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बिहार के लिए 3 बड़ी मांगों पर JDU की हार, एकतरफा प्यार में नीतीश खो रहे जनाधार?

पटना यूनिवर्सिटी, विशेष राज्य और जातीय जनगणना...बीजेपी नीतीश की कोई बात नहीं मान रही

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जुलाई 2017 में NDA में लौटने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) एक नई परेशानी झेल रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी पार्टी, JDU के वोट बैंक को कैसे बचाया जाए, बढ़ाने की तो बात ही दूर है. विधानसभा में कम होती सीटें और वोटरों के साथ छोड़ने का डर मुख्यमंत्री को परेशान किये जा रहा है.

दरअसल समस्या यह है कि बीजेपी उनकी एक नहीं सुन रही. नीतीश ने शायद सोचा था कि बीजेपी के साथ वापस आने से उनकी राजनीतिक स्थिति और मजबूत होगी और वे बिहार के साथ-साथ केंद्र की सत्ता में भी अपना प्रभुत्व दिखाएंगे लेकिन ये सारा दाव आज उल्टा पड़ चुका है.

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एनडीए में दोबारा वापसी करने के बाद नीतीश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अब तक कुल तीन प्रमुख मांगे रखी हैं, लेकिन केंद्र सरकार ने उनकी मांगों पर गौर तक नहीं किया है.

ये तीन मांगे थीं--बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाना, कभी "पूर्व का ऑक्सफोर्ड" माने जानेवाले पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलवाना और जातीय जनगणना करवाना. आश्चर्य की बात कि इनमें से एक भी मांग पूरी नहीं की गयी. इससे डर ये है कि नीतीश का वोटर बिदक सकता है.

स्थिति कि गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता कि अब तो विपक्षी पार्टियों ने सरे राह नीतीश कुमार पर कटाक्ष करने शुरू कर दिया है. बिहार में विपक्ष के नेता और आरजेडी विधायक तेजस्वी यादव ने तो यहां तक कह दिया है कि जब मुख्यमंत्री पटना विश्वविद्यालय को "केंद्रीय" दर्जा तक नहीं दिलवा सकते तो किस बास की "डबल इंजन" सरकार. "डबल इंजन" से उनका मतलब है कि बिहार और केंद्र दोनों जगहों पर एनडीए की ही सरकार है. इस कटाक्ष को नीतीश के वोटर भी भली-भांति समझने लगे हैं जिससे मुख्य मंत्री के सामने अपने वोट-बैंक को बचाने की एक बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है. उनका डर इस बात का है कि ये वोटर्स कही आरजेडी की तरफ खिसक न जाएं.

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राजनीतिक विश्लेषक सचिन्द्र नारायण कहते हैं,

"नीतीश आज राजनीति के बड़े विकट दौर से गुजर रहे हैं. एक तरफ उनकी गिरती लोकप्रियता और दूसरी तरफ उनकी पार्टी का गिरता जनाधार, एक बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है. यदि जल्दी ही इसको नहीं रोका गया तो उनका अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा और फिर कोई पार्टी उनके साथ जाना नहीं चाहेगी."

नारायण कहते हैं कि कुर्मी-कोइरी और पिछड़ी जातियां JDU को वोट देती रही हैं. नीतीश को शुरू में मुसलमानों का भी समर्थन मिलता रहा था लेकिन धारा 370, तीन तलाक और नागरिकता बिल पर अपने स्टैंड में बदलाव के बाद मुस्लिम वोटर्स आज उनसे काफी नाराज है. इसके पीछे उनका तर्क यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीयू मात्र 43 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी जबकि बीजेपी के सीटों कि संख्या 53 से 74 तक पहुंच गयी. 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में जेडीयू ने लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के साथ मिलकर 71 सीटें जीतीं थी.

नीतीश के सामने "विश्वसनीयता" का संकट

राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि नीतीश के सामने आज "विश्वसनीयता" का बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है जो उन्हें लगातार परेशान किया जा रहा है, क्योंकि एक के बाद एक मुद्दे को वह पीछे छोड़ते जा रहे हैं.

इन तीनों में सबसे बड़ा मुद्दा था बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाना लेकिन नीतीश के मंत्री ने ही अब बाकायदा कह दिया है कि 'इस मुद्दे से हम किनारा कर रहे हैं क्योंकि इसकी मांग करते-करते अब हम थक चुके है. आखिर कब तक इसकी मांग करते रहेंगे? मांग की भी एक सीमा होती है. अब हम लोग आर्थिक पैकेज की मांग करेंगे."

हालांकि अपने वोट-बैंक टूटने के खतरे को देखते हुए नीतीश ने तुरत ही इसका खंडन करते कहा कि "हमलोगों ने विशेष दर्जे की मांग नहीं छोड़ी है".

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पटना स्थित अनुग्रह नारायण सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान के भूतपूर्व डायरेक्टर और प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर डी एम् दिवाकर कहते हैं, "बीजेपी नीतीश की कोई बातें नहीं मान रही है, क्योंकि उनका 'बार्गेनिंग पावर' खत्म हो चुका है, गुड गवर्नेंस का उनका मॉडल कहीं धरातल पर दिखाई नहीं देता और सही कहा जाए तो वर्तमान स्थिति पुरानी पार्टी वाली हो चुकी है." वह फिर कहते हैं, "जबसे नीतीश आरजेडी छोड़कर बीजेपी के साथ आए हैं, तबसे 'कैरेक्टर ऑफ गवर्नेंस' बदल चुका है. तब बीजेपी उनकी बात क्यों मानेगी?"

विशेष राज्य का दर्जा और मास्टर स्ट्रोक

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने का मुद्दा वाकई एक चतुराई भरा मुद्दा था,जिसे नीतीश ने 2005 में पहली बार सत्ता में आते ही उठाया था. विशेषज्ञ कभी इसे नीतीश का "मास्टर स्ट्रोक" कहा करते थे. नीतीश जानते थे विशेष राज्य के दर्जे कि शर्तें ऐसी है जो बिहार पर लागू नहीं होती, लेकिन फिर भी इसे उठाया क्योंकि 'बिहार का विकास' एक ऐसा मुद्दा था, जिससे जेडीयू को सभी सभी वर्गों का सपोर्ट मिलता.

2009 के लोक सभा चुनाव के दौरान तो नीतीश ने यहां तक घोषणा कर दिया था कि जो पार्टी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देगी, जेडीयू उसको सपोर्ट करेगी. नीतीश उस समय बीजेपी के साथ थे और उनकी स्थिति उस समय काफी मजबूत थी. मीडिया उन्हें "PM मटीरियल" प्रोजेक्ट कर रहा था. लेकिन कांग्रेस ने उनकी मांग को कोई तवज्जो नहीं दिया क्योंकि UPA अपने दम पर ही सत्ता में वापस लौट गया.

राजनीतिक विश्लेषक सरोर अहमद कहते हैं, "वास्तव में कहा जाए तो नीतीश विशेष राज्य के मुद्दे को कांग्रेस से 'डील' करने का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे. कांग्रेस उस समय मजबूत स्थिति में थी. बीजेपी के प्रॉस्पेक्ट में तो 2013 के बाद सुधार होना शुरू हुआ."

विशेष राज्य का मुद्दा नीतीश के लिए कितना महत्वपूर्ण था, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके लिए उन्होंने एड़ी-चोटी एक कर दी. न केवल उन्होंने धरना कार्यक्रम आयोजित किया बल्कि पूरे राज्य में रैलियां की, जिसमें महीने गुजर गए. इसके अलावा उन्होंने व्यापक हस्ताक्षर अभियान चलाये और आम जन तक को 'थाली-पीटो अभियान' से जोड़ा. ये सारा कुछ 2012 से 2014 के बीच हुआ.

लेकिन यह मांग आज भी अधूरी है. वह तब भी जब बिहार से लेकर केंद्र तक में बीजेपी सत्ता में है और खुद मोदी ने अपने चुनावी रैली में उनकी पार्टी के सत्ता में आने पर बिहार को विशेष राज्य के दर्जा देने का वादा किया था. जाहिर है नीतीश आज काफी दवाब में हैं. दूसरे, पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की उनकी मांग पर भी बीजेपी ने नहीं विचार किया किया है जबकि उनकी जातीय जनगणना कराने की मांग को बीजेपी एक तरह से खारिज कर चुकी है.

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