30 मई 2024 को एक निराशाजनक फैसले के जरिए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक अंतरधार्मिक जोड़े की शादी को वैध बनाने के लिए सुरक्षा और सहायता की याचिका खारिज कर दी. साथ ही विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act, 1954) के तहत भी एक मुस्लिम पुरुष और एक हिंदू महिला की शादी को कोर्ट ने नाजायज घोषित कर दिया.
कोर्ट ने अपने फैसले के पैराग्राफ 12 में कहा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत स्वीकृत विवाह व्यक्तिगत कानून या पर्सनल लॉ के निषेधों को खत्म नहीं कर सकता. यह कहना बड़ी गलत व्याख्या है. कोर्ट ने फैसले में लिखा:
"विवाह के पूरे होने के लिए पर्सनल लॉ कुछ संस्कारों के पालन को अनिवार्य बनाता है. विशेष विवाह अधिनियम ऐसे विवाहों को इन संस्कारों के आधार पर चुनौतियों से छूट देता है, लेकिन यह उन विवाहों को मान्य नहीं करता है जिन्हें पर्सनल लॉ अन्यथा प्रतिबंधित करता है. विशेष विवाह अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, विवाह तभी स्वीकार्य है जब दोनों पक्ष निषिद्ध रिश्ते में न हों."
इस तर्क में त्रुटि है. विशेष विवाह अधिनियम की धारा 4 वैध विवाहों के लिए शर्तों की रूपरेखा तैयार करती है, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि अन्य शर्तों के साथ-साथ दोनों पक्षों को सिंगल, मानसिक रूप से स्वस्थ और लीगल एज का होना चाहिए.
अंतरधार्मिक शादी को शामिल करने के लिए "निषिद्ध रिश्तों" से जुड़े अपवाद की हाई कोर्ट ने गलत व्याख्या की है. यह शब्द पारंपरिक रूप से भाई-बहन या चचेरे भाई-बहन जैसे रक्त संबंधों को संदर्भित करता है, न कि पर्सनल लॉज द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को.
एडिटर्स नोट: कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है, “मोहम्मडन कानून के अनुसार, एक मुस्लिम लड़के का उस लड़की से विवाह वैध नहीं है जो मूर्तिपूजक या अग्नि-पूजक है. भले ही विवाह विशेष विवाह अधिनियम के तहत पंजीकृत हो, फिर भी विवाह वैध विवाह नहीं होगा."
धार्मिक प्रैक्टिस स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत विवाह के लिए सहमति के अधिकार को कम नहीं करती है. इस तरह के विवाह के और भी निहितार्थ होते हैं, जिनमें विरासत के अधिकार और पारिवारिक अलगाव शामिल हैं. कोर्ट ने स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 4 का गलत मतलब निकाला है, क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है, "विवाहों के अनुष्ठान के संबंध में वर्तमान में किसी भी अन्य कानून के लागू होने के बावजूद.."
इस प्रकार, स्पेशल मैरिज एक्ट व्यक्तिगत कानून की आपत्तियों के बावजूद विवाह को पूरा करने की अनुमति देता है. ऐतिहासिक रूप से, इस अधिनियम में यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं है कि आप शादी के बाद किस धर्म को अपनाएंगे. पहले मुहम्मद अली जिन्ना और रतनबाई जिन्ना को इसके प्रावधानों के तहत शादी करने से रोक दिया गया था. इस आवश्यकता को बाद में संशोधित किया गया, जिससे किसी भी धर्म के व्यक्तियों को अपना धर्म छोड़े बिना, अधिनियम के तहत विवाह करने की अनुमति मिल गई.
धर्मनिरपेक्ष कानूनों की व्याख्या करने वाले जजों को धार्मिक विचारों से बचना चाहिए जब तक कि बिल्कुल आवश्यक न हो.
यहां सवाल मुस्लिम विवाह की वैधता के बारे में नहीं था, बल्कि नागरिक कानून के तहत एक मुस्लिम की गैर-मुस्लिम से शादी करने की क्षमता के बारे में था. एक धर्मनिरपेक्ष विवाह में बाधा डालने के लिए धार्मिक कानून का सहारा इतिहास में लिया जाता था. ऐसा आज करना सार्वजनिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रयास करने वाले समाज की प्रगति में बाधा डालता है.
(संजय हेगड़े भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक वरिष्ठ वकील हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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