मानवता के खून से सने बिना नील ब्रिटेन नहीं पहुंचता”. यह प्रसिद्ध पंक्ति है यूरोपीय विद्वान ई. डब्लू. एल. टावर की. बिहार की तबाही की कहानी ऐतिहासिक है. और नील की खेती इस त्रासदी का एक अहम प्रस्थान बिंदु है. प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार शाहिद अमीन ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ हाल ही में एक किताब लिखी है-‘थम्ब प्रिंटेड: चंपारण इंडिगो पिज्न्ट्स स्पीक टू गांधी’
प्रथम दृष्टया मैं इसे पढ़ने से परहेज कर रहा था, सोचा यह बोझिल है, लेकिन जब मेरी अकादमिक निदेशिका और प्रसिद्ध मानवाधिकार लेखिका कल्पना कन्नाबीरन (CSD, दिल्ली) ने मुझे निर्देश दिया तो फिर इसे पढ़ा और समझा कि इसे नहीं पढ़े जाना एक बड़ी अकादमिक भूल होती.
इस किताब को पढ़ना केवल बिहार के उपनिवेशकालीन ग्रामीण अर्थतंत्र के विनाश को समझना ही नहीं है, बल्कि यह वर्तमान समय में ग्रामीण कृषि-व्यवस्था में किये जानेवाले आमूल-चूल परिवर्तनों के फलस्वरूप होनेवाली भयंकर त्रासदी की पुनरावृति से सचेत करनेवाला एक दस्तावेज भी है.
वर्तमान भारत में ग्रामीण कृषि अर्थव्यस्था को वैश्विक पूंजी के हाथों में सौंपने की जो भव्य राजकीय परियोजना चल रही है. ऐसे में इसके गंभीर सामाजिक-आर्थिक दुष्परिणामों पर केन्द्रित विमर्श को मजबूत करने में यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण पहल है. जिसे अनिवार्य रूप से पढ़ा जाना चाहिए.
यह एक शानदार संग्रह है उन ऐतिहासिक आख्यानों और उपाख्यानों की जिसके द्वारा औपनिवेशिक काल में बिहार की ग्रामीण अर्थव्यस्था को तबाह करने की नींव रखी गई थी. यह एक लोकप्रिय तथ्य है कि ऐसे ही विध्वंशों पर यूरोपीय औधोगीकरण की आधारशिला भी तैयार हुई थी.
17-18वीं सदी में बिहार में बलपूर्वक करवाए जानेवाली नील की खेती के बारे में थोड़ा-बहुत सबने पढ़ा-सुना है. लेकिन यह किस स्तर तक अमानवीय था इसका चित्रण इस पुस्तक ने बड़े ही सशक्त तरीके से किया है और इसके लिए इन्होंंने समकालीन समय के किसानों या मजदूरों की कहानी को उनके शब्दों में ही रखने का एक सफल प्रयास किया है.
पुस्तक ‘लेखकीय-विचार’ मात्र से अधिक ‘ऐतिहासिक-तथ्य’ आधारित है. अर्थात इसने इस विमर्श पर अपनी व्यक्तिगत राय या विश्लेषण के बजाय सीधे उन ऐतिहासिक दस्तावेजों को ही प्रस्तुत कर दिया है जिसे गांधी और उनके सहयोगियों के द्वारा विभिन्न भाषाओं जैसे भोजपुरी, कैथी, उर्दू आदि से अंग्रेजी में अनुवादित करवाया गया था. ताकि वे इन असहाय मजदूरों और किसानों की लड़ाई लड़ सके.
मुनाफा कमाने की होड़?
जैसा आजकल होता है कि कॉर्पोरेट और सरकार के बीच ‘सामुदायिक-विकास’ के नाम पर लोक-संसाधनों की लूट-पाट का एक प्रत्यक्ष या प्रक्षन्न ‘समझौता’ है. ठीक वैसे ही औपनिवेशिक बिहार में कंपनी और क्षेत्रीय जमींदारों जैसे बेतिया-राज, रामनगर-एस्टेट, मधुबन-एस्टेट आदि के बीच एक ‘तंत्र’ विकसित था जिसका उदेश्य था कि कैसे रैयतों या किसानों से नील की बलपूर्वक खेती करवाई जाए और अधिकतम मुनाफा कमाया जाए.
इस तंत्र की सेवा में लगे लोग ‘अमला’ कहलाते थे, इनमें कुछ मुख्य थे- पटवारी, गुमास्ता, टोकेदार, जमादार, दफादार, क्लर्क, गार्ड्स, प्यादा, धांगर आदि. यह तंत्र संपत्ति और संसाधन को केंद्रीकृत करने की औपनिवेशिक रणनीति थी. इसमें आजीविका के पारंपरिक श्रोत तो बर्बाद होने ही थे, साथ ही निर्धन को लगातार और अधिक निर्धन होते जाना था. यह तंत्र दो तरीके से कार्य कर रहा था- एक तो ‘तिनकठिया’, जिसके अंतर्गत कुल बीस कट्ठे भूमि में से तीन कट्ठे भूमि पर रैयतों को नील की खेती अनिवार्य रूप से करनी होती थी. और दूसरा था- ‘जिरैयत’ जिसपर कंपनी सीधे अपने अधिकार और संरक्षण में नील उपजाती थी.
यह खेती मात्र तीन कट्ठे की बाध्यतामूलक खेती तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसके भीतर अनगिनत ऐसे घोषित-अघोषित प्रावधान और नियम थे जो रैयतों और किसानों को बर्बाद करने के लिए पर्याप्त थे. एक ऐसा ही प्रावधान था ‘सरबेशी’ (सरब-नियम, बेशी-अतिरिक्त).
कंपनी के पास ‘वसूली’ के लिए कई बहाने
अगर कोई रैयत या किसान अपनी भूमि के 3/20 भूमि पर नील की खेती नहीं करना चाहता तो इसके बदले उसे ‘किराया’ देना होता था और यह ‘किराया’ आमतौर पर साठ प्रतिशत से लेकर पचहत्तर प्रतिशत तक हो सकता था. यह ‘किराया’ कम और ‘वसूली’ अधिक था, क्योंकि इसके लिए जाने के तरीके में कहीं से भी कोई मानवीय पक्ष शायद ही था. कंपनी के पास ऐसी ‘वसूली’ के लिए कई बहाने थे.
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नील की कीमतों के घटने की स्थिति में भी इनका यह ‘किराया’ बढ़ सकता था. इसके अतिरिक्त नील की खेती के लिए जो भूमि ली जाती थी, वह किसानों की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि होती थी, जिसपर किसान अन्य खाद्यान फसलों को उपजाना चाहते थे, लेकिन उनके हिस्से में कम उपजाऊ और बंजर भूमि ही छोड़े जाते थे. और इसलिए नील की ऐसी खेती से बचने के लिए अक्सर किसान अमानवीय अनुबंधों पर हस्ताक्षर कर देते थे, इसके बावजूद वे कंपनी और इनके ‘अमलों’ के आतंक से बच नहीं पाते थे.
इस संदर्भ में एक किसान दुर्गा राय की कहानी दुर्भाग्यपूर्ण है. उसने ‘सरबेशी’ अनुबंध के लिए अपना एक हिस्सा भूमि भी बेच डाला, इसके उपरांत भी वह कंपनी का किराया नहीं दे सका, परिणामस्वरूप उसे भाग जाना पड़ा. और उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी से अंगूठे का निशान ले लिया गया. कुछ ऐसा ही द्वारिका राय के साथ भी हुआ, उसके फूस के घर को तोड़कर उसकी पत्नी को बाहर घसीटा गया और फिर ‘सरबेशी’ के एक अनुबंध के लिए उसके अंगूठे के निशान को ले लिया गया.
जिन लोगों ने ऐसे अनुबंधों या गलत ‘किराये/वसूली’ का विरोध किया उन्हें लाठियों से पीटा गया, धमकाया गया, उनकी संपत्ति लूट ली गई, उन्हें अपहृत किया गया. इतना ही नहीं, ‘मुसमात’ (विधवा) स्त्रियों के साथ भी अनगिनत मामले हुए जिसमें उनके साथ दुर्व्यवहार तक किये गए, और उन्हें बाध्य करके अवैध किराया लिया गया.
विरोध करने वालों को झूठे केस में फंसाया गया
इस संदर्भ में बिष्णु साहू की मृत्यु के उपरांत उसकी विधवा पत्नी से लिए गए किराए का मामला अहम है, जबकि उस असहाय विधवा का बेटा भी मर चुका था. यह दुखद रहा कि न्यायिक प्रणाली भी अक्सर इन्हें न्याय दिलाने के बजाय इन्हें कानूनी तरीके से फंसाने में ही अधिकतर संलग्न रही.
विरोध करनेवालों को झूठे मुकदमों में डाल देना तो सामान्य बात थी. जैसा कि सिरतज राय के मामले में हुआ कि जब उसने सरबेशी की गलत तरीके से बढ़ा दी गई रकम देने में असमर्थता व्यक्त की तो उसे हत्या के झूठे मामले में फंसा दिया गया. जैसा कि दस्तावेज भी बताते हैं कि केसरिया थाने के जगीरहा फैक्ट्री ने अमानवीय शारीरिक यातनाओं के माध्यम से ऐसे अनुबंधों या ‘वसूली’ के लिए बाध्य किया, वहीं दूसरी तरफ मोतिहारी फैक्ट्री ने अपराधिक मुकदमों की सहायता ली.
इतना ही नहीं, व्यक्तिगत दुश्मनी निकालने के लिए भी ‘अमलाओं’ ने अपने पद का और अधिक दुरूपयोग किया. उदाहरण के लिए फैक्ट्री के एक ‘चपरासी’ धूनी राय ने माखन राय से कई बार गलत किराये आदि की मांग की. एक अभिलेख के अनुसार- ‘एक बार ऐसे ही 14 रुपये के लिए उसने लाखन और अदालत राय के साथ मिलकर मुझे बांधकर बुरी तरह से पीटा, फिर मेरी मां के बीच-बचाव करने के बाद 2 रुपये लेकर उसने मुझे छोड़ा..’. लेकिन इस तरह के कार्यों के विरुद्ध कोई ठोस कार्रवाई की गई हो ऐसे दस्तावेज दुर्लभ है. महाकवि तुलसीदास की प्रसिद्ध पंक्ति भी है कि “समरथ के न दोष गोसाईं”. यह कल भी और आज भी प्रासंगिक है. आज भी न्यायालय और पुलिस-प्रशासन कैसे कार्य करती है उसे विभिन्न घटनाक्रमों में देखा जा सकता है.
यह बड़ा रोचक है कि ‘सरबेशी’ अनुबंध पर अंगूठे का निशान लेने के लिए मार-पीट, धमकी, कानूनी प्रक्रिया में उलझाना, या अन्य आर्थिक और शारीरिक दमन के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतीकों और प्रथाओं का भी खूब प्रयोग किया गया. उन्हें यह पता था कि इन प्रतीकों और प्रथाओं का महत्व इन किसानों के लिए आर्थिक दंड से अधिक है.
इस मामले के दो दृष्टान्त रोचक हैं. पहला- जब ये थाने में पकड़ कर लाये जाते थे, तो अन्य दंड के अतिरिक्त जो और अधिक “भयावह” दंड का प्रयोग होता था उनमें ‘डोम’ के द्वारा उनके मुंह में पानी डालना भी होता था. ‘डोम’ आज के समय में भी एक अत्यंत श्रेणी की “अछूत” जाति मानी जाती है. ऐसी औपनिवेशिक दासता के समय में भी “सवर्ण” रैयतों में जातीय रूप से “श्रेष्ठ” होने का बोध बना रहता था, वे किसी भी कीमत पर अपनी तथाकथित जातीय “शुद्धता” को खोना नहीं चाहते थे.
इस प्रकार के जातीय दुराग्रह आज भी बिहार के समाज और राजनीति का एक मुख्य आयाम है. जातीय संरचना में फ्रांसीसी समाजविज्ञानी लुईस ड्यूमा के ‘शुद्धता’ एवं ‘अशुद्धता’ पर आधारित सिद्धांत को यहां व्यवहार में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. रैयत धूनी राय और प्रताप राय के साथ ऐसा ही करने का आदेश एक पुलिस कांस्टेबल के द्वारा दिया गया था- ‘डोम’ के द्वारा पानी पिलाओ’. दूसरा: मूंछों का काट दिया जाना.
मूछ भारतीय परंपरा में, विशेषकर हिन्दू परंपरा में जाति, वर्ग, पौरुष, वीरता, शौर्य आदि का प्रतीक है, इसे सामान्य स्थिति में नहीं काटा जाता है. मूंछों को लेकर लोकप्रिय कहावतें हैं- ‘मूंछों पर ताव देना’, ‘मूंछे कट गई’ आदि. हालांकि ठीक तरीके से देखा जाए तो हिन्दू परम्परा में मूंछों की अनिवार्यता का स्पष्ट संकेत तो नहीं मिलता, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है यह मुख्य रूप से ‘प्रभु-जाति’ की परंपरा रही होगी, क्योंकि पूर्व में भी और अब भी कई ऐसे मामले सामने आये हैं जिसमें दलितों को मूंछें रखने के कारण मारा-पीटा गया.
फैक्ट्री मालिकों के लिए भारतीय समाज का यह मनोविज्ञान एक ‘टूल’ की तरह था, जिसका प्रयोग वे अपनी बात मनवाने के लिए करते थे. जैसे जगीरहा फैक्ट्री के दीप अहीर ने मूछ काटे जाने के डर से ‘सरबेशी’ अनुबंध पर बे-मन से अपने अंगूठे का निशान लगा दिया.
फैक्ट्री, जमींदार और इसके अमलों ने मिलकर और न जाने कैसे-कैसे उत्पीड़न किये होंगे जो न तो उस समय सुने गए होंगे और न आज उनकी पड़ताल आसान रह गई है, फिर भी गांधी जी के प्रयासों और इस सन्दर्भ में जो कुछ भी तत्कालीन दस्तावेज किसी तरह इतिहास में दर्ज हो सके उनकी खोजबीन से हम ‘तिनकठिये’ के अमानवीय पक्ष को समझ सकते हैं.
12 अप्रील, 1917 को गांधी के चंपारण आगमन के पश्चात इस ‘सिस्टम’ के विरुद्ध धीरे-धीरे एक मुहिम चलाई जाती है जो कालांतर में ‘चंपारण-सत्याग्रह’ से लोकप्रिय हुआ. गांधी का प्रभाव और लोकप्रियता इतनी थी कि उनके आगमन से घबराकर उन्हें बिहार से बाहर करने का भी प्रयास किया गया. चंपारण के कलेक्टर डब्लू. बी. हेय्कोक ने एक आदेश जारी किया और उसमें लिखा- ‘आपकी उपस्थिति जिले की शांति व्यवस्था को भंग कर सकती है, इसलिए मैं आपको यह आदेश देता हूं कि अगली ट्रेन से ही आप इस जिले को छोड़ दे..
’ गांधी ने अपने जवाब में एक बड़े जननेता होने का परिचय दिया और लिखा- ‘
जनता के प्रति अपनी जिम्मेवारी को समझते हुए मैं यह अनुभव करता हूं कि मेरे लिए यह स्थान छोड़ना कठिन है, और इसके लिए मैं दंड भुगतने को तैयार हूं......’.
कलेक्टर ने गांधी के इस पत्र का हवाला देते हुए मुख्य-सचिव को पत्र लिखते हुए अगली कार्रवाई का आदेश मांगा था. इन किसानों के लिए गांधी के कार्य तत्कालीन औपनिवेशिक वैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत ही थे, अतएव पूरी तरह से उनके कार्यों पर अंकुश लगाना आसान नहीं था, बल्कि कुछ अधिकारी ने तो उनकी इस कार्यप्रणाली के पक्ष में भी अधिकारिक रूप से लिखा. जैसे अपर-जिला अधिकारी डब्लू. एच. लेविस ने गांधी को ‘चंपारण का मुक्तिदाता’ तक कहा. लेविस ने आगे लिखा कि रैयत गांधी के बारे में बड़े ही गर्व से कहते हैं- “यही असली मालिक है”.
गांधी ने ‘सत्याग्रह’ के आन्दोलन को जमीनी रूप से जोड़ने के लिए दो मुख्य कार्यक्रमों को अपनाया- ‘स्वच्छता-अभियान’ और ‘प्राथमिक-शिक्षा’. उनके आह्वान पर देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से महत्वपूर्ण लोगों ने चंपारण आकर इन कार्यक्रमों में अपना योगदान दिया जिनमें बाबासाहब सोमन, अवंतीबाई गोखले, आनंदीबाई वैश्यमपायन, महादेव देसाई, नरहरी पारिख, दुर्गा देसाई, मणिबेन पारीख, कस्तूरबा और उनका सबसे छोटा लड़का देवदास आदि थे.
स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के डॉ. हरि कृष्णदेव ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया. लेकिन दुर्भाग्य से बिहार से इन कार्यक्रमों में सहायता देने वाले लोग नगण्य थे. डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी बिहारियों की इस निष्क्रियता पर लिखा कि यह शर्म और दुख की बात है कि ऐसी सेवाओं में बिहार से किसी ने भी किसी प्रकार का योगदान नहीं दिया..
गांधी के ऐसे ‘सकारात्मक’ प्रयासों से भी फैक्ट्री और कंपनी को भय हो रहा था और वे ऐसे कार्यों को अपनी सत्ता के विरुद्ध एक षड्यंत्र ही समझते थे, जैसा कि कमिश्नर मोर्शेड ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की उपस्थिति को एक खतरा मानते हुए मुख्य सचिव माइकफ्र्सों को सचेत किया था. ‘सकारात्मक’ कार्यों से भी भयभीत होना सत्ता का स्वाभाविक चरित्र रहा है.
‘तिनकठिया’ से होनेवाले ऐसे ही उत्पीड़न को समझने के लिए और इसके अमानवीय प्रावधानों के विरुद्ध गांधी के प्रयासों को जानने के लिए यह पुस्तक वैज्ञानिक तरीके से किये गए दस्तावेजों का संकलन है. संकलन आम पाठकों के लिए एक सन्देश है यह समझने का कि कैसे कृषि के कॉर्पोरेट के नियंत्रण में जाने से एक सामाजिक और आर्थिक अराजकता पैदा हो सकती है. तो दूसरी तरफ अकादमिक लोगों के लिए लोक-केंद्रित विमर्श खड़ा करने का एक यह बड़ा श्रोत है. और अंत में सत्ता के शीर्ष पर बैठे नीति-नियंताओं को भी एक बार यह पुस्तक उलट-पुलट कर देख ही लेना चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि वे देश और समाज को कितना समझते हैं.
(लेखक केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद्, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं )
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