जब जेडीयू ने नागरिकता संसोधन बिल पर संसद में बीजेपी के साथ वोट किया और जब इसी मुद्दे पर पार्टी के नेता पवन वर्मा और प्रशांत किशोर से नीतीश की अनबन हुई तो सवाल उठा कि कहीं बीजेपी के साथ गठबंधन धर्म निभाते-निभाते नीतीश कुमार का 'धर्म परिवर्तन' तो नहीं हो गया? सवाल ये भी उठा कि क्या अब भी नीतीश की राजनीति नीतीश ही चला रहे हैं और क्या बिहार में वो पायलट सीट छोड़ चुके हैं, लेकिन हाल में नीतीश ने 3 ऐसे काम किए हैं, जो इशारा कर रहे हैं कि बिहार के धुरंधर अब भी वही हैं और बीजेपी उन्हें फॉलो करने पर मजबूर है.
नीतीश के तीन बड़े पत्ते
नीतीश ने 25 फरवरी को बिहार विधानसभा के बजट सत्र में NRC के खिलाफ प्रस्ताव पास कराया. उसी दिन ये प्रस्ताव भी पास करा लिया कि बिहार में 2010 के पुराने रूप में ही NPR लागू होगा. यानी तब के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में जिन श्रेणियों में सूचनाएं मांगी गई थीं, उन्हीं में आगे भी मांगी जाएं.
जो लोग एक इंच पीछे नहीं हटेंगे कह रहे थे, ये समझिए कि आज उन्हें भागना पड़ा. जिन राज्यों ने कहा कि हम NRC, NPR लागू नहीं करेंगे, उनमें से बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां बीजेपी की सरकार है.तेजस्वी यादव, आरजेडी नेता
इसके बाद आया नीतीश का मास्टर स्ट्रोक. 27 फरवरी को नीतीश ने बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पास कराया कि 2021 में जनगणना में जातियों की जानकारी भी जुटाई जाए. खास बात ये है कि ये तीनों प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुए.
जो बीजेपी बाकी देश में NPR पर अडिग है और NRC पर गोल मोल बात कर रही है वही बीजेपी बिहार में NPR और NRC के खिलाफ प्रस्ताव का समर्थन करने को मजबूर हो गई.
NRC, NPR, जाति जनगणना- नीतीश के संदेश
NRC पर बीजेपी के किसी बड़े नेता ने अब तक नहीं कहा है कि ये नहीं आएगा, बस इतना कहा है कि इस पर कोई चर्चा नहीं हुई है. जातीय आधार पर जनगणना को लेकर भी बीजेपी की मंशा साफ है. उसकी मंशा इससे जाहिर होती है कि जातीय जनगणना के आंकड़े, जो 2011 में जुटाए गए थे, उसे बीजेपी की केंद्र सरकार अपने करीब 6 साल के शासनकाल में जारी नहीं कर पाई है. NPR को बीजेपी देश में लागू कर ही रही है. लेकिन बिहार की विधानसभा में इन तीनों मामलों पर बीजेपी को साथ आने के लिए मजबूर कर नीतीश ने एकदम साफ संकेत दे दिया है. सबसे बड़ा संदेश यही है कि आज भी बिहार में वही पायलट सीट पर हैं.
CAA-NRC पर पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक से उठती आवाजों को नीतीश ने एक साथ शांत करने की कोशिश की है. अगर किसी को लग रहा था कि नीतीश बीजेपी के लिए अपनी जमीन छोड़ रहे हैं तो इन प्रस्तावों को पास कराकर नीतीश ने उस जमीन को रिक्लेम करने की कोशिश की है.
इन सबके बीच एक तथ्य ये है कि नीतीश ने ये सब तब किया है जब अमित शाह कह चुके हैं कि बिहार में बीजेपी आगामी चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ेगी. ऐसे में लगता है कि नीतीश ने बिहार में बीजेपी को अपने चक्रव्यूह में फंसा लिया है. अब बिहार बीजेपी के नेता सुशील मोदी तो एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव को एनडीए सरकार की भलमनसता का सर्टिफिकेट बता रहे हैं.
विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा असर
इन तीन प्रस्तावों से नीतीश ने मुस्लिम, पिछड़े, दलित और ओबीसी हर तरह के वोट बैंक तक अपना हाथ बढ़ाया है. बिहार की सियासत, जहां सरकारें जातियों के सपोर्ट और विरोध से गिरती-बनती हैं, वहां आने वाले विधानसभा चुनावों के लिए इन प्रस्तावों का बड़ा महत्व है. अब नीतीश को इसका कितना फायदा होगा, ये तो बाद की बात है लेकिन कम से कम नीतीश ने अपनी चाल जरूर चल दी है. जातीय जनगणना को लेकर आरजेडी की तरफ से धड़ाधड़ बयानबाजी इशारा है कि इसको लेकर पार्टी में कितनी बेचैनी है.
जाति आधारित जनगणना इतना संवेदनशील क्यों?
जाति आधारित जनगणना एक पुरानी मांग है. 1931 के बाद देश में जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं. लंबे समय तक इसे ये कहकर टाला जाता रहा कि ऐसी जनगणना देश को जाति के आधार पर और बांटेगी. सामने से दलील दी गई कि जब आजादी के इतने सालों बाद भी देश में जातिवाद का जहर कम नहीं हुआ है तो बेहतर है कि इसका पक्का आंकड़ा ही जुटा लिया जाए कि किस जाति के कितने लोग हैं? इससे नीतियां और योजनाएं बनाने में सहूलियत रहेगी.
जातियों की सूचियां स्थिर नहीं हैं. केंद्रीय सूची है, फिर राज्यों की अलग-अलग. एक सूची में कोई जाति पिछड़ी है तो दूसरी में नहीं. कई जातियां एक राज्य में ओबीसी हैं तो दूसरे राज्ये में नहीं.
2011 में अलग से जातियों की गिनती हुई भी तो इसके आंकड़े सामने नहीं आए. न तो यूपीए सरकार ये आंकड़ा बता पाई और न ही उसके बाद एनडीए सरकार ने 2011 के आंकड़े जारी किए, जबकि इसपर करीब 5000 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं.
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