प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारी मुश्किलों का सामना करने से नहीं घबराते हैं. जनता की वाहवाही लूटने के लिए आकर्षक नारों ने उनके लिए मुश्किलें पैदा की हैं. 15 अगस्त, 2019 को अपने भाषण एक ऐसा ही मुद्दा उन्होंने उठाया. मुद्दा है भारत की दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ती आबादी, जो हर किसी के लिए सिरदर्दी है.
मोदी ने परिवार नियोजन पर 40 साल का मौन तोड़ दिया. इस विषय पर अंतिम बार आपातकाल (1975-77) में संजय गांधी के निर्दयी तरीकों से ही जिक्र हुआ था. उसके बाद ये विषय राजनीतिक एजेंडों से गायब हो गया. लेकिन अब मोदी ने एक बार फिर इस गंभीर मुद्दे का जिक्र किया है.
वैसे इस विषय की राजनीतिक अनदेखी करने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि नई पीढ़ी के वोटरों को आपातकाल के समय की निर्ममता नहीं मालूम है. नेताओं को इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए थी कि आबादी पर काबू पाने की किसी बात का उनके वोट बैंक पर असर पड़ेगा.
आपातकाल के दौरान ज्यादतियों की वजह से देश की आबादी की समस्या को हुए नुकसान की कभी भरपाई नहीं हो पाई. इस मुद्दे को नासूर समझकर 1977 के बाद से तमाम राजनीतिक दलों ने इससे किनारा कर लिया. ये गंभीर मुद्दा किसी भी पार्टी का एजेंडा नहीं बन पाया. 1980 के बाद से किसी राजनीतिक दल ने इसे अपने मैनिफेस्टो में शामिल नहीं किया. और ये सब संजय गांधी के निर्मम कारनामों का ही नतीजा था.
कड़वी सच्चाई
सीधे शब्दों में कहा जाए, तो इतनी विशाल आबादी के कारण उत्पन्न चौतरफा समस्याओं का निदान नामुमकिन है. खाना, घर, कपड़े, शिक्षा और स्वास्थ्य के संदर्भ में अगर सभी भारतीयों को स्वीकार्य संसाधन दिये जाएं, तो निश्चित रूप से हर मुद्दे पर तो नहीं, लेकिन कई मुद्दों पर समझौता करना ही पड़ेगा.
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सप्लाई प्रणाली का विस्तार अंकगणित के हिसाब से नहीं होता. जबकि सरकारें सप्लाई का आंकलन करते समय यही हिसाब लगाती हैं. मांग में बढ़ोत्तरी ज्यामितीय तरीके से भी नहीं होती, बल्कि बेहिसाब होती है.
यही वजह है कि इतनी बड़ी आबादी के लिए उपभोग आधारित आर्थिक विकास कारगर साबित नहीं होता. ये बात अब हर कोई महसूस कर रहा है. इससे भी भयावह बात है कि कोई भी उन परेशानियों का अनुमान सटीकता के साथ नहीं लगा सकता, कि वो किस दिशा से और गंभीरता के साथ प्रकट होंगे. उदाहरण के लिए, अगर देश के लाखों-करोड़ों लोग खुले में शौच के बजाय टॉयलेट में शौच करने लग जाएं, तो फ्लश करने के लिए पानी कहां से आएगा? मोदी ने जिस जल संकट की बात की है, वो और गहरी हो जाएगी.
इस समस्या को इस प्रकार देखें: अगर प्रकाश किसी भारी गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से होकर गुजरने पर अपनी दिशा बदल देता है, तो इंसानों के बनाए उपकरण उसे कैसे रोक सकते हैं? इन्हीं हालात में अर्थशास्त्र और मैनेजमेंट के पारम्परिक नियम नाकाम साबित होते हैं. ये कड़वी सच्चाई हमने हाल में वित्तीय क्षेत्र में भी महसूस किया है, जिसपर सीमित मुद्रा का भारी दबाव है.
राजनीति और आर्थिक नतीजे
दूसरी ओर भारतीय राजनीतिक दलों को तकरीबन 75 करोड़ वोटरों को लुभाना होता है. अगर हर वोटर पर एक चुनाव में 30 रुपये खर्च किये जाते हैं, तो हर पांच साल में सिर्फ चुनावों में ही वोटरों पर 2,250 करोड़ रुपये खर्च होते हैं. इसे पार्टियों की संख्या और चुनावों से गुणा कर दें, तो आपको काले धन की कड़वी सच्चाई का थोड़ा-बहुत अहसास हो जाएगा.
1947 में देश की आबादी लगभग 35 करोड़ थी. अब देश की आबादी 1.2 अरब से ज्यादा है और लगातार बढ़ती जा रही है. 1950 के बाद से लगभग हर 30 साल में आबादी दोगुनी हो जाती है.
इससे हमारी तमाम उपलब्धियों पर पानी फिर जाता है, जबकि 1950 के बाद से सारे उत्पादन तिगुने हो चुके हैं. कई सामानों का उत्पादन तो चौगुना या पांच गुना तक बढ़ चुका है.
फिर भी ये काफी नहीं. जैसा मोदी ने कहा कि सरकारें सोचती हैं, लोग सिर्फ न्यूनतम सामानों की मांग ही नहीं करते. उन्हें जीने के लिए आवश्यक सामानों से कई गुना अधिक सामान चाहिए. जबकि हमारे पास तो 30 करोड़ आबादी के लिए भी उतना सामान नहीं है, जितनी करीब-करीब अमेरिका की आबादी है.
ये बहुत अच्छी बात है कि मोदी ने एक ऐसे मुद्दे को राष्ट्रीय एजेंडा के रूप स्थापित किया, जो प्रतिबंधित माना जाता था. लेकिन इस मुद्दे को धर्म आधारित चश्मों से नहीं देखा जाना चाहिए.
ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रोत्साहन, जोर-जबरदस्ती से ज्यादा कारगर होता है. देश के 28 राज्यों में से 20 राज्यों में आबादी बढ़ोत्तरी की दर शून्य है. सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश में समस्या बनी हुई है. इन राज्यों को अलग से परामर्श देना चाहिए. इस दिशा में राज्य सरकारों की भूमिका अहम होगी.
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