झारखंड ( jharkhand) के धनबाद जिले का कतरास शहर. मध्य प्रदेश के रीवा स्टेट के राजाओं की यहां हवेली है. राजपरिवार धनबाद के तीन हिस्से झरिया, कतरास और डुमरा (नावागढ़) में बसे हैं. सभी जगह एक-एक गढ़ हैं. कतरास के अंतिम राजा पूर्णेन्दु नारायण सिंह का निधन हो चुका है. उनके बड़े बेटे चन्द्रनाथ सिंह राजगद्दी संभाल रहे हैं.
अब राजपाट नहीं रहा, लेकिन व्यवसाय और सम्मान पूर्ववत ही हैं. कतरास राजागढ़ के बाहर के इमामबाड़ा पर यहां चर्चा करना प्रासंगिक होगा. राजा तालाब के बगल में यह स्थित है. आज इस परिसर की स्थिति ठीक नहीं है, लेकिन कभी यह परिसर गुलजार रहता था. कतरास राज परिवार आज भी इमामबाड़े की देखरेख करते हैं
चन्द्रनाथजी कहते हैं लोग इबादत गृहों में नमाज़ पढ़ते हैं. यह तो व्यायाम है. आसन होता है. एकसाथ ग्रुप में पढ़ते हैं तो मीट टुगेदर भी हो जाता है. मन की चंचलता दूर हो जाती है. तन-मन दोनों साफ हो जाते हैं। वज़ू करने का शायद इसीलिए विधान किया गया है.
मुहल्ले में एक मुस्लिम परिवार रहता था
मुहल्ले में अधिकांश हिन्दू हैं कुछ मुस्लिम परिवार रहते थे, पहले एक मुस्लिम परिवार रहता था. उसके मुखिया राजघराने में बत्तियां जलाने का काम करते था, बत्तियों में तेल डालकर तैयार करना पड़ता था. 131 लाइट अलग-अलग कोनों में जलाने का रिवाज था. फसफरास मतलब जलना होता है, इसलिए बत्ती जलानेवाले मुस्लिम का नाम फरास बूढ़ा पड़ा था.
मुहल्ले का नाम फरास कुल्ही, हालांकि वर्तमान में एक भी मुस्लिम परिवार यहां नहीं है, लेकिन इमामबाड़ा है और मुहर्रम में यहां से तजिया भी निकलता है, यह तजिया पूरे शहर में जुलूस में सबसे आगे होता है, तजिए के जुलूस को किले की डेहरी तक ले जाने की परंपरा आज भी है.
राजा के इस इमामबाड़े के कारण पहले यहां अपराध भी नहीं होते थे. भाईचारा तो था ही, अधिकांश विवाद कोर्ट नहीं जाते थे. इमामबाड़े के सामने खड़ा होकर सिर्फ इतना कहना कि तुम गलत कर रहे हो इमाम साहब इंसाफ करेंगे बोलना था कि दोषी गुनाह कबूल कर लेते थे.
कतरास में ताजिया का जो जुलूस निकलता है, उसमें सबसे पहले राजा साहब का यही तजिया रहता है. रलतीफ,शमसुद्दीन, जाकी... कई लोग मुहर्रम के समय इसका रंग रोगन कराने आते थे. आज भी राज परिवार के लोग इस परंपरा को निभाते हैं. इमामबाड़ा आज भी है, लोग इसे दरगाह स्थान भी कहते हैं. यही तजिया सबसे आगे रहता है.
अब केरल की बात. नारियल और समंदर का शहर
आज मस्जिदों में नमाजियों की भीड़ है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हिंदुस्तान में पहली मस्जिद कहां पर स्थित है? यह कैसे बनी? कब बनी?
दरअसल केरल के त्रिशुर जिले के कोडुंगलूर में राजा पेरुमल जेरामन सातवीं सदी में वहां के शासक हुआ करते थे, एक रात उन्होंने सपना देखा कि चांद के दो टुकड़े हो गए हैं. उन्होंने अपने राज्य के विद्वानों को बुलाकर चांद टूटने के ख़्वाब का अर्थ बताने को कहा, इसी ख्वाब से प्रेरित होकर वे खुद या उनके परिवार के राम वर्मा कुलशेखर जेद्दा और मदीना गए थे, उस समय अरब का केरल के साथ व्यवसायिक रिश्ता कायम हो गया था.
वहां वे हजरत मोहम्मद साहब या कहिये मुस्लिम धर्म प्रचारकों के संपर्क में आये और इस्लाम धर्म कबूल कर लिया. लौटने के क्रम में उन्होंने असहजता महसूस की. रास्ते में उन्होंने अपने बेटे के नाम एक पत्र लिखा, फिर उनकी मौत हो गई. अरब से साथ चल रहे दूत ने राजकुमार को पत्र थमाया और उनकी अंतिम इच्छा बताई. राजपुत्र ने ही केरल के त्रिशुर जिले के कोडुंगलूर में सन 629 के आसपास अपने पिता के नाम पर यह मस्जिद बनवाई, इसी दौर में तमिलनाडु में भारत की दूसरी मस्जिद भी बनी.
दो साल पहले मस्जिद कमेटी के डॉ मोहम्मद सईद से मुलाकात हुई थी. उन्होंने बातचीत में बताया कि यह मस्जिद हिंदुस्तान की धरोहर है. मस्जिद के भीतरी हिस्से का कार्य पंद्रहवीं सदी का है. पूर्व में यहां बौद्ध धर्म की आराधना होती थी, यहां की लाइब्रेरी में भारी संख्या में गैर मुस्लिम बच्चे भी पढ़ते हैं. इसी इलाके में बिना माइक के इशारों में नमाज अदा करने की अनोखी प्रक्रिया शुरू की गई है, जिसमें एलईडी स्क्रीन का सहारा लिया गया है. दिव्यांग बच्चों को यहां तालीम दी जा रही है.
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