है कि मौजूदा सरकार फायरवॉल बबल का अपना संस्करण चाहती है. बेंगलुरू के तकनीकी विशेषज्ञ से फैक्ट-चेक करने वाले और बाएं हाथ के तेज गेंदबाज मोहम्मद जुबैर को काम करने देना एवं असत्य या भ्रामक और हेट स्पीच का खुलासा करना सत्ताधारी पार्टी के पूरे राजनीतिक प्रोजेक्ट के लिए खतरा बन सकता है.
(सीमा चिश्ती दिल्ली में स्थित एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दस साल से ज्यादा के करियर में वह बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seemay है. यह राय लेखक के निजी है. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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