पूर्वोत्तर में अलगाववादी संगठनों को चीन का गुप्त समर्थन पिछले 50 सालों में कई उतार-चढ़ाव से गुजर चुका है.
जम्मू-कश्मीर में आतंकी संगठनों को पाकिस्तान से मिलने वाली खुलेआम मदद के विपरीत, पूर्वोत्तर में अलगाववादी गुटों को चीन से मिलने वाली मदद सीक्रेट और सिलेक्टिव रही है, और पिछले 50 सालों में यह कई चरणों से गुजर चुका है. देश के सीमावर्ती इलाकों में दशकों से जारी उग्रवाद के बने रहने की यह एक बड़ी वजह है.
सशस्त्र विद्रोह का नतीजा ये हुआ कि सीमावर्ती इलाकों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और अशांति छाई रही, हथियारों से लैस गुटों से लड़ाई में भारी तादाद में लोगों की जान चली गई और सरकारी संसाधनों का नुकसान हो गया.
हालांकि, संघर्ष के दौरान इस इलाके में हताहत होने वाले सेना, अर्धसैनिक बल और पुलिस के जवानों के आंकड़े मौजूद नहीं हैं, लेकिन इतना तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये संख्या बहुत बड़ी है. सरकारी सूत्रों के मुताबिक, आजादी के बाद सिर्फ असम राइफल्स ने इस इलाके में उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई में 750 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों को खो दिया है.
- पूर्वोत्तर में अलगाववादी गुटों को चीन से मिलने वाली गुप्त मदद पिछले 50 सालों में कई चरणों से गुजर चुकी है.
- चीन से मिलने वाली मदद की वजह से ही देश के सीमावर्ती इलाकों में उग्रवाद दशकों से जारी है.
- सशस्त्र विद्रोह की वजह से सीमावर्ती इलाकों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई, लड़ाई में भारी संख्या में लोगों की जान चली गई और संसाधनों का नुकसान हुआ.
- पूर्वोत्तर में 1990-2010 के बीच का दौर सबसे खराब था, जब सौ से ज्यादा विद्रोही गुट इलाके में सक्रिय थे.
- पूर्वोत्तर में अलगाववादी संगठनों को चीन का सीधा समर्थन लगभग 15 सालों तक चला, इसकी शुरुआत तब हुई जब नागा नेशनल काउंसिल का एक जत्था चीन के दक्षिण पश्चिमी प्रांत युन्नान पहुंच गया.
2015: मणिपुर में सेना के जवानों पर गुरिल्ला हमले के पीछे चीन का ‘हाथ’ होने की अटकलें
सबसे खौफनाक हमला 2015 में हुआ, जब म्यांमार में उग्रवादी गुटों का गठबंधन युनाइटेड नेशनल लिबरेशन ऑफ वेस्टर्न साउथ ईस्ट एशिया (UNLFWSEA) बनने के कुछ ही दिनों बाद, एक संयुक्त गुरिल्ला दल ने मणिपुर में कम-से-कम 18 सैन्यकर्मियों की घात लगाकर हत्या कर दी थी.
इसके बाद अटकलें लगाई गई कि हमले के पीछे चीन का हाथ था, क्योंकि म्यांमार और भारत के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध इस क्षेत्र में चीन के दीर्घकालिक हितों को बाधित कर सकते थे.
1990-2010 के बीच दो दशकों तक पूर्वोत्तर भारत सबसे बुरे दौर से गुजरा, जब कथित तौर अलग-अलग विचारधाराओं के सौ से ज्यादा विद्रोही गुट पर इस इलाके में सक्रिय थे, इनमें मणिपुर के गुटों की संख्या सबसे ज्यादा थी.
हालांकि, गौर करने वाली बात ये थी कि इन गुटों में अधिकांश के तार चीन से नहीं जुड़े थे, ना ही उन्हें चीन का समर्थन प्राप्त था. वो उभरे और उनका विस्तार होता चला गया क्योंकि बेरोजगारी और अलगाव की भावना जैसी वजहों से उनका सशस्त्र विद्रोह जारी रहा. उन्हें सरकार खत्म नहीं कर सकी.
चीनी समर्थन के ‘तीन चरण’
पूर्वोत्तर में अलगाववादी संगठनों को लगभग डेढ़ दशक तक चीन का सीधा समर्थन मिलता रहा, जिसकी शुरुआत तब हुई जब 1966-67 में थुईंगालेंग मुइवा और थिनोसेली केयहो के नेतृत्व में नागा नेशनल काउंसिल (NNC) का एक दल पहाड़ों में पैदल चलकर चीन के दक्षिणी-पश्चिमी प्रांत युन्नान पहुंच गया था.
नागा विद्रोहियों के नक्शे-कदम पर मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) से जुड़े मिजो विद्रोही भी चले, जो कि साठ के दशक की शुरुआत में पहाड़ी राज्य को तबाह करने वाले बांस के अकाल के दौरान असम सरकार के रवैये से हैरान थे. उसके बाद, मणिपुर में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के 18 अधिकारियों के एक दस्ते को लंबे समय तक तिब्बत में प्रशिक्षित किया गया था.
नई दिल्ली की शिकायतों और माओत्से तुंग की मौत के बाद बीजिंग की नीतियों में बदलाव होने की वजह से अस्सी के दशक की शुरुआत में विद्रोही गुटों को मिलने वाली ट्रेनिंग और हथियारों की सप्लाई रोक दी गई.
हालांकि, बीजिंग के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. कई सालों के बाद बर्टिल लिंटनर की रिसर्च में इस बात का खुलासा हुआ कि 1980 के दशक में चीन ने म्यांमार में मौजूद काचिन इंडिपेंडेंट आर्मी का इस्तेमाल कर मणिपुर PLA के कुछ जत्थों को ट्रेनिंग दी थी. KIA ने उल्फा के कई जत्थों को भी ट्रेनिंग दी थी, हालांकि इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि ये चीन के इशारे पर किया गया था.
काचिन की इन प्रशिक्षण सुविधाओं को 1989 में KIA और भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड द एनालिसिस विंग (R&AW) के बीच एक समझौते के बाद बंद कर दिया गया.
KIA ने आश्वासन दिया कि अरुणाचल के रास्ते हथियारों की आपूर्ति के बदले पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठनों को मिलने वाली ट्रेनिंग बंद कर दी जाएगी.
पूर्वोत्तर में चीन की ‘आंख और कान’ है मणिपुर PLA
इसके बाद एक लंबा अंतराल बीत गया, इस बीच कई सालों तक पूर्वोत्तर के विद्रोही नेताओं की चीनी अधिकारियों से तालमेल स्थापित करने की तमाम कोशिशें नाकाम होती रहीं. कुछ वरिष्ठ विद्रोही नेताओं का दावा है कि 2005 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की भारत यात्रा के बाद चीन की नीति में बदलाव साफ तौर पर नजर आया.
इस बीच उल्फा चीफ, परेश बरुआ, 2011 तक चीन के युन्नान में रह रहे थे, जो कि चीन के उच्च अधिकारियों की जानकारी के बिना संभव नहीं था. उसी साल चीनी खुफिया एजेंसी के दो अधिकारी म्यांमार के तगा में उल्फा के शिविर में एक सप्ताह तक रहे, और इस दौरान उन्होंने दूसरे गुटों के नेताओं के साथ बातचीत की, जिसकी खबर द इर्रावड्डी में भी छपी थी.
उस दरम्यान, म्यांमार में अपने शिविर स्थापित कर चुके 10 विद्रोही गुटों में गठबंधन की कोशिशें भी जारी थी. परेश बरुआ ने तब मुझे बताया था कि ‘देश से बाहर एक निर्वासित सरकार का गठन किया जाएगा, जो कि अब तक मुमकिन नहीं हो सका है. हालांकि, इन गुटों की स्थिति तब बदतर हो गई जब जनवरी 2019 में तातमाडाव (म्यांमार सेना) ने तागा में उनके बेस को तहस-नहस कर दिया.
इस झटके के बावजूद, चीन बरुआ को युन्नान में रहने की इजाजत देता रहा, और मणिपुर PLA के शीर्ष नेताओं से उनके संबंध बने रहे.
जैसा कि रॉ के एक पूर्व अधिकारी ने बताया, “चीन के लिए वो पूर्वोत्तर और म्यांमार के सागाईंग डिवीजन उसकी ‘आंख और कान’ हैं. चीन अपनी जरूरत के हिसाब से विध्वंसक गतिविधियों के लिए उनका इस्तेमाल करेगा.”
चीनी ‘हथियारों का ग्रे मार्केट’
दिलचस्प बात ये है कि जब चीन की एजेंसियां भारत के पूर्वोत्तर में विद्रोही संगठनों के साथ फिर से संबंध स्थापित करने में अरुचि दिखा रही थीं, चीन की फैक्ट्रियों में बने हथियारों का बड़ा जखीरा बेहद आसानी से उपलब्ध था. हथियारों की इस उपलब्धता की वजह से ही ऐसी धारणाएं बनी कि चीनी सरकार जानबूझकर इन संगठनों को पूर्वोत्तर में गड़बड़ी करने के लिए उकसा रही थी.
1990 के दशक के बीच, चीनी सरकार के स्वामित्व वाली चाइना नॉर्थ इंडस्ट्रीज कॉरपोरेशन (NORINCO) ने आधुनिकीकरण और पुराने हथियारों को हटाना शुरू कर दिया. 2013 में, स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) ने ‘चाइनाज एक्सपोर्ट्स ऑफ स्मॉल आर्म्स एंड लाइट वेपन्स’ शीर्षक से एक रिसर्च छापी, जिसमें दुनिया में चीन के छोटे हथियारों के प्रसार को बढ़ावा देने वाली वजहों को विस्तार से बताया गया.
दक्षिण पूर्व एशिया के हथियारों के सौदागर और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा गठित ब्लैकहाउस जैसी एजेंसियों ने बड़े पैमाने पर इस इलाके में मौजूद विद्रोही गुटों को हथियार बेचना शुरू कर दिया.
हैरानी की बात नहीं थी कि कई विद्रोही और आतंकवादी संगठन चीन के छोटे हथियारों का इस्तेमाल करने लगे, जिनमें नेपाल के माओवादी और अफगानिस्तान के तालिबान भी शामिल थे.
अभी कुछ ही दिनों पहले, 24 जून 2020 को, थाईलैंड-म्यांमार सीमा के पास एके-47 राइल्स, मशीनगन, हथगोले और गोला-बारूद सहित चीन में बनाए गए हथियारों का एक जखीरा जब्त किया गया.
इसलिए, यहां यह साफ करना जरूरी है कि ये हथियार, सिर्फ भारत के पूर्वोत्तर में विद्रोही गुटों के लिए ही नहीं, बल्कि सही संपर्क और साधन वाले हर शख्स के लिए उपलब्ध थे.
बांग्लादेश के कॉक्स बाजार पहुंची ‘खेप’
चीनी के साथ पहला सौदा NSCN (IM) ने किया, जिसे 1994 के शुरुआत में बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में समुद्र में उतारा गया. इस घटना का उल्लेख बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक एन राममोहन ने अपनी किताब ‘इंसर्जेंट फ्रंटियर्स’ में किया था. इस सौदे से प्रेरित होकर उल्फा चीफ परेश बरुआ ने एक बड़ी खेप के लिए सौदा किया, जिसे एक साल बाद कॉक्स बाजार में ही डिलीवर किया गया था.
इसके बाद इन गुटों के लिए बांग्लादेश में हथियारों की खेप का पहुंचना जारी रहा, लेकिन एक खेप की चर्चा जरूर होनी चाहिए, क्योंकि इसने चीनी सेना (PLA) के कुछ अधिकारियों की भूमिका को जाहिर कर दिया. 1997 में यह फैसला लिया गया कि चीन की सीमा से लगी भूटान की हाया घाटी में उल्फा के लिए हथियार गिराए जाएंगे, और फिर इसे भूटान के दक्षिणी जिलों में उग्रवादी गुट के शिविरों में पहुंचा दिया जाएगा.
लेकिन उस इलाके में एक प्रोजेक्ट में शामिल सीमा सड़क संगठन (BRO) के अधिकारियों को इस खेप की भनक लगने के बाद हथियार गिराने की योजना रद्द कर दी गई.नई दिल्ली ने भूटान की शाही सरकार को सतर्क किया, और भूटानी सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने थिम्पू में मौजूद परेश बरुआ को इस योजना को रद्द करने की सलाह दी. हालांकि, कुछ महीनों बाद बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में हथियारों की एक और खेप सफलतापूर्वक पहुंचा दी गई.
पूर्वोत्तर के विद्रोही गुटों को चीन से हथियारों की घटती आपूर्ति
इस घटना से साफ है, बिना किसी शक के, कि PLA के अधिकारियों की (कभी-कभी) इन सौदों को पक्का करने और हथियारों के डिलीवरी में भूमिका होती थी. इसकी पूरी संभावना है कि उच्च चीनी अधिकारी भूटान की सीमा पर हथियार गिराने की योजना से अनजान नहीं थे, लेकिन निश्चित तौर पर वो इस लेन-देन को लेकर अपनी आंखें बंद रखने को तैयार थे.
हालांकि, ताजा हालात पर गौर करें तो पता चलता है कि इस इलाके में मांग कम हो जाने की वजह से, चीन से पूर्वोत्तर के विद्रोही गुटों को होने वाली हथियारों की आपूर्ति कम हो गई है.
अब विद्रोही गुट बैक फुट पर हैं और इनमें से ज्यादातर गुटों ने सरकार से बातचीत कर समझौते की इच्छा जताई है.
इसके अलावा, म्यांमार में भी हथियार बनाने वाली कुछ इकाइयां सामने आ गई हैं - काचिन और शान राज्यों में - जो चीनी हथियारों को और खास तौर पर कलाश्निकोव राइफलों को, कड़ी टक्कर दे रही हैं. इन्हें सस्ते दामों पर बेचा जाता है और उनकी गुणवत्ता चीनी हथियारों जैसी ही, अगर बेहतर ना हो, होती है.
इन राइफलों को बट के अनूठे डिजाइन से पहचाना जा सकता है, जिसे 2011-12 में म्यांमार के विद्रोही ठिकानों के दौरे के वक्त मैंने उल्फा और NSCN(K) के कई लोगों के कंधों से झूलते देखा था.
(राजीव भट्टाचार्य गुवाहाटी के सीनियर जर्नलिस्ट हैं. उनसे @rajkbhat ट्विटर हैंडल पर संपर्क किया जा सकता है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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