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क्या पीएम मोदी ने वास्तव में विदेशी धरती पर छात्रों और श्रमिकों को दिल के करीब रखा?

पीएम मोदी के शासन में पिछले एक दशक में सिर्फ एक ही बार छात्रों को रेस्क्यू किया गया है.

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10 मार्च को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने एक्स अकाउंट पर एक मिनट का वीडियो अपलोड किया, जिसमें एक हवाई अड्डे पर चिंतित पिता और मां अपनी बेटी के आने का इंतजार कर रहे थे.

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वीडियो में देखा जा सकता है कि जैसे ही विमान जमीन पर उतरा, टायरों की तेज आवाज आती है. इसके बाद टर्मिनल से छात्रों के एक दिल को छू लेने वाला दृश्य सामने आता है जो गर्व से राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहे थे. छात्रों में एक से एक लड़की अपने मां-बाप से पास भागते हुए जाती है और उनसे लिपट जाती है.

राहत और खुशी के आंसू के साथ उसने कहा, "मैंने कहा था न? आप जहां भी होंगे, हालात चाहे जो भी हों, मोदी जी (भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) हमें घर ले आएंगे."

धीरे-धीरे ये सीन गायब हो जाता है. वीडियो में अचानक प्रधान मंत्री मोदी की आवाज गूंजने लगती थी. पीएम मोदी कहते हैं, “मेरा भारत, मेरा परिवार, राष्ट्र और उसके लोगों के बीच गहरे संबंध को समेटे हुए है".

हालांकि इस विज्ञापन में यूक्रेन-रूस जंग का स्पष्ट रूप से जिक्र नहीं किया गया है, लेकिन यह ऑपरेशन गंगा की यादों को ताजा करता है. इस ऑपरेशन के दौरान छात्रों को निकाला गया था.

बता दें कि पीएम मोदी के शासन में पिछले एक दशक में सिर्फ एक ही बार छात्रों को रेस्क्यू किया गया है. ये रेस्क्यू फरवरी 2022 में रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने के संघर्ष से उपजी थी.

गंगा नाम के इस ऑपरेशन में 18,802 भारतीयों को वापस लाया गया. इसमें ज्यादातर छात्र शामिल थे.

अफसोस की बात है कि उस समय और वर्तमान में भी, भारत सरकार के पास छात्र प्रवास पर डेटा का अभाव था. नतीजतन, छात्रों ने खुद ही भारत आने के लिए प्लाइट का व्यवस्था की. कई छात्रों ने इसका खर्चा भी खुद ही उठाया. दुख की बात है कि बम धमाकों की वजह से एक भारतीय छात्र की जान चली गई.

दिलचस्प बात यह है कि जब भारतीय मंत्रियों को यूक्रेन भेजा गया तो इस संकट को भुनाने का प्रयास किया गया. भारतीय मंत्रियों के यूक्रेन जाने के बाद उन्हें स्थानीय राजनेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा. इन नेताओं ने कड़ा विरोध जताया था.

जब बीजेपी का विज्ञापन सफल रेस्क्यू मिशन का दावा करता है, तो वह उस अनिश्चितता को स्वीकार करने में नाकामयाब रहता है जो लौटे छात्रों का इंतजार कर रही है. भारत सरकार ने इन छात्रों के भविष्य को लेकर कोई स्पष्ट रुख नहीं दिखाया. इस वजह से उन छात्रों का जीवन अधर में लटक गया. उन्हें भारत में अपनी पढ़ाई जारी रखने की इजाजत नहीं थी. नतीजतन, कुछ छात्रों को अपना पढ़ाई छोड़ना पड़ा. जबकि बाकियों ने 2023 में एक बार फिर अपनी जान जोखिम में डालकर यूक्रेन या बाकी देशों में लौटने का फैसला किया.

आव्रजन, श्रम शिकायतों और नकली भर्ती एजेंसियों पर कुछ महत्वपूर्ण डेटा

यदि हम छात्र प्रवास के संकटों पर करीब से नजर डालें तो हम देख सकते हैं कि 2019 में जब भारत सरकार ने 1983 के भारतीय उत्प्रवास अधिनियम को संशोधित करने के लिए एक मसौदा विधेयक जारी किया, तो छात्र प्रवास पर काबू पाने के लिए कुछ उपाय प्रस्तावित किए गए थे.

हालांकि जब 2021 में एक और मसौदा बिल जारी किया गया तो छात्र प्रवास से संबंधित पूरा सेक्शन गायब हो गया. भले ही 2019 और 2021 में 1983 के इमिग्रेशन एक्ट को संशोधित करने के लिए जनता से सुझाव मांगे गए थे, लेकिन मोदी सरकार ने इसे अपडेट कर संसद में पेश करने में नाकामयाब रही.

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संक्षेप में छात्रों सहित सबसे ज्यादा प्रवासी भेजने वाला देश होने के बावजूद और दुनिया में सबसे बड़ा प्रेषण प्राप्त करने वाला देश होने के बावजूद भारत अभी भी 41 साल पुराने उत्प्रवास अधिनियम के तहत भारतीय उत्प्रवास को नियंत्रित करता है.

भारत, पड़ोसी प्रवासी भेजने वाले देशों और मेजबान देशों में होने वाली घटनाओं और नीतियों पर बारीकी से नज़र रखने वाले एक प्रवासी अधिकार शोधकर्ता के तौर में मुझे कहना होगा कि बांग्लादेश, नेपाल और यहां तक कि श्रीलंका में भी प्रभावशाली और संशोधित की हुई इमिग्रेशन नीतियां और कानून हैं. जबकि हमें एक नई नीति की दरकार है और हम पुरानी नीति से काम चला रहे हैं.

अक्सर भारत सरकार बिना सोचे-समझे बचाव कार्यों और मुस्लिम देश में एक मंदिर के निर्माण को प्रवासन शासन में जीत के रूप में दर्शाती है. वंदे भारत मिशन (कोविड-19 के जरिए 1.59 करोड़ भारतीयों को सुरक्षित निकालना), ऑपरेशन देवी शक्ति (अफगान बचाव मिशन जिसमें 206 अफगान हिंदू और सिख शामिल हैं), ऑपरेशन गंगा (यूक्रेन से निकासी), और ऑपरेशन कावेरी (सूडान संकट से बचाव), चार ऑपरेशन हैं, जिनका मोदी सरकार दावा करती है.

हालांकि नवंबर 2019 में होने वाले COVID-19 के प्रकोप के बावजूद और अरब खाड़ी देशों (जहां अधिकांश भारतीय काम करते हैं) ने मार्च 2020 में अपनी सीमाओं को बंद करना शुरू कर दिया, भारत सरकार ने केवल मई में कार्रवाई की, जिससे लाखों भारतीय प्रवासी श्रमिक महीनों तक संकट में रहे.

अरब खाड़ी में अधिकांश भारतीय श्रमिक कंस्ट्रक्शन सेक्टर में हैं. उन्हें कम वेतन मिल रहा है और बुनियादी मानवाधिकारों की सुरक्षा की कमी है. जब COVID-19 का दुनिया भर में फैला तब इन मजदूरों ने अपनी नौकरी, आश्रय, भोजन, दवा खो दिया.
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इनमें से कई मजदूर खाली हाथ लौटे, उनकी मजदूरी उन्हें नहीं दी गई. व्यक्तिगत रूप से, मैं जानता हूं कि सैकड़ों भारतीय श्रमिक अभी भी अरब खाड़ी से अपनी खोई हुई मजदूरी को वापस पाने की कोशिश कर रहे हैं. बदकिस्मती से अतीत और मजदूरों के मेहनताना न मिलने के बावजूद भारत सरकार ने इस मुद्दे पर आंखें मूंद ली हैं.

यहां तक कि यूक्रेन, अफगानिस्तान और सूडान रेस्क्यू मिशन में भी काफी गड़बड़ी थी. एक अपडेट की हुई इमिग्रेशन एक्ट या एक प्रवासन नीति और बुनियादी डेटा की कमी की वजह से कितने भारतीय विदेश में काम करते हैं या पढ़ाई करते हैं इसके लिए भारत सरकार के पास रेस्क्यू मिशन के दौरान सक्रिय होने के लिए SOP का अभाव है.

यदि हम श्रमिकों के प्रवास की अन्य समस्याओं पर आते हैं, तो हम देख सकते हैं कि अरब खाड़ी में श्रम-अनुकूल कानूनों की कमी की वजह से भारतीयों सहित ज्यादातर प्रवासी कामगार शोषण के शिकार हैं.

मेरे द्वारा दायर आरटीआई में जवाब दिया गया कि 2019 से 30 जून 2023 तक बहरीन, ओमान, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, कतर और सऊदी अरब में भारतीय दूतावासों को सामूहिक रूप से भारतीय प्रवासी श्रमिकों से 48,095 श्रम शिकायतें मिलीं.
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सभी रिपोर्ट किए गए मुद्दे अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा परिभाषित जबरन श्रम की ओर इशारा करते हैं. इसमें कहा गया है कि अलग-अलग संकेतकों के इस्तेमाल से यह पता लगाया जा सकता है कि कब और किन परिस्थितियों में जबरन श्रम कराया जा रहा है. जैसे कि श्रमिकों की आवाजाही की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, मजदूरी या पहचान दस्तावेजों को रोकना, शारीरिक या यौन हिंसा, धमकी और धमकी, या धोखाधड़ी ऋण.

मेजबान देशों में कार्यस्थल में मुद्दे व्याप्त हैं. दिलचस्प बात यह है कि भले ही भारत सबसे बड़ा प्रवासी भेजने वाला देश है, फिर भी कई संभावित प्रवासियों के लिए सुरक्षित, नियमित और व्यवस्थित प्रवास के लिए 'दिल्ली अब भी दूर है.' मेरे कैलकुलेशन से पता चलता है कि संभावित प्रवासियों और फर्जी विदेशी नौकरी देने वालों की ओर से लूटे गए पैसे चंद्रयान -3 जैसे 3 मिशनों को फंड कर सकते हैं या सालाना तीन राफेल जेट खरीद सकते हैं.

भारतीय विदेश मंत्रालय स्पष्ट रूप से बताता है कि रजिस्टर्ड रिक्रूटमेंट एजेंसियां अपनी सेवाओं के लिए अधिकतम ₹30,000 का शुल्क ले सकती हैं. भारत भर में 1,700 से ज्यादा ऐसी एजेंसियां काम करती हैं, जो विदेशी नौकरियों में रिक्रूटमेंट के लिए अधिकृत हैं.

हालांकि, संसद में पेश के एक दस्तावेज से पता चलता है कि विदेश मंत्रालय ने 30 अक्टूबर 2023 तक 2,295 अवैध या फर्जी रिक्रूटमेंट एजेंसियों की पहचान की थी.

फरवरी 2023 में संसद की पटल पर रखे गए एक संसदीय दस्तावेज में कहा गया है कि भारत में प्रतिदिन चौदह 'प्रवासियों के संरक्षक' कार्यालयों में लगभग 1,000 विदेशी नौकरी के आवेदनों पर कार्रवाई की जाती है. सिंपल कैलकुलेशन से पता चलता है कि भारत में रिक्रूटमेंट एजेंसियों को हर रोज 1,000 आवेदक कम से कम $ 361,000 रकम देते हैं. यह प्रति माह $ 10 मिलियन और प्रति वर्ष $ 129 मिलियन होता है.

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जब विदेश मंत्रालय ने स्वीकारा कि अवैध या नकली एजेंसियां विदेश में नौकरी की चाह रखने वाले हर प्रवासी से 2,500 डॉलर से 6,000 डॉलर के बीच रकम ले रहे हैं, तो मामले में हैरान करने वाले आंकड़े सामने आएं.

यहां तक कि अगर हम यह आंकड़ा लेकर चलें कि 2,925 अवैध या नकली एजेंसियों में से हर एक ने एक महीने में केवल पांच प्रवासियों को भर्ती किया है और हर एक व्यक्ति से से 2,500 डॉलर लेते हैं, तो इस तरह एक महीने में यह राशि 36.5 मिलियन डॉलर हो जाती है. एक साल के लिए, यह आंकड़ा 438 मिलियन डॉलर होगा. इस रकम से अवैध या नकली रिक्रूटर्स पांच चंद्रयान मिशन एक बार में लॉन्च कर सकती है क्योंकि एक मिशन की लागत केवल 75 मिलियन डॉलर. वे तीन दसॉल्ट राफेल जेट यूनिट खरीद सकते हैं, जिनकी कीमत 11.5 करोड़ डॉलर है, कुछ अतिरिक्त खर्च के साथ.

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दुर्भाग्य से, ये नकली एजेंसियां भारतीयों को धोखा देने और उन्हें रूस और इजरायल जैसे युद्ध संकट वाले देशों में भेजने में अहम भूमिका निभाती है. जहां भारतीय या तो क्रॉसफायर में मर जाते हैं या युद्ध लड़ने के लिए मजबूर होते हैं. रूसी और इजरायली श्रम प्रवास में, मैं भारत सरकार पर केवल इसलिए उंगली उठाऊंगा क्योंकि भारतीय आप्रवासन इन देशों में प्रवास को रोकने में विफल रहा है और उन्हें दूसरे देश जाने के क्लियरेंस रिक्वायर्ड लिस्ट के तहत नहीं रखा है. जैसा कि सरकार ने सूडान, इराक, अफगानिस्तान, और यमन जैसे तमाम मामलों में किया है.

संक्षेप में, मोदी ने कभी भी प्रवास करने वाले छात्रों और मजदूरों को अपने दिल के करीब नहीं रखा. एक मुस्लिम देश में मंदिर का निर्माण भाईचारे और मजबूत राजनीतिक संबंधों के संकेत के रूप में उस वक्त देखा जा सकता है, जब भारतीय श्रमिकों को दूसरे देशों में काम करने की बेहतर स्थिति और श्रम अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. तो इस वक्त में मंदिर के नाम पर गर्व करने का कोई तुक नहीं है.

(रेजिमोन कुट्टप्पन एक स्वतंत्र पत्रकार, श्रम प्रवास विशेषज्ञ और अनडॉक्यूमेंटेड [पेंगुइन 2021] के लेखक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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