हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला एक बार फिर चर्चा में है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने मामले की जांच के लिए जस्टिस रूपनवाल कमीशन का गठन किया. लेकिन इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद अगर कई सवाल जस्टिस रूपनवाल की जांच पर उठते हैं, तो कुछ सवाल वेमुला आंदोलन पर भी उठने जरूरी हैं.
संघर्ष की शुरुआत या उम्मीदों का अंत?
आत्महत्या के कुछ दिन पहले यूनिवर्सिटी ने रोहित वेमुला को कुछ साथियों समेत अनुशासनहीनता के आरोप में हॉस्टल से (यूनिवर्सिटी से नहीं) निष्कासित कर दिया था. इस तरह की घटनाएं छात्र राजनीति के संघर्ष का ही हिस्सा होती हैं. रोहित के पत्र से भी यह साफ था कि वह हॉस्टल से निष्कासित करने की घटना से विचलित नहीं था. डीयू-जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में दलित-बहुजन छात्रों को कई महीनों तक फेलोशिप न मिलने के मामले आम हैं.
अपने पत्र में रोहित ने कहा है, ''मैं अपनी आत्मा और अपनी देह के बीच की खाई को बढ़ता हुआ महसूस करता रहा हूं...मेरा जन्म एक भयंकर दुर्घटना थी. मैं अपने बचपन के अकेलेपन से कभी उबर नहीं पाया...बचपन में मुझे किसी का प्यार नहीं मिला.''
साथ ही वह कहता है, ''मुझे सात महीने की फेलोशिप मिलनी बाकी है एक लाख 75 हजार रुपया. कृपया ये सुनिश्चित कर दें कि ये पैसा मेरे परिवार को मिल जाए.''
यह सारी बातें इस ओर से इशारा करती हैं कि उसे अपने परिवार और मित्र समुदाय से कुछ अधिक की उम्मीद थी. इस उम्मीद और दार्शनिक प्रौढ़ता के जिस ऊंचे तल पर वह स्वयं से संवाद किया करता था, उससे यह भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे फुले-आम्बेडकरवादी आंदोलन के संकुचित होते जा रहे वैचारिक दायरे से भी बेचैनी होती होगी.
दलित साबित करने की जिद क्यों?
रोहित की खुदकुशी के तुरंत बाद ही रोहित के पिता ने टीवी कैमरे पर बता दिया था कि वे ‘अनुसूचित जाति से नहीं, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं'. उन्होंने कहा था, ''मुझे नहीं पता कि रोहित की मां ने अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र कहां से और कैसे बनवा लिया.''
जो भारतीय संविधान हमें आरक्षण का अधिकार देता है, वही संविधान जाति का निर्धारण भी पितृपक्ष से करता है. यह सही है या गलत- यह अलग मुद्दा है. लेकिन दलित इस आधार पर अब तक आरक्षण स्वीकार करते रहे हैं. फिर पिता के बयान के बाद भी आंदोलन करने वाले लोग किस कारण से रोहित को अनुसूचित जाति का बताते रहे? क्यों नहीं उसे सिर्फ सामाजिक रूप से वंचित तबके का कहा गया? जांच रिपोर्ट के आने के बाद अगर यह स्पष्ट हो रहा है कि रोहित अनुसूचित जाति का नहीं था, तो दलित-बहुजन वैचारिकी को हास्यास्पद स्थिति में ला खड़ा करने का जिम्मेदार कौन है?
असली मामला कुछ और?
जिन लोगों ने दिल्ली से वेमुला आंदोलन को खड़ा किया, उनका मकसद शुरुआत से ही दलित-बहुजन चेतना को संपन्न करना नहीं, बल्कि इस चेतना का उपयोग सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के विरोध में करना था.
आपको वाम और कांग्रेसी छात्र संगठनों द्वारा चलाए जा रहे अकुपाई यूजीसी (Occupy UGC) आंदोलन की याद होगी, जो जेएनयू के विद्यार्थियों द्वारा शुरू किया गया था और उत्तर भारत की कई यूनिवर्सिटी तक फैल गया था. अक्टूबर, 2015 में सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए मिलने वाली नॉन नेट फेलोशिप बंद करने की घोषणा कर दी थी. विद्यार्थियों द्वारा विरोध-प्रदर्शनों ने बाद तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी इस बात के लिए मान गई थीं कि ‘सामाजिक और आर्थिक’ रूप से पिछडे विद्यार्थियों को यह फेलोशिप जारी रहेगी, लेकिन ‘सभी’ को नहीं मिलेगी.
इसका सीधा अर्थ था कि सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों– दलित, आदिवासी और ओबीसी को तथा गरीब सवर्णों को फेलोशिप मिलेगी. लेकिन अमीर द्विजों को नहीं मिलेगी. यह बात सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुकूल थी. आर्थिक रूप से संपन्न द्विजों को भी नॉन नेट फेलोशिप देने का अर्थ है शिक्षण संस्थानों में आर्थिक असमानता को बढ़ावा देना. लेकिन द्विज वर्चस्व वाले छात्र संगठनों को यह गवारा नहीं था. उन्होंने ‘अकुपाई यूजीसी’ आंदोलन जारी रखा.
इसी बीच रोहित वेमुला की आत्महत्या की खबर आ गई और जिसे इन लोगों ने सुनियोजित रूप से ‘यूजीसी फेलोशिप मिलने में देरी’ के कारण हुई घटना करार दिया. उनकी इस रणनीति ने आंदोलन में जान फूंक दी और अकुपाई यूजीसी आंदोलन ‘रोहित वेमुला आंदोलन’ में तब्दील कर दिया गया. ‘लाल सलाम, जय भीम’ के नारे लगाए जाने लगे. आंदोलन इतना बढ़ा कि सरकार को अमीर (सवर्ण) परिवारों के विद्यार्थियों के लिए भी नॉन नेट फेलोशिप जारी रखनी पड़ी. रोहित वेमुला आंदेालन का कुल जमा हासिल यही है.
रोहित वेमुला बनाम बाबा आम्बेडकर
वेमुला आंदोलन किस प्रकार के भटकाव का शिकार का था, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रोहित वेमुला की तुलना डॉ. अम्बेडकर से कर डाली. एक प्रसिद्ध दलित-मार्क्सवादी लेखक ने लिख डाला कि रोहित को जिस प्रकार की प्रताड़ना झेलनी पड़ी, अगर उसकी जगह बाबा साहब आंबेडकर भी होते, तो आत्महत्या कर लेते!
बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने गत 14 अप्रैल को आम्बेडकर जयंती पर रोहित और डॉ. आम्बेडकर की तुलना किए जाने पर कड़ी आपत्ति जताई और दलित व पिछड़े युवाओं का आह्वान किया कि वे रोहित वेमुला को आदर्श न बनाएं, बल्कि डॉ. आम्बेडकर, नेल्सन मंडेला व कांशीराम के जीवन से प्रेरणा लें, जिन्होंने अनेक बाधाओं से लड़ते हुए अपना संघर्ष जारी रखा. उनका भी कहना था कि अगर रोहित को आदर्श बनाया गया, तो दलित-बहुजन आंदोलनों के विरोधी सफल होंगे.
बंदर के हाथ में उस्तरा
आज सोशल मीडिया पर दलित-बहुजन विद्यार्थियों की बड़ी संख्या मौजूद है. फुले-आम्बेडकरवादी चेतना से लैस ये युवा अस्मिता आंदोलनों की महत्ता को समझते हैं तथा उसे तेज करने के लिए तत्पर रहते हैं. रोहित का पत्र सार्वजनिक होने के बाद इन युवाओं में शोक की लहर दौड़ गई. इस लहर का उपयोग निहित स्वार्थों में डूबे दलित-बहुजन समुदाय के कुछ ऐसे लोगों ने भी किया, जिनके लिए सोशल मीडिया पर सक्रियता अपनी बेरोजगारी दूर करने का माध्यम भर है. जिन्हें न तो हमारे आंदोलनों में साधन की पवित्रता का मूल्य पता है, न ही वे हमारे पूर्वजों के संघर्षों की महान विरासत का मर्म समझते हैं. फुले-आम्बेडकरवादी विचारधारा इन सिद्धांतविहीन लोगों के हाथ वैसे ही लग गई है, जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा. वे सामाजिक वर्चस्व पर तो क्या वार करेंगे, दलित-बहुजन आंदोलनों को जरूर घायल कर रहे हैं.
(प्रमोद रंजन दलित अधिकारों के लिए काम करते हैं और दलित मुद्दों पर आधारित पत्रिका फॉर्वर्ड प्रेस के साथ जुड़े हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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