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रकबर के कातिल ‘गोरक्षक’ हैं या फिर गुनहगार कोई और है?   

जनाजा रकबर का नहीं बल्कि भारत की कानून व्यवस्था का उठा.

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हिंसक भीड़ ने राजस्थान के अलवर में एक और व्यक्ति की हत्या कर दी गई. मरने वाले का नाम रकबर है. यानी ये भी मुसलमान है. खबरों पर यकीन करें तो हत्यारे हिंदू हैं. उन्होंने गो-तस्करी के शक में रकबर की हत्या की है. खबरों के ही मुताबिक रकबर की मौत में पुलिस का भी हाथ है. मौके पर पहुंची पुलिस ने लहुलूहान रकबर को अस्पताल पहुंचाने की जगह पहले गायों को गौशाला पहुंचाना अपना “धर्म” समझा.

तीन घंटे की देरी से चार-पांच किलोमीटर दूर अस्पताल में जब रकबर को पहुंचाया गया तब तक उसकी मौत हो चुकी थी. जनाजा रकबर का नहीं बल्कि भारत की कानून व्यवस्था का उठा. आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? यह समझने के लिए आप अतीत के कुछ संदर्भों और किस्सों पर गौर कीजिए.

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सुकरात ने जहर पीकर विधि व्यवस्था में सिद्ध की आस्था

पहला किस्सा करीब ढाई हजार साल पुराना है. तब मानव सभ्यता के महान दार्शनिकों में से एक सुकरात पर देवताओं के खिलाफ बोलने और युवाओं को गुमराह करने का मुकदमा चला और उन्हें एथेंस की जनता ने मृत्युदंड सुना दिया. सुकरात के दोस्त क्रीटो ने उन्हें जेल से भगाने की तैयारी कर दी. लेकिन काफी गुजारिश के बाद भी सुकरात ने भागने से इनकार कर दिया.

क्रीटो ने हर तरह के तर्क दे दिए, लेकिन सुकरात टस से मस नहीं हुए. उन्होंने कहा कि जीवन भर उन्होंने “सत्कर्म, न्याय, विधि और संस्थाओं” के पालन की सीख दी है. इन “मूल्यों” के आधार पर “फैसले का हक एथेंस और एथेंस की जनता को है”. इसे बदलने का हक भी “सिर्फ एथेंस की जनता को ही है”.

लिहाजा “ईश्वर के आदेश” पर उन्हें “विधि-शास्त्र” के तहत “एथेंस की जनता के फैसले का सम्मान करना होगा”. सुकरात ने जहर पी लिया. हजारों साल बीत गए हैं सुकरात पर चलाया गया मुकदमा, मुकदमे के बाद जेल में सुकरात और क्रीटो के बीच का संवाद आज भी पढ़ा जाता है.

जब कानून की अवहेलना नहीं कर सके भगवान राम

दूसरा किस्सा भगवान राम के जीवन से जुड़ा है. राम पर दो आरोप लगते हैं. पहला दलित ऋषि शंबूक की हत्या का और दूसरा अपनी धर्मपत्नी सीता को घर से बाहर निकालने का. राम दोनों ही फैसलों के पक्ष में नहीं थे, लेकिन दोनों ही फैसले लेने पड़े. दलित ऋषि शंबूक वध के बारे में डॉ आंबेडकर अपनी पुस्तक “जाति प्रथा के विनाश” (एनहिलेशन ऑफ कास्ट) में लिखते हैं कि “राम के हाथ कानून से बंधे हुए थे”. “तब का कानून ही ऐसा था”.

न्यायप्रिय राम अपनी पत्नी सीता से बेइंतहा मोहब्बत करते थे. लेकिन राम को उन्हें घर से निकालने के फैसले पर भी अमल करना पड़ा. बाद में राम ने जब अपना फैसला बदलना चाहा तो सीता ने उन्हें यह हक नहीं दिया. नारी सम्मान के साथ राम के मान की भी रक्षा की और धरती में समा गईं. मतलब कानून और विधि व्यवस्था वो सर्वोच्च व्यवस्था है जिसकी अवहेलना कोई नहीं कर सकता. भले ही वह भगवान ही क्यों नहीं हों!

कानून तोड़ने पर करीब 7 साल जेल में रहे गांधी

महात्मा गांधी समेत हमारे पुरखों ने भी अपने जीवन में यही सबक देने की कोशिश की. उन्होंने आंदोलनों के जरिए अनेक सुधार किए. अंग्रेजी हुकूमत को कई अमानवीय कानून बदलने पर मजबूर किया. अमानवीय कानूनों के विरुद्ध उनका संघर्ष हमेशा “कानून के दायरे” में रहा. जब कभी कानून के दायरे से बाहर गया तो उसके एवज में गांधी और उनके साथियों ने हर सजा हंसते हुए कुबूल की.

लंबे राजनीतिक संघर्ष में गांधी ने करीब 7 साल जेल में बिताए. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तो 9 साल जेल में रहे. उन्होंने यह सबकुछ इसलिए सहा क्योंकि वो जानते थे कि कानून का राज कानून की अवहेलना करके स्थापित नहीं हो सकता. महात्मा गांधी अहिंसक और न्यायप्रिय समाज बनाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने त्याग और बलिदान के जरिए उस दौर की पीढ़ी को प्रशिक्षित किया.

मानवीय मूल्यों पर आधारित मजबूत कानून व्यवस्था से बनता है देश

किसी भी देश के निर्माण में कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा हाथ होता है. कानून व्यवस्था के ध्वस्त होने पर देश का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. मजबूत देश बनाने के लिए मानवीय मूल्यों पर आधारित मजबूत कानून व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसी कानून व्यवस्था तभी बनती है, जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग पूरी ईमानदारी और सख्ती से कानून का राज स्थापित करें.

यह मुमकिन है कि हम किसी कानून से असहमत हों और उसे बदलना चाहें. लेकिन उसे बदलने की एक निर्धारित प्रक्रिया होती है. कानून और न्याय की व्यवस्था में प्रक्रिया का अपना महत्व है. यह साधन और साध्य की पवित्रता के सिद्धांत की तरह है.

अगर आपका यकीन देश पर है तो आपको देश की कानून व्यवस्था पर भी यकीन करना होगा. आपका विश्वास न्याय में है तो आपको न्यायिक प्रक्रिया पर भी विश्वास करना होगा. यह बात आम और खास, सभी लोगों पर समान तरीके से लागू होती है. इसीलिए कहा जाता है कि संविधान और कानून का राज चलेगा, किसी व्यक्ति का नहीं. व्यक्ति माध्यम मात्र है. लिहाजा यह मुमकिन ही नहीं कि संविधान और कानून तोड़कर, अन्याय और अपराध को संरक्षण देकर न्यायप्रिय समाज की रचना की जा सके.

यूं ही नहीं डॉ आंबेडकर ने निर्धारित की कानून बनाने की प्रक्रिया

देश की कानून व्यवस्था में अनेक सुधार हुए हैं

आजादी के बाद से अब तक देश की कानून व्यवस्था में अनेक सुधार हुए हैं. यह सुधार प्रक्रिया निरंतर जारी है. डॉ आंबेडकर की अगुवाई में संविधान बनाते वक्त हमारे पुरखों ने यह भी तय किया गया कि भविष्य में देश में किस तरह कानून बनाए जाएंगे और बदले जाएंगे. उन्होंने संवैधानिक संशोधन का तरीका भी निर्धारित किया और यह सबकुछ इसलिए निर्धारित किया, क्योंकि वो जानते थे कि बदलते वक्त के साथ समाज की जरूरत बदलेगी और तब कई कानून पुराने लगने लगेंगे, उन्हें बदलना जरूरी होगा.

उदाहरण के तौर पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में अमानवीय धारा 377 रद्द करने पर लंबी बहस हुई है. मानवता में यकीन रखने वाले सभी लोगों को यह उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट धारा 377 को खत्म करने का फैसला सुनाएगा. यह धारा हमारे 4-8 फीसदी लोगों पर तलवार की तरह लटकी हुई है. उसी तरह अभी सुप्रीम कोर्ट ने मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए सरकार को कानून बनाने का आदेश दिया है.

अब सोचिए कि रकबर के असली कातिल कौन हैं?

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए हम अपने शुरुआती सवाल पर वापस लौटते हैं. आखिर रकबर की हत्या के लिए कौन जिम्मेदार है? दरअसल, इन दिनों देश में एक अलग ही धारा बह रही है. यह धारा उन लोगों ने चलाई है जिनका यकीन न मानवीय मूल्यों में है, न कानून व्यवस्था में है, न न्यायप्रिय समाज बनाने में है, ना ही न्यायिक प्रक्रिया में है.

ये सड़कों पर बेकसूर लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर कत्ल कर रहे हैं. सत्ता में बैठे लोगों का यह दायित्व बनता है कि इन अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करके कानून का राज स्थापित करें. लेकिन ऐसा करने की जगह सत्ता में बैठे लोगों का एक तबका इन अपराधियों को हार पहना कर इन्हें सम्मानित कर रहा है. सरकारी कंपनियों में काम दिलवा कर इन्हें प्रोत्साहित कर रहा है. अब आप ही बताइये कि जब कानून बनाने वाले और कानून का राज स्थापित करने वाले कानून तोड़ने वाले अपराधियों को संरक्षण देंगे तो उस स्थिति में देश कैसे बचेगा, कितने दिन बचेगा और किस हाल में बचेगा?

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