डियर जिंदगी,
अगर मासूम, प्यारी आलिया तुम्हें ये न कहती तो मैं जरूर कहता. और कहता क्या, दिन-रात कहता हूं. डियर जिंदगी. प्यारी जिंदगी. टीचर्स डे पर जब सबको उन लोगों की याद आती है, उन्हें नमन करने का मन करता है जिन्होंने कुछ जरूरी सबक सीखने में मदद की तो मैं तुमको कैसे भूल जाऊं.
तुम...जिंदगी...तुम ! तुम्ही तो हो जिसने बचपन से आज तक इतने सबक सिखाए. तुम्ही तो हो जिसने इतनी ठोकरें मारीं कि कई बार तुमसे नफरत हो गई. और वो भी तुम्ही हो जिसने उन ठोकरों के बाद दोनों हाथों से कंधे पकड़कर उठाया और कान में चुपचाप कहा, "गिरने का मतलब रुकना कहां होता है?" फिर तुमने ठीक से चलना सिखाया. जब चलना सीखा तो दौड़ना सिखाया. जब दौड़ना सीखा तो ठहर के मुड़कर देखना सिखाया. जब पीछे देखना भूला तो टंगड़ी मारकर गिरा दिया. ताकि सबक याद रहे, भुला न दिया जाए.
जानती हो तुम्हारी सबसे खूबसूरत बात क्या है? मैं बताता हूं तुम्हें. बचपन में स्कूल के टीचर हमें सब सिखाने की कोशिश करते थे. कभी प्यार से और प्यार जब काम न आए तो मार से. और जब मार भी काम न आए तो तानों से. और जब आखिर में ताने चुक जाएं तो घर पहुंची शिकायतों से.
लेकिन तुम्हारे सिखाने का तरीका बिल्कुल जुदा है. कमाल है. ऐसा कि चाहकर भी उस तरीके से नाराज नहीं हुआ जा सकता. तुम जब सबक सिखाती हो तो कभी मैंने तुम्हें परेशान होते नहीं देखा. न जाने कितनी बार ऐसा हुआ कि मैं एक ही तरह की गलती दोहराता रहा बावजूद इसके कि कहने वाले कहते हैं कि पुरानी गलतियां कभी न करें. नई गलतियां करें ताकि नए सबक मिल सकें.
पर मैंने वो गलतियां जब भी दोहराईं, तुमने फिर सुधारा. जितनी गलतियां, उतने सुधार. कई-कई बार.
मैं शायद 7 या 8 साल का था. मोहल्ले में किसी छोटी-मोटी लड़ाई के बाद कोहनियों पर छलक आई खून की बूंदों और निशानों को ढंककर, हैंडपंप के पानी से मुंह पर छींटे मारते, बुश्शर्ट की बांह से मुंह पोंछते घर पहुंचते हुए लगता था कि मेरे झगड़े की बात कभी पकड़ी नहीं जाएगी. लेकिन, एक पल ही तो लगता था मां को ये कहने में कि, कहां लड़कर आया है और एक धौल जमाने में.
तब समझ आया जिंदगी कि घर मेरी चोटों को, मेरे चेहरे और शरीर पर नहीं मेरी आंखों में ढूंढ़ लेता है. घर मेरी तकलीफों को, मेरी दिक्कतों को मेरे आवाज के कंपन में पढ़ लेता है.
नौकरी करते हुए किससे रिश्ते बनाने हैं. कौन सा रिश्ता अपनी आस्तीन में खंजर लेकर घूम रहा है. कौन मेरी रफ्तार को थाम देना चाहता है. कौन मेरी उड़ान के दौरान मेरे पंखों को काट देना चाहता है और कौन मुझे इन सबसे बचा लेना चाहता है. ये सब का सब तुमने मुझे सिखाया.
मेरे दोस्तों में कौन वो दोस्त है जिससे 5 साल मिले बिना भी बात का सिरा वहीं से पकड़ा जा सकता है, जहां से छोड़ा था. कौन वो दोस्त है जो रात के 3 बजे बिना सवाल के मेरी मदद को हाजिर हो जाएगा. और कौन वो दोस्त है, जो न जाने कब से दोस्त होने का दावा किया फिरता है...इस सबकी पहचान तुमने कराई मुझे. उन सारे तजुर्बों की बदौलत जो तुमने दिए.
मेरे सबसे अकेले लम्हों में, मेरे सबसे मुश्किल पलों में तुम्हारे दिए हुए सबक न होते तो सोचता हूं कि मैं कैसे जिंदा रहता. शायद, इसीलिए लिखा था मैंने कभी:
अच्छे वक्त में जमीन पर रखा तूने
और हलचलों के दौर में थामती रही
जिंदगी तू हमेशा कुछ सिखाती रही
क्या मुझे तुमसे कोई शिकवा है? गिला है? बहुत हैं. पर क्या मैं कुछ बदलना चाहता हूं? बहुत कुछ बदलना चाहता था लेकिन फिर सिनेमाई जादू जगाने वाले जावेद साहब ने तुम्हारे बारे में कुछ ऐसा कह दिया कि एहसास अचानक बदल गया. जावेद साहब ने कहा,
जिंदगी भी अजीब होती है, मुन्नी! कभी-कभी जब आप मुड़कर अपनी बीती जिंदगी को देखते हैं तो ऐसा मन होता है कि आप उसे एडिट करें, दोबारा से लिखें. आप सीन 12 को बदल दें, लेकिन कहानी ऐसी कसी होती है कि जैसे ही आप कम खुशगवार सीन 12 को बदलते हैं तो आपको लगता है कि कहानी का सबसे अहम सीन 32 भी हटाना पड़ेगा. आप सीन 32 को इसलिए नहीं रख सकते क्योंकि उसका सीन 12 से कोई ताल्लुक है. मैं इस बात को समझता हूं कि बगैर उस बीते कल के ये आज भी मुमकिन नहीं हो सकता था. जिंदगी न जाने क्या होती, कैसी होती. चूंकि मुझे ये जिंदगी पसंद है, इसलिए मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं करना चाहिए. कोई भी शख्स बिना चोट खाए तो बड़ा नहीं होता है. मेरे ख्याल से ऐसा मुमकिन ही नहीं है.”जावेद अख्तर, नसरीन मुन्नी कबीर को दिए इंटरव्यू में
हां, तो मैं तुमसे कह रहा था कि क्या मुझे अब कोई शिकवा-शिकायत है. सीधा जवाब दूं तो---बिल्कुल नहीं. मुझे अपने हिस्से की चोटें खानी हैं. जैसे सब खाते हैं. मुझे अपने हिस्से के सबक सीखने हैं. जैसे सब सीखते हैं. बस तुमसे गुजारिश इतनी ही कि कभी इतनी नाराज न हो जाना कि सबक सिखाने बंद कर दो क्योंकि अगर कभी ऐसा हुआ तो सुनो ऐ जिंदगी....तुम्हें गुजारना बहुत भारी होगा.
लव यू जिंदगी
तुम्हारा स्टूडेंट
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