झारखंड के खरसावां में 24 साल के तबरेज अंसारी की हत्या कोई नई बात नहीं. तबरेज को जय श्रीराम कहने पर मजबूर किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गई. दरअसल, पिछले एक महीने में मुस्लिम-विरोधी कई आपराधिक घटनाएं हुई, जिनमें ये भी एक आपराधिक घटना थी.
- हरियाणा के गुरुग्राम में मोहम्मद बरकत की पिटाई की गई. उसे जबरन भारत माता की जय और जय श्रीराम कहने पर मजबूर किया गया.
- बिहार के बेगूसराय में मोहम्मद कासिम से पाकिस्तान जाने को कहा गया और फिर उसे गोली मार दी गई.
- उत्तरी बंगाल में हिजाब पहनी एक महिला के साथ जय श्रीराम का नारा लगाने वाले कुछ लोगों ने बदतमीजी की.
- असम के बारपेटा में मुस्लिम युवकों की पिटाई की गई और उन्हें भारत माता की जय कहने को मजबूर किया गया.
- दिल्ली के रोहिणी में मोहम्मद मोमिन को एक कार से टक्कर मार दी गई, क्योंकि उन्होंने जय श्रीराम कहने से इंकार किया था.
अल्पसंख्यकोंऔर दलितों के खिलाफ अनगिनत आपराधिक घटनाओं पर नजर रखने वाले मोहम्मद आसिफ खान के मुताबिक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद से ऐसे वारदात बढ़े हैं.
इन हालात में मुस्लिम समुदाय के सामने सबसे बड़ा सवाल है: मोदी राज में किस तरह अपनी सुरक्षा की जाए?
मुस्लिम समुदाय में मुख्य रूप से चार विकल्पों पर विचार चल रहा है:
- बीजेपी को अपना लें.
- राजनीति से दूर रहें.
- कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसे ‘सेक्युलर’ दलों को मजबूत किया जाए.
- असद्दुदीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इतेहादुल मुस्लिमीन जैसी ‘मुस्लिम’ पार्टियों को समर्थन दिया जाए.
पहले दो विकल्पों के समर्थक अपनी परेशानियों से लिए खुद मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहराते हैं. ऐसी ही एक सोच पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान के इंटरव्यू में सुनने को मिली, जो उन्होंने HTN Tiranga TV के लिए करन थापर को दिया था.
परेशानियों की जड़ समुदाय के भीतर है.आरिफ मोहम्मद खान
इस इंटरव्यू में उन्होंने इंकार किया कि भारत में मुस्लिम समुदाय असुरक्षित महसूस कर रहा है. उन्होंने यहां तक कह डाला कि भारत में “अल्पसंख्यक” जैसा कोई समुदाय है ही नहीं.
मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय के कुलपति फिरोज बख्त अहमद ने भी The Indian Express में छपे अपने आर्टिकल में कुछ ऐसे ही तर्क दिये थे.
उन्हें लिखा, “अगर मुसलमानों ने छह दशक तक कांग्रेस को वोट दिया, तो अगले चुनाव में उन्हें निश्चित रूप से बीजेपी को एकमुश्त वोट देकर बदलाव देखना चाहिए. हाल में हुए चुनाव के नतीजे मुस्लिम समुदाय को असदुद्दीन ओवैसी और आजम खान जैसे भड़काने वाले नेताओं से दूरी बनाने की सलाह देते हैं. इससे राजनीतिक मुख्यधारा में उनके प्रवेश का रास्ता साफ होगा.”
सोशल मीडिया पर एक और आर्टिकल जोरदार बहस का कारण बना. लेखिका सानिया अहमद ने मुस्लिम समुदाय से अपील की, कि वो “बिजली चुराना बंद करें,” “अपने बच्चों को बिना हेलमेट बाइक चलाने से रोकें” और “कचरे को कचरादान में फेंकना शुरू करें.” लेखिका का दावा था कि इन कदमों से समुदाय की स्थिति पूरी तरह न भी बदले, तो “कुछ बेहतर जरूर होगी.”
इन दलीलों के साथ बुनियादी समस्या है, कि वो मुस्लिम समुदाय की बदहाली के लिए काफी हद तक उन्हें ही जिम्मदार मानते हैं. अगर वो राजनीति से दूर रहते हैं और हेलमेट पहनना शुरू कर देते हैं तो उनकी बदहाली कम हो जाएगी.
इन दलीलों में उस आपराधिक हिंसा को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया गया, जिसका सामना ये समुदाय कर रहा है.
जब लोक सभा में बीजेपी सांसद ओवैसी और तृणमूल कांग्रेस के सांसदों को “जय श्रीराम” और “भारत माता की जय” कहकर चिढ़ाते हैं, तो क्या वो संसद के बाहर आपराधिक हिंदू तत्वों को अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा ही बर्ताव करने के लिए नहीं उकसाते?
जब बीजेपी उस प्रज्ञा ठाकुर को लोक सभा उम्मीदवार के रूप में टिकट देती है, जिसपर एक बम विस्फोट की साजिश रचने और 10 मुसलमानों की हत्या का आरोप है, तो क्या वो मुस्लिमों के प्रति हिंसा को बढ़ावा नहीं देती?
ऐसे हालात में आखिर क्यों मुस्लिम समुदाय को सलाह दी जाती है कि वो बीजेपी को एकमुश्त वोट दें?
मुस्लिम समुदाय के प्रति ये अपराध हिन्दू समुदाय में फैलाए जाने वाले उन अफवाहों का नतीजा हैं, जिसमें बताया जाता है कि मुस्लिम समुदाय का अस्तित्व ही उनके लिए खतरा है. जब एक समुदाय के वजूद को ही खतरनाक बताया जाए, तो उस समुदाय की समस्याएं सियासत से दूरी बनाने या सामान्य दुनिया से अलग-थलग रहने से दूर नहीं होंगी. इस लिहाज से मुस्लिम समुदाय की समस्याएं उनके भीतर नहीं हैं.
मुस्लिम समुदाय को क्या करना चाहिए?
लेकिन समुदाय में एक कमजोरी जरूर है, जो मौजूदा हालात को और बदतर बनाती है. ये कमजोरी जरूरत से ज्यादा राजनीति नहीं, बल्कि जरूरत से कम राजनीति है. उत्तर भारत में मुसलमान राजनीति में प्रवेश करने से कतराते हैं. इतिहास की ओर नजर डालें, तो इसके तीन कारण हो सकते हैं:
- 19वीं सदी में जब ब्रिटिश हुकूमत मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग करने पर उतारू थी, तो सर सैय्यद अहमद खां ने कहा था कि समुदाय को राजनीति से परहेज करना चाहिए और शिक्षा और आर्थिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. आज की संकट की घड़ी में भी मुस्लिम समुदाय इसी सबक पर भरोसा करता है और कई असरदार मुस्लिम शख्सियत इसी सबक में मौजूदा समस्याओं के समाधान तलाशते हैं.
- उत्तर भारत के मुस्लिम देश विभाजन को कमोबेश मोहम्मद अली जिना और मुस्लिम लीग की जिद का नतीजा मानते हैं.
- हुसैन अहमद मदनी की अगुवाई में जब देवबंदी उलेमा ने आजादी से पहले कांग्रेस का समर्थन और जिन्ना का विरोध किया था, तो ये समझा गया था कि मुस्लिम समुदाय पहचान की राजनीति से दूर रहेगा और समुदाय को पर्सनल लॉ के क्षेत्र में जगह दी जाएगी.
तीनों कारणों से उत्तर भारत के मुसलमान, समुदाय आधारित सक्रिय राजनीति से दूरी बनाए हुए थे. वर्तमान संदर्भ में इसकी अहमियत जरूर है, लेकिन ये पूरी तरह उचित भी नहीं.
जी हां, सर सैय्यद ने जरूर कहा था कि मुसलमानों कोशिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. लेकिन राजनीति में मुस्लिम समुदाय मेंशिक्षा का प्रसार होते देखना जरूरी नहीं है। दरअसल दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं.
निश्चित रूप से पर्सनल लॉ एक जरूरी पहलू है. लेकिन पर्सनल लॉ की सुरक्षा के लिए भी मुस्लिम समुदाय का एकजुट होना जरूरी है. पिछली सरकार के दौरान ये बिलकुल साफ हो गया था, जब मोदी सरकार के विवादास्पद तीन तलाक बिल का विरोध करने वालों में सिर्फ AIMIM और कुछ क्षेत्रीय पार्टियां शामिल थीं.
क्या एक मुस्लिम पार्टी का होना ही इकलौता समाधान है?
देश के दो समुदायों ने सफलतापूर्वक साबित किया है कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए राजनीतिक रूप से संगठित होना जरूरी है – ये समुदाय हैं, दलित और सिख. मुस्लिम समुदाय में बहुजन समाज पार्टी या शिरोमणि अकाली दल जैसी कोई बड़ी पार्टी नहीं है. मुस्लिम समुदाय की दो सबसे पुरानी पार्टियां AIMIM और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग हैं. AIMIM की पकड़ तेलंगाना और महाराष्ट्र में, जबकि IUML की पकड़ केरल में है. आश्चर्य नहीं कि इन इलाकों के ज्यादातर मुसलमान शिक्षित हैं और उनकी आर्थिक हालत भी बेहतर है.
लेकिन दलितों और सिखों ने साबित कर दिया है कि राजनीतिक सशक्तिकरण सिर्फ अपने हितों के लिए पार्टी बनाना ही नहीं, बल्कि दूसरे दलों के साथ समानता के आधार पर ताकत का समीकरण भी स्थापित करना है.
इसका मतलब है कि मुसलमानों को सिर्फ कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, टीएमसी और आम आदमी पार्टी जैसी सेक्युलर पार्टियों का मुंह देखने की जरूरत नहीं. समुदाय एकजुट होकर इन पार्टियों के सामने अपनी कुछ मांगें रख सकता है. मसलन, उसके खिलाफ आपराधिक कार्रवाईयों का विरोध करना, या जिन राज्यों में उनकी सरकार है, वहां ऐसी हरकतें होने पर फौरन कार्रवाई करना.
मुस्लिम समुदाय के सामाजिक और आर्थिक हितों को देखते हुए भी ऐसी ही मांगें रखी जा सकती हैं.
मुख्य बात है कि कथित ‘सेक्युलर’ पार्टियों के साथ मुस्लिम समुदाय के ताकत का समीकरण बदलना जरूरी है. ये पार्टियां सिर्फ इस सोच के साथ हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती हैं कि बीजेपी को हराने के लिए उन्हें मुस्लिम समुदाय वोट देगा ही.
स्वाभिमान, खुद से नफरत नहीं
हम कहां जा रहे हैं, ये समझने के लिए ये जानना जरूरी है कि हमारी जड़ें कहां हैं. भारत में इस्लाम का इतिहास बेहद पुराना है. पैगम्बर मोहम्मद के जीवनकाल में ही इस्लाम भारत पहुंच चुका था. ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक भारत पहुंचने वाला पहला मुस्लिम, मलिक दीनार था. बसरा से आया मलिक एक धर्म प्रचारक था. Encyclopedia of Islam के मुताबिक खुद को पाक-साफ करने के लिए “अंदरूनी जिहाद” की अवधारणा मलिक दीनार की ही देन थी.
“सच्चे जिहाद” की व्याख्या करते हुए आज भी इस अवधारणा की मिसाल दी जाती है. ये बेहद अहम है कि मूल रूप से इस अवधारणा को शुरू करने वाला ही इस्लाम को भारत लाया था और यहीं उसकी मृत्यु भी हुई थी.
मलिक दीनार ने केरल के कोडुंगल्लुर में भारत की पहली मस्जिद का निर्माण कराया था. माना जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद के मदीना जाने के महज सात सालों बाद, यानी 629 AD में इस मस्जिद का निर्माण हुआ था.
इसका निर्माण एक वीरान मठ की जगह हुआ था, जिसे चेरा सम्राट चेरामन पेरुमल ने मुसलमानों को दिया था. सम्राट के नाम पर ही इस मस्जिद का भी नाम पड़ा. कहा जाता है कि चेरामन पेरुमल इस्लामिक उपदेशों से काफी प्रभावित थे. सम्राट चेरामन को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं. एक कहानी के मुताबिक वो अरब चले गए, जहां उनकी मुलाकात पैगम्बर से हुई थी. सम्राट की मृत्यु भी वहीं हुई थी.
मलिक दीनार और चेरामन पेरुमल की कहानी आज भी भारतीय मुस्लिमों के लिए मायने रखती है. ये कहानी बताती है कि भारत में इस्लाम का विकास एक मुस्लिम विद्वान और एक भारतीय शासक के आपसी सम्मान का नतीजा था. ये बराबरी के आधार पर विचारों का आदान-प्रदान था और किसी पक्ष को बेजा समर्थन नहीं दिया गया था. इसका विकास कथित गंगा-जमुनी तहजीब से अलग था, जिसमें एक नदी दूसरे में मिल जाती है और अपना वजूद खो देती है.
आजके भारत में मुस्लिम होने का मतलब खुद से नफरत करना, खुद को कसूरवार ठहराना, अपनीपहचान खोना या ताकतवर गुटों से दबकर रिश्ते बनाना नहीं है.
मुस्लिम होने और इस देश का नागरिक होने के नाते आत्मसम्मान से जीना जरूरी है. ये उसी प्रकार है, जैसे संसद में मुस्लिम सांसद दूसरों से दबे बगैर अपने देशभक्त होने और मुसलमान होने – दोनों पर गर्व महसूस करते हैं.
कुल मिलाकर बाबा साहब अम्बेडकर के नारे में ही समाधान छिपा है: “Educate, Empower, Agitate”.
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