मई 2014 में पदभार संभालने के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने कहा था कि उनके लिए भारत का संविधान एक “पवित्र ग्रंथ” है. उन्होंने यह भी कहा कि यह उनकी सरकार के लिए एकमात्र “धर्म ग्रंथ” होगा.
इस बात को ध्यान में रखते हुए इस सवाल पर कोई चर्चा ही नहीं होनी चाहिए थी, विवाद तो छोड़ दीजिए कि, “भारत के नए संसद भवन (New Parliament) का उद्घाटन किसे करना चाहिए था?” जाहिर है- भारत के राष्ट्रपति को करनी चाहिए थी. अगर वह संविधान के शब्दों और भावना पर चलते हैं तो यह भारत का प्रधानमंत्री नहीं होना चाहिए था.
अगर वो संविधान की उपेक्षा करना चाहते हैं तो एकदम अलग बात है. या अगर वह चाहते हैं कि भारतीय यह स्वीकार कर लें कि अब हमारे पास शासन की एक अघोषित राष्ट्रपति प्रणाली है, जिसमें गणतंत्र का असल और प्रभावी प्रमुख प्रधानमंत्री है.
भारत के राष्ट्रपति की केंद्रीय भूमिका
संविधान में तय सिद्धांत को समझने के लिए, “एंटायर पॉलिटिकल साइंस” (Entire Political Science) में पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री की जरूरत नहीं है. संविधान को सरसरी तौर पर पढ़ना ही काफी है. भारत देश और इसके लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली तीन स्तंभों पर टिकी है. इसके तीन स्तंभों में सरकार या कार्यपालिका, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होता है, केवल एक है. विधायिका और न्यायपालिका, इसके बाकी दो स्तंभ स्वतंत्र हैं और सरकार या प्रधानमंत्री के अधीन नहीं हैं.
भारत देश का मुखिया राष्ट्रपति (President of India) है, जो संविधान का संरक्षक भी है. विधायिका के कामकाज में भी राष्ट्रपति की सर्वोच्च स्थिति संविधान में ही स्पष्ट रूप से दर्ज है.
अनुच्छेद 79 कहता है: “संघ के लिए एक संसद होगी जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन शामिल होंगे जिन्हें क्रमशः राज्यसभा (Council of States) और लोकसभा (House of the People) के नाम से जाना जाएगा.”
इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि राष्ट्रपति संसद का उतना ही अभिन्न अंग है जितना राज्यसभा और लोकसभा. इसी के चलते संविधान का अनुच्छेद 86 राष्ट्रपति को निम्नलिखित जिम्मेदारियां सौंपता है:
राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन या एक साथ बुलाए गए दोनों सदनों को संबोधित कर सकता है, और इस उद्देश्य के लिए सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है.
राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन को संदेश भेज सकता है, चाहे वह संसद में लंबित किसी विधेयक के संबंध में हो या अन्यथा, और किसी सुविधाजनक माध्यम से जिस सदन को भी संदेश भेजा जाता है, और सदन संदेश में बताए मामले पर विचार करेगा.
राष्ट्रपति और संसद के बीच, एक और संवैधानिक पद है- उपराष्ट्रपति, जो राज्यसभा के सभापति के रूप में भी काम करता है.
क्या संवैधानिक प्रोटोकॉल और इसकी व्यवस्था पीएम मोदी पर लागू होती है?
भारत गणराज्य के वरीयता क्रम के आदेश में साफ तौर पर कहा गया है कि औपचारिक सरकारी समारोहों के आयोजन में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का पद प्रधानमंत्री से ऊपर होता है. संसद के एक नए भवन का उद्घाटन निश्चित रूप से ऐसा ही एक सरकारी समारोह है. संसद के बजट सत्र के उद्घाटन सत्र की सभी तस्वीरें (इंटरनेट पर उपलब्ध हैं) देखिए.
प्रधानमंत्री हमेशा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के पीछे चलते हैं. जब राष्ट्रपति दोनों सदनों के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हैं, तो उनके साथ उप-राष्ट्रपति (राज्यसभा के सभापति के रूप में) और लोकसभा के अध्यक्ष होते हैं. प्रधानमंत्री मंच पर नहीं बैठते, बल्कि सांसदों के साथ बैठते हैं, लोकसभा में उनके नेता की हैसियत से बैठते हैं.
इसके अलावा प्रधानमंत्री अगर लोकसभा का निर्वाचित सदस्य है, तो वह राज्यसभा में पहली सीट पर बैठने का हकदार नहीं हो सकता है. सत्तारूढ़ पार्टी का राज्यसभा का एक सदस्य सदन का नेता बनता है और इस हैसियत से, सत्ता पक्ष की कतार में पहली सीट पर बैठता है. प्रधानमंत्री दूसरी सीट पर बैठते हैं. इस तरह मोदी राज्यसभा में अपने ही सहयोगी मंत्री पीयूष गोयल के बगल में बैठते हैं.
ये संवैधानिक प्रोटोकॉल और इसकी व्यवस्थाएं संसदीय लोकतंत्र की नैतिकता और परंपराओं का अटूट हिस्सा हैं. ये न सिर्फ संसदीय लोकतंत्र का चरित्र तय करते हैं बल्कि इसकी आत्मा और सार भी तय करते हैं. जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि चूंकि उन्होंने ही भारतीय संसद के लिए एक नई इमारत बनाने का फैसला लिया था, ये नियम और मानदंड उन पर लागू नहीं होते हैं.
इसलिए वह चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियां इसके निर्माता के रूप में सिर्फ उनका नाम याद रखें. यह साफ है कि 10 दिसंबर 2020 को जब नए भवन के लिए ‘भूमि पूजन’ हुआ था, समारोह में न तो तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और न ही उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू को बुलाया गया था. इसी तरह अब, न तो मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु और न ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को उद्घाटन समारोह में बुलाया गया है.
विपक्ष को उद्घाटन का बहिष्कार नहीं करना चाहिए था
इस मामले में भारतीय जनता पार्टी सरकार की मनमानी संदेह से परे है. हालांकि, इससे जुड़ा एक दूसरा सवाल है: क्या कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों की ओर से उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करना सही है? इस लेखक की राय में उन्होंने भी गलत और औचित्यहीन फैसला लिया है. वैध तरीके से अपना विरोध दर्ज कराने के बाद उन्हें ऐतिहासिक समारोह में शामिल होना चाहिए था. सरकार द्वारा संविधान के प्रति अनादर के बावजूद हकीकत यह है कि संसद भारत के सभी लोगों की है.
जब BJP सवाल उठाती है तो विपक्ष भी कमजोर धरातल पर खड़ा नजर आता है. उदाहरण के लिए 2020 में नई विधानसभा भवन की नींव रखने के लिए छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल (Bhupesh Baghel) ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आमंत्रित किया, न कि राज्य के राज्यपाल को. इसी तरह तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (K Chandrashekar Rao) ने पिछले महीने राज्यपाल को आमंत्रित किए बिना हैदराबाद में नए सचिवालय भवन का उद्घाटन किया.
अब BJP के नेता विपक्ष के बहिष्कार के फैसले को संसद के अपमान के रूप में पेश कर उन्हें घेर रहे हैं- और बहुत से आम लोग इस आलोचना को सही मान लेंगे, क्योंकि उन्हें संविधान के प्रावधानों का जानकारी नहीं है.
सत्तारूढ़ पार्टी का प्रचार तंत्र पहले ही कांग्रेस को पीटने के लिए एक और “छड़ी” ले आया है. ‘सेनगोल’ (Sengol) के बारे में दावा किया जा रहा है कि तमिलनाडु का यह औपचारिक राजदंड अंतिम ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था. इस दावे को अभी अंतिम तौर पर साबित होना बाकी है.
कहा जा रहा है कि राजदंड को इलाहाबाद में नेहरू के पुश्तैनी घर आनंद भवन में एक म्यूजियम में रखा गया था, और इसे “सोने की छड़ी” बताया गया था. बीजेपी ने इस सनसनीखेज “नई खोज” का इस्तेमाल नेहरू को कटघरे में खड़ा करने के लिए किया- और कहा जा रहा है कि आज की कांग्रेस भारत की सांस्कृतिक परंपराओं का अपमान करती है.
‘सेनगोल’ मोदी सरकार के लिए एक और बेहद खास प्रतीकात्मक मकसद भी पूरा करता है. प्रधानमंत्री ने 27 मई को इसे औपचारिक रूप से तमिलनाडु के पुजारियों से ग्रहण किया और 28 मई को वे इसे नए संसद भवन में रखेंगे. लेकिन नया ‘सेनगोल’ सत्ता के किस हस्तांतरण का प्रतीक होगा? कोई गलतफहमी न रखें, यह खामोशी से घोषित करेगा कि भारत एक संसदीय प्रणाली से राष्ट्रपति शासन प्रणाली में परिवर्तित हो गया है- राष्ट्रपति औपचारिक रूप से एक रबर स्टैंप की भूमिका में सीमित हो गए हैं.
इमारत नई, मगर निष्क्रिय संसद की दास्तान पुरानी है
‘सेनगोल’ का मुद्दा जिसे मीडिया ने इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, दरअसल हमारे लोकतंत्र की खामियों के असल मुद्दे से देश का ध्यान भटकाने के लिए है. यह सच है अब हमारे पास एक नया शानदार संसद भवन है, जिसमें आने वाले समय में भारत की आबादी में बढ़ोत्तरी के हिसाब से ज्यादा संख्या में सांसद बैठे सकेंगे.
लेकिन क्या पिछले दो चुनावों में BJP की जीत के बाद से संसद के काम करने के तरीके में कोई बदलाव आया है? क्या यह संविधान के प्रति सरकार में सम्मान की भावना के मामले में एक नई शुरुआत होगी? अफसोस से कहना पड़ता है कि अगर हम पिछले नौ सालों का रिकॉर्ड देखें तो उम्मीद बहुत कम है.
1950 में गणतंत्र की शुरुआत के बाद से सरकार और विपक्ष के बीच रिश्ते कभी भी इतने खराब नहीं रहे जितने अब हैं. दोनों के बीच जरा भी भरोसा नहीं है. दरअसल, दोनों के बीच बमुश्किल ही कोई संवाद होता है.
सरकार और विपक्ष के बीच न्यूनतम आपसी भरोसे और संवाद के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता है. इनकी सिरे से गैरमौजूदगी यह साबित करती है कि संसद निष्क्रिय हो गई है.
इसके और भी सबूत हैं. प्रधानमंत्री शायद ही कभी संसद में बैठते हैं और बमुश्किल सदस्यों के सवालों का जवाब देते हैं. संसद में स्थगन अब अपवाद नहीं, नियम बन चुका है. 1952 में पहली संसद के दौरान 134 दिनों के मुकाबले अब संसद एक साल में सिर्फ तकरीबन 60 दिन चलती है. इस साल के बजट सहित दर्जनों जरूरी विधेयकों को दोनों सदनों द्वारा बिना चर्चा के पारित कर दिया गया.
सरकार ने कई बड़े मसलों पर चर्चा की इजाजत नहीं दी— चाहे भारत-चीन सीमा पर तनाव हो, किसान बिल (जिसके खिलाफ एक साल तक शांतिपूर्ण किसान आंदोलन चला), या कॉरपोरेट घोटाले. BJP जब विपक्ष में थी तो ‘अध्यादेश राज’ (Ordinance Raj) की आलोचना करती थी. अब मोदी सरकार नियमित रूप से अध्यादेश लाकर संसद की अनदेखी करती है. सबसे ताजा और सबसे घृणित वह अध्यादेश है जो अफसरों को नियुक्त करने की दिल्ली सरकार की शक्तियों को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को खारिज कर देता है.
प्रधानमंत्री मोदी काफी समय से भारत और विदेश दोनों जगह यह कहते नहीं थकते कि भारत दुनिया में ‘लोकतंत्र की जननी’ (Mother of Democracy) है. दुख की बात है कि भारत जब एक नए संसद भवन की शुरुआत कर रहा है, दुनिया देख रही है कि यह एक खंडित लोकतंत्र है और गहरी अलगाव की राजनीति से ग्रस्त है.
अगर प्रधानमंत्री मोदी और विपक्ष के नेता हमारे पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के समझदारी से भरे सचेत करने वाले शब्दों को याद करते तो शायद इससे कुछ मदद मिलती. 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ, संविधान सभा के अंतिम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था, “हमने एक लोकतांत्रिक संविधान तैयार किया है. लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं के सफल संचालन के लिए जरूरी है कि जिन लोगों को उन्हें चलाना है उनमें दूसरों के नजरिये का सम्मान करने की इच्छा, सुलह और तालमेल की क्षमता हो. बहुत सी चीजें जो संविधान में नहीं लिखी जा सकतीं, परंपराओं से बनाई जाती हैं. मुझे उम्मीद है कि हम वह क्षमताएं दिखाएंगे और उन परंपराओं को विकसित करेंगी.”
(सुधींद्र कुलकर्णी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के रूप में काम किया है और India-Pakistan-China Cooperation की मदद से संचालित Forum for a New South Asia के संस्थापक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni है और उन्हें sudheenkulkarni@gmail.com पर प्रतिक्रियाएं भेजी जा सकती हैं )
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