'जितिन वाली जीत' की हेडलाइन जिन जगहों पर ढोल-ढमाके के साथ चली थीं, वहीं 24 घंटे बाद 'मुकुल वाली हार' छप गई. ये विचित्र किंतु सत्य है. 'चक्रवर्ती पार्टी' का अश्वमेध तो ममता ने पहले ही रोक लिया था, अब घोड़ा भी बांध लिया है. बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय का 'मास्टर स्ट्रोक' चल ममता ने बीजेपी को बड़ा नुकसान पहुंचाया है. इसमें न सिर्फ राज्य की राजनीति बदलने की क्षमता है, बल्कि राज्य से बाहर का सियासी माहौल भी इससे प्रभावित होगा. पार्टियों से परे ये निजी साख में भी घटत-बढ़त में योगदान देने वाली घटना है. इस सियासी उलटफेर को पांच प्वाइंट में समझने की कोशिश करते हैं.
1.बंगाल का दंगल अभी खत्म नहीं हुआ
बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 में बीजेपी की सीटें 3 से 75 हो गईं तो कहा गया कि ये हार नहीं जीत है. बीजेपी अभी इंतजार कर सकती है. इस बार बीजेपी दो कदम आगे बढ़ी है, अगली बार बाकी की दूरी तय कर लेगी. लेकिन ऐसा लगता है कि ममता बीजेपी को वहीं धकेल देना चाहती हैं, जहां से बीजेपी चली थी. कहा जा रहा है कि बीजेपी के कम से कम 33 विधायक टीएमसी के संपर्क में हैं. मुकुल रॉय की घर वापसी से इस पलायन और कई मामलों में रिवर्स पलायन को तेजी मिल सकती है.
ममता जानती हैं कि 2024 में वोटिंग का पैटर्न 2021 से अलग होगा. तब केंद्र की सत्ता की लड़ाई होगी, जिसमें मोदी को फायदा रहेगा. ऐसा लगता है कि बंगाल का बयालीस बचाने के लिए ममता ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है.
2. दीदी ओ दीदी
विधानसभा चुनाव में टीएमसी जीती. लेकिन कोई महफिल लूट ले गईं तो वो थीं ममता. बीजेपी के महाबल के आगे अकेली ममता भारी पड़ीं. मुकुल रॉय को इधर लाकर ममता बंगाल के बाहर भी एक बड़ा संदेश दे रही हैं. वो बता रही हैं कि बीजेपी को सीधी चुनौती देने की क्षमता रखती हैं. वो बीजेपी को उसी की भाषा में जवाब दे सकती हैं. ममता अब बियॉन्ड बंगाल भी देख रही हैं. विधानसभा चुनाव जीतने के बाद ममता खुद कई बार विपक्षी एकता की अपील कर चुकी हैं. चुनाव में जीत के बाद उनके बढ़े कद में और इजाफा होगा जब मुकुल रॉय बीजेपी से टीएमसी में आएंगे. संयोग ही है कि जिस दिन मुकुल रॉय टीएमसी में आए, उसी दिन अभी-अभी दीदी के साथ काम कर चुके प्रशांत किशोर एनसीपी चीफ शरद पवार से मिले. अगर बीजेपी के खिलाफ विपक्षी गोला बनना है तो हो न हो उसका एक ध्रुव महाराष्ट्र में तो दूसरा ध्रुव बंगाल में होगा.
3.पीएम मोदी की साख को बट्टा?
मुकुल रॉय के बीजेपी से छिटकने की खबरें कई हफ्तों से चल रही थीं. मुकुल इशारा दे चुके थे कि सबकुछ ठीक नहीं है. चुनाव में उनकी पार्टी में अनदेखी की बातें हुईं लेकिन बीजेपी की हार के बाद से ऐसे कयास लगाए जा रहे थे. ये कयास तब तेज हो गए जब टीएमसी के बड़े नेता अभिषेक बनर्जी उस अस्पताल में पहुंचे जहां मुकुल की पत्नी एडमिट थीं. कहा जा रहा है कि उसके अगले दिन ही पीएम मोदी ने खुद मुकुल रॉय से बात की थी. अगर इस बातचीत में मान-मनौव्वल भी चला तो जाहिर है पीएम की बात भी मुकुल ने नहीं मानी. बंगाल में खुद कमान संभालने के बाद मिली हार के बाद ममता का ये 'उपहार' मोदी के लिए जैसे डबल झटका होगा.
जिस बंगाल में टीएमसी लगातार आरोप लगा रही है कि केंद्र सरकार की एजेंसियां उसके नेताओं को निशाना बना रही हैं, उसी बंगाल में मुकुल रॉय टीएमसी में जाना पसंद कर रहे हैं तो बड़ी बात है. बीजेपी भले ही विधानसभा चुनाव हारी है लेकिन मोदी के नाम पर लोकसभा चुनाव में पार्टी को फायदा हो सकता है, ये सोचकर भी मुकुल रॉय रुकने को तैयार नहीं हैं, तो ये बंगाल में बीजेपी की हालत के बारे में ये काफी कुछ कहता है.
4.बीजेपी भी अब 'आया राम-गया राम पार्टी'
बीजेपी की चुनावी प्रयोगशाला का हिट फॉर्मूला बन चुका है 'आयात'. बंगाल चुनाव से पहले हर दूसरे दिन किसी न किसी के बीजेपी में आने की खबरें आती थीं. सबसे बड़े नाम थे सुवेंदु अधिकारी. खुद मुकुल रॉय भी 2017 में टीएमसी से बीजेपी में आए थे. बंगाल में ये फॉर्मूला भले ही ना चला हो लेकिन कई राज्यों में इससे बीजेपी की सरकार बन गई.
लेकिन जैसा किसी भी प्रयोग के बाइप्रोडक्ट होते हैं, वैसे ही बीजेपी के साथ भी हो रहा है. बीजेपी अब नहीं कह सकती कि वो दलबदलुओं से सुरक्षित है. ऐसा लगता है कि बीजेपी में बाहर से आने वाले नेता अपनी पुरानी पार्टी का कल्चर भी लेकर आते हैं.जाहिर है जब आयातित नेताओं की संख्या इतनी ज्यादा है तो पूरी पार्टी की प्रकृति ही बदलने का डर रहता है. मुकुल रॉय, उनके बेटे और दूसरे दलबदलू नेताओं की घर वापसी कराकर ममता ने भी ये संदेश दिया है कि अब वो बीजेपी के इस 'तरक्की मॉडल' को तोड़ देना चाहती हैं.
5.विचारधारा! वो क्या होती है?
चाहें जितिन हों या फिर मुकुल या फिर सुवेंदु, इतने बड़े नेताओं का इधर से उधर जाना, खासकर विचारधारा के लेवल पर धुर विरोधी पार्टी में, इशारा है कि विचारधारा के नाम पर शुचिता का जो हल्का सा लिहाज रह गया था, जनता को दिखाने के लिए सही जो थोड़ी सी परदेदारी रह गई थी, वो भी हट रही है. इस लिहाज में हम भारतीय राजनीति के एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं. खास बात ये है कि पार्टियों को भी इस अदल-बदल से कोई परहेज नहीं.
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