नीतीश कुमार 2015 के विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद अपने राजनीतिक करियर के सबसे ज्यादा संभावनाओं वाले शिखर पर थे. 2014 के आम चुनाव के डेढ़ साल के भीतर बीजेपी को बुरी तरह पराजित करने का सेहरा उनके सिर पर था. विपक्ष में कोई और विश्वसनीय चेहरा नहीं था. उस समय ऐसा लग भी रहा था कि नीतीश कुमार राज्य की बागडोर के लिए तेजस्वी यादव को तैयार करके खुद राष्ट्रीय राजनीति में कूदने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन लालू प्रसाद यादव के कुनबे के फिर से भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर जाने के बाद सब बदल गया और नीतीश कुमार ने रास्ता बदल लिया. अब बिहार विधानसभा चुनाव 2020 तय करेंगे कि उनकी मंजिल क्या है?
2005 से 2010 तक इमेज बिल्डिंग
दरअसल, नीतीश कुमार ने 2005 से 2010 तक खुद को राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए तैयार किया था. इसके लिए उन्होंने खुद को लेकर एक नैरेटिव खड़ा करने के लिए नोबेल विजेता अर्थशास्त्रियों से लेकर अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों-विश्वविद्यालयों और मीडिया का सहारा लिया. बिहार के कायापलट की कहानी दुनिया में सुनाई जा रही थी. भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उनको पीएम मैटीरियल घोषित कर दिया था. लेकिन 2014 के जिस आम चुनाव में वे आडवाणी के समर्थन से एनडीए के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर सामने आना चाहते थे, उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने खलल डाल दी. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी. नीतीश इसमें भी मौका देख रहे थे.
बन न पाया समाजवादियों का कुनबा
नीतीश कुमार को लगा होगा कि कांग्रेस कमजोर हो चली है. ऐसे में अगर जनता दल से निकले दलों को एक प्लेटफॉर्म पर ले आया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत संभावना बन सकेगी. उनने कोशिश शुरू की और प्रारंभिक सफलता भी मिली. समाजवादी पार्टी, जनतादल सेकुलर, राजद, चौटाला का इनेलो, अजित सिंह का लोकदल को साथ लेकर एक बड़ी बैठक दिल्ली में की गई.
इस बैठक के बाद मुलायम सिंह ने नेतृत्व करना भी स्वीकार किया. और ऐसा लगने लगा था कि जनतादल के घटक दल एकजुट होकर एक नयी राजनीतिक ताकत के रूप में सामने आएंगे. लेकिन मुलायम सिंह ने भांजी मार दी. इसके बाद जदयू और राजद के विलय की बात चलती रही.
2015 की बड़ी जीत
तब तक 2015 के विधानसभा चुनाव आ गये. अंत समय में तय हुआ कि नये चुनाव चिन्ह के साथ चुनाव में जाना ठीक नहीं रहेगा. लिहाजा, दोनों दल अपने-अपने चिन्ह पर ही चुनाव लड़ें और चुनाव बाद आगे की कार्रवाई होगी। चुनाव में महागठबंधन ने जबरदस्त सफलता हासिल की. धूमधाम से नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी. लालू प्रसाद-राबड़ी देवी के दो बेटे मंत्री बने और उनमें से छोटे तेजस्वी यादव डिप्टी भी बने. यह वह समय था जब राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष में नेतृत्व शून्यता की स्थिति दिखाई देने लगी थी. इसमें तमाम संभावनाएं छिपी हुई थीं. नीतीश तेजस्वी को तैयार कर, खुद राष्ट्रीय राजनीति में उतरने की तैयारी करते दिखाई दे रहे थे.
राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश कुमार के लिए यह सबसे माकूल मौका था. लेकिन वह शायद भूल गये कि भाजपा अब अटल-आडवाणी वाली भाजपा नहीं थी और उसके सामने खड़े होने में जितने बड़े हासिल थे, उतने ही बड़े जोखिम भरे संघर्ष भी.
महागठबंधन टूटा, सपना टूटा
केंद्रीय एजेंसियों ने भ्रष्टाचार को लेकर लालू प्रसाद यादव पर शिकंजा कसना शुरू किया. तेजस्वी व तेजप्रताप भी उसकी जद में थे. परदे के पीछे बहुत सी चीजें चल रही थीं. आखिर, जुलाई 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन छोड़ भाजपा के साथ आ गये. और इसी के साथ नीतीश कुमार के लिए राष्ट्रीय फलक सिमट कर बिहार की कुर्सी में समा गई. हालांकि 2019 के आम चुनाव के आसपास एक बार फिर नीतीश कुमार की कोशिशों की खबरें सामने आईं लेकिन विश्वसनीयता का संकट उसके आड़े आने से बात बढ़ न सकी.
69 वर्षीय नीतीश कुमार सिर्फ अपने बूते बिहार में अब तक अपना प्रभाव नहीं दिखा पाए हैं. बिहार में सत्ता में आने के बाद पहली और आखिरी बार नीतीश कुमार 2014 के आम चुनाव में अपने दम पर मैदान में उतरे थे लेकिन उनको मुंह की खानी पड़ी थी.
उस चुनाव में जदयू को सिर्फ दो सीटें मिली थीं और वह भी उस समय जब नीतीश की लोकप्रियता चरम पर मानी जा रही थी. भाजपा ने आम चुनाव में तो अपने बूते 2014 व 2019 में चमत्कारी प्रदर्शन किया लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में वह औंधे मुंह गिरी. स्पष्ट है कि भाजपा बिहार में आधा मैदान मार चुकी है और अब उसकी कोशिश विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को बैक फुट रखकर पूरा मैदान मारने की है. बीजेपी एलजेपी और हिंदुत्व के मुद्दों पर जिस तरह से बिहार में चक्रव्यूह सजा रही है और जिस तरह से नीतीश गठबंधन धर्म निभाने के लिए चुप्पी साधे हुए हैं, आगे उनकी राह कठिन हैं.
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