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नागालैंड में मौतें: AFSPA हटने से भी नहीं बदलेगी सूरत,सरकार को नजरिया बदलना होगा

Nagaland को क्यों स्थाई तौर पर 'अशांत क्षेत्र' बनाकर रखा गया है

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भारतीय सेना के 21 पैरा स्पेशल फोर्सेस की गोलियों से नागालैंड के मोन जिले में छह कोयला खनिकों सहित 14 नागरिकों की मौत हो गई. ये मौतें राज्य में गतिरोध का एक दर्दनाक संकेत हैं. यह न केवल भारत के उग्रवाद विरोधी सिद्धांत के सबसे बुरे पहलुओं को उजागर करता है, बल्कि यह पूर्वोत्तर सीमावर्ती राज्य की राजनीतिक-सुरक्षा स्थिति की भयावह और विनाशकारी स्थिति को भी प्रदर्शित करता है. इस नजरिए से देखें तो मोन जिले में हुई हत्याएं का विफलताओं एक संग्रह हैं, जो साल-दर-साल पूर्वोत्तर भारत के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाती रहती हैं.

जब भी इस तरह की भयानक घटनाएं होती हैं तब हम कठोर सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (AFSPA) के बारे में चर्चा करने लगते हैं, लेकिन इन चर्चाओं से परे मोन जिले में हुई भयावह घटना उन सभी लोगों के लिए वापस मुड़कर देखने का समय है जो पूर्वोत्तर भारत में शांति, स्थिरता और विकास के लिए जिम्मेदार हैं.

केंद्रीय राजनीतिक-सैन्य प्रतिष्ठान वर्तमान में चल रही उठापटक या छटपटाहट को शांत करने के लिए 'माफी', 'खेद' और 'कोर्ट ऑफ इंक्वॉयरी' जैसे पैंतरे आजमा रहा है. यह भारतीय सरकार की सीमावर्ती समस्याओं के प्रति लापरवाही और बेतरतीब दृष्टिकोण को उजागर करता है.

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राजनीतिक असमंजस का सैन्य समाधान

ऐसे लोग जिन्हें इस मुद्दे पर त्वरित जवाब चाहिए उनके लिए सरकार और सेना के पास सफाई देने के लिए कई जवाब होते हैं मसलन 'गलत पहचान', 'इंटेलिजेंस फेल्योर' और टार्गेटेड वाहन का चेकपॉइन्ट पर रुकने से इनकार करना आदि. लेकिन वे लोग जिन्हें बड़े सवालों के जवाब चाहिए उनको उत्तर कौन देगा? कौन समझा सकता है कि केंद्र सरकार द्वारा नागा सशस्त्र समूहों के साथ "शांति प्रक्रिया" और "ढांचे के समझौते" को लेकर ढोल पीटने के बावजूद क्यों नागालैंड में विशेष बलों की गोली से एक दर्जन नागरिकों की मौत हो जाती है? या फिर पुलिस या अर्धसैनिक सहायता के बिना कोई खतरनाक विशेष मिलिट्री यूनिट किसी भी क्षेत्र में कोई भी अभियान क्यों चला रही थी, वह भी कमजोर खुफिया जानकारी के आधार पर? या फिर इस घटना का पूर्वोत्तर के सीमावर्ती इलाकों की नाजुक शांति पर आने वाले महीनों में क्या असर पड़ सकता है?

ये सवाल इंडियन नेशनल प्रोजेक्ट और इसके संवेदनशील भौगोलिक परिधि को लेकर दृष्टिकोण के मूल में जाते हैं. नागालैंड और मणिपुर जैसे राज्य जो दोनों तरफ फैले हुए हैं उनका भविष्य द्वंद्व से घिरा हुआ है. वे ऐसी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर स्थित हैं जहां आसानी से एक-दूसरे की ओर आया जा सकता है और ये अभी भी पूरी तरह से पोस्टकॉलेनियन भारतीय राष्ट्रवाद के साथ पूरी तरह से मेल नहीं खाते हैं.

इससे निपटने के लिए भारत की सरकार ने इन दोनों राज्यों को लगभग स्थायी तौर पर अपवाद घोषित कर दिया है. इसके लिए सरकार व्यापक दूरगामी मार्शल लॉ का इस्तेमाल करती है जो सुरक्षा बलों को कार्यविधि संबंधी व्यापक छूट देता है. यह मौलिक रूप से राजनीतिक चुनौतियों के जवाब में ऐसे समाधानों पर निर्भर है जो अत्यधिक सुरक्षित हैं.

इन वास्तविकताओं और अंतर्विरोधों के विनाशकारी मेल के कारण भारत की पूर्वोत्तर सीमावर्ती दुनिया के लोग सतत हिंसा और प्रतिहिंसा के चक्र में फंस गए हैं. मोन जिले में हुई हालिया घटना से डर है कि यह नागा हिल्स में विवादों के एक नए चक्र के लिए ईंधन का काम कर सकती है. क्योंकि ये NSCN इको सिस्टम के भीतर सशस्त्र समूहों को भारतीय बलों पर हमला करने के लिए नए कारण दे सकती है. इसके परिणामस्वरूप राज्य के कमजोर युद्धविराम नियम खतरे में पड़ सकते हैं. हिंसा के इस चक्र में कोई भी विराम केवल तात्कालिक उपाय जैसा लगता है या राज्य और कुछ शक्तिशाली गैर-राज्य समूहों के छोटे हितों के तौर पर प्रतीत होता है.

अभी अनसुलझे हैं नागा के सवाल?

आत्मनिर्णय के आंदोलन अक्सर लंबे और विवादास्पद या कठिन होते हैं. सरकारों के लिए बातचीत करना इसलिए मुश्किल हो जाता है, क्योंकि समूह भंग हो जाते हैं, अलग हो जाते हैं, गायब हो जाते हैं और फिर से अचानक से प्रकट हो जाते हैं. लेकिन अभी भी इस प्रश्न को जोर देकर पूछना चाहिए कि इतने वर्षों के बाद भी भारत सरकार खुद में निहित पूरी ताकत, गुप्त निष्कासन नीतियों, अफस्पा (AFSPA) जैसे विशेष विधायी हथियारों के साथ नागा मुद्दे को सुलझाने में क्यों विफल रही है? कोई भी इस पर आश्चर्य कर सकता है कि नई दिल्ली ने आतंकवाद विरोधी तकनीकों के एक ही सेट पर क्यों भरोसा करना जारी रखा है. जबकि जातीय राजनीतिक चुनौतियों को हल करने में वे स्पष्ट तौर पर अप्रभावी रहे हैं. अंत में, किसी को इस पर भी विचार करना चाहिए कि छह साल पहले हुआ एक "ऐतिहासिक" शांति समझौता का ढांचा अब दीर्घकालिक या स्थायाी शांति के लिए नागालैंड की सबसे बड़ी बाधा क्यों बन गया है?

शायद सच्चाई उससे कहीं अधिक परेशान करने वाली है जितना हम विश्वास करना चाहते हैं: न तो सरकार और न ही युद्धरत नॉन-स्टेट ग्रुप गुट संघर्ष को समाप्त करना चाहते हैं. आम या सामान्य लोगों को छोड़कर हर कोई वर्षों तक चलने वाले इन युद्ध से मिलने वाले खास लाभ को पाने के लिए खड़ा है. ये लाभ कुछ भी हो सकते हैं जैसे वीरता पुरस्कार (गैलेंट्री अवॉर्ड्स), प्रोटेक्शन मनी या नार्काे डॉलर्स. हालांकि जैसे-जैसे दशकों का संघर्ष समाप्त होता है, वैसे-वैसे लाभ उठाने की एक पूरी श्रृंखला रुकने लग जाती है. जो लोग हिंसा और अस्थिरता रूपी इस सोने का अंड़ा देने वाली मुर्गी से किस्मत बनाना चाहते हैं, वे इसे जीवित रखने और किसी न किसी तरह से फड़फड़ाने के लिए हर तरह से जोखिम उठाते हैं.

यही कारण है कि पूर्वोत्तर भारत जैसे "संवेदनशील" क्षेत्र में, अपवाद की एक लंबी स्थिति भारतीय राज्य के लिए काम करती है : इसकी वजह से तात्कालिकता (या इमरजेंसी) की भावना बनी रहती है. जिसकी आड़ में वो सेना की तैनाती को सही ठहराने का काम करते हैं. सुरक्षा तंत्र को पुख्ता रखने का काम करते हैं और सैनिकों को सर्तक रखते हैं.

कोई आश्चर्य नहीं कि सुरक्षा क्षेत्र में किसी भी महत्वपूर्ण सुधार को लागू किए बिना नई दिल्ली साल-दर-साल नागालैंड के लिए "अशांत क्षेत्र" टैग का विस्तार कर रही है. इस संदिग्ध कार्रवाई ने कभी भी सशस्त्र संगठनों को राज्य के भीतर काम करने से नहीं रोका, बल्कि समानांतर अर्थव्यवस्थाओं और प्रभाव के नेटवर्क को बढ़ावा दिया जिससे केवल कुछ ही लोगों को फायदा हुआ.

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मुद्दा सिर्फ AFSPA का नहीं है?

इन सबके परिणाम स्वरूप मैं तर्क दूंगा कि यह AFSPA जैसे विशिष्ट कानून से परे है, जिसे स्पष्ट रूप से निरस्त करने की आवश्यकता है. भले ही कल केंद्र सरकार द्वारा AFSPA को निरस्त कर दिया जाए, लेकिन इसके अगले दिन पूर्वोत्तर भारत के सीमावर्ती इलाकों में एक नए अपवाद की स्थिति विकसित होगी. सरकार उस क्षेत्र के सामान्य कानून को दरकिनार करने का तरीका खोजेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि 'वाइल्ड ईस्ट में' उसके सुरक्षा बलों के पास एक व्यापक, विवेकाधीन और अनियंत्रित अधिकार वाला इलाका हो. गैर-राज्य समूह स्वयं को क्षणिक नई वास्तविकता के अनुरूप ढालेंगे. नई संघर्ष वाली अर्थव्यवस्थाएं उभर कर सामने आएंगी.निर्दोष नागरिक खुद को घातक क्रॉसफायर और "बेतरतीब घात" के बीच में पाते रहेंगे.

इस अशांत वास्तविकता को स्थायी शांति से बदलना पूरी तरह से मुश्किल नहीं है. लेकिन यह तभी संभव होगा जब भारत सरकार अपनी उत्तर-औपनिवेशिक हठधर्मिता को त्यागने और मूल निवासियों की राजनीतिक स्वायत्तता की सच्ची भावना को पहचानने में सक्षम हो. इसके साथ ही जब वह अपने सुरक्षा उन्मादों को त्यागने के लिए आवश्यक दृढ़ विश्वास का प्रदर्शन कर सके और सेना को अपनी परिधि से अलग कर सके. इसके बजाय जीवन स्तर को ऊपर उठाने, लाभ के वैकल्पिक स्रोत बनाने और अपने लोगों की गरिमा को बनाए रखने के उद्देश्य से निचले स्तर के नागरिक सुधारों में निवेश करे. इसके अलावा यह केवल तभी होगा जब यह संघर्ष की अर्थव्यवस्थाओं को व्यापक और ईमानदारी से नष्ट करने में सक्षम हो, जिसका लाभ इससे जुड़े सभी प्रमुख दलों को मिलता रहा है.

तब तक केवल अस्थायी सांप्रदायिक आक्रोश, दोषपूर्ण शांति समझौतों और जवाबदेही के खोखले वादों के बीच पूरब की खूबसूरत पहाड़ियों पर खून बहता रहेगा.

(लेखक- इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (IPCS) के सीनियर रिसर्चर और साउथ ईस्ट एशिया रिसर्च प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर हैं. वे ट्विटर पर @angshuman_ch से ट्वीट करते हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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