पाकिस्तान (Pakistan) के अखबार Dawn में 14 जून, 2023 को छपे एक आर्टिकल में कहा गया है कि आने वाले वित्तीय वर्ष (Financial Year) में पाकिस्तान के फाइनांशियल एक्सचेंज की स्थिति बहुत खराब होने वाली है. वहां वित्तीय वर्ष 1 जुलाई से शुरू होता है. इस आर्टिकल के लेखक खुर्रम हुसैन खुद को ‘बिजनेस और इकोनॉमिक जर्नलिस्ट’ बताते हैं. वह पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, खासकर वहां की मैक्रो-इकोनॉमिक स्थिति के खासे जानकार हैं और इस पर लगातार लिखते रहते हैं. अगर वह कुछ लिख रहे हैं तो उनकी बात को संजीदगी से लिया जाना चाहिए.
खुर्रम हुसैन ने आगामी वित्त वर्ष में पाकिस्तान में विदेशी मुद्रा के इनफ्लो और आउटफ्लो से जुड़े विभिन्न पहलुओं की समीक्षा की है. उनका कहना है कि अभी तक पाकिस्तान के बाहरी लेनदारों के साथ कोई बड़ा अनुबंध नहीं तोड़ा गया है लेकिन आने वाले वित्तीय वर्ष में पाकिस्तान को बड़े लोन का भुगतान करना होगा. इस तरह देश को बाहरी वित्तीय सहयोग मिलने की बहुत कम उम्मीद है और पिछले साल की तुलना में विदेशी मुद्रा भंडार का स्तर भी बहुत कम था. ऐसी स्थिति में जब विदेशी मुद्रा भंडार अर्थव्यवस्था की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी पर्याप्त न हो, खतरा बहुत स्पष्ट नजर आने लगता है. अगर पाकिस्तान को समय रहते मदद न मिली तो 22 करोड़ आबादी वाले देश को गर्त में गिरने से कोई नहीं बचा सकता.
पाकिस्तान का परमाणु भंडार और अर्थव्यवस्था पर उसका असर
बेशक, खुर्रम हुसैन देश की सरकार और उसके परंपरागत दानदाताओं/डोनर्स को चेतावनी दे रहे हैं. वह बता रहे हैं कि पाकिस्तान की हालत भी कहीं श्रीलंका जैसी न हो जाए, जहां देश के पास ईंधन और दवाओं का आयात करने लायक विदेशी मुद्रा भी न बचे.
हुसैन ने अर्थशास्त्री के नजरिए से पाकिस्तान के मैक्रो-इकोनॉमिक स्थिति पर विचार किया है, इसीलिए पाकिस्तान की जनसंख्या के आंकड़ों का जिक्र करते समय उन्होंने विश्वव्यापी कूटनीतिक समुदाय और सरकारों के बयानों पर ध्यान नहीं दिया. 22 करोड़ की जनसंख्या वाले पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं. इस लिहाज से उसकी स्थिति श्रीलंका और उन देशों से अलग है, जिन्होंने आर्थिक मंदी का सामना किया है.
विश्व शक्तियां और पाकिस्तान के दाता देशों को लगातार यह चिंता रहती है कि देश कहीं अराजकता की स्थिति में न पहुंच जाए. हालांकि यह कभी नहीं कहा गया कि पाकिस्तान के हालात अफगानिस्तान या सोमालिया जैसे नहीं होने चाहिए क्योंकि यह उसके परमाणु मसले के कारण अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरनाक होगा.
पाकिस्तानी सेना और वहां के एलीट को भी लगता है कि देश के पास परमाणु हथियार हैं, इसलिए उसे हर स्थिति से छुटकारा मिल जाएगा और अब तक ऐसा होता भी रहा है. यही वजह है कि पाकिस्तान ने कुल 23 बार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का सहारा ले चुका है.
उपाय करने का तकाजा
यह कहा जा सकता है कि IMF ने हमेशा इस सच्चाई को नजरंदाज किया कि पाकिस्तान ने अपनी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलाव की शर्त को कभी पूरा नहीं किया, जबकि वह हमेशा ऐसा करने का वादा करता है. इसी शर्त की बुनियाद पर पाकिस्तान के अरब दाता देशों, चीन और यहां तक कि अमेरिका ने भी उसे पिछले तीन दशकों से बचाया है.
हालांकि मौजूदा वक्त में अमीर देशों की अर्थव्यवस्था भी बहुत अच्छी नहीं है और उन्हें लग रहा है कि पाकिस्तान का एलीट काफी लंबे वक्त से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ खिलवाड़ कर रहा है. इन सभी वजहों से उनका धीरज खत्म हो रहा है. इस बात पर लगातार जोर दिया जा रहा है कि पाकिस्तान को अपनी अर्थव्यवस्था को स्थिर रखना चाहिए, भले ही उसे कई अप्रिय फैसले लेने पड़ें...जैसे ईंधन, बिजली और खाद्य सबसिडी को वापस लेना.
प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली मौजूदा पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (PDM) सरकार ने अपनी लोकप्रियता को दांव पर लगाकर, इस दौरान कई कड़े कदम उठाए हैं.
देश की असली ‘आर्थिक’ समस्या यह है कि पाकिस्तान के रक्षा बल लगातार बड़े आवंटन की मांग करते हैं. पाकिस्तान की सेना, खास तौर से अपने स्थायी दुश्मन ‘भारत’ का हवाला देकर, खुद को रक्षक बताती है और अपनी कब्र खुद खोदती है.
यह एक बार फिर जाहिर हुआ है. 1 जुलाई से शुरू होने वाले वित्तीय वर्ष के बजट में रक्षा बलों के लिए आवंटन पिछले साल के आवंटन से 13% बढ़ा दिया गया है.
सच तो यह है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लाइफ सपोर्ट पर है. खुर्रम हुसैन की आशंकाओं के बावजूद, यह उम्मीद नहीं है कि इन सपोर्ट को हटाया जाएगा. दिक्कत यह है कि पाकिस्तान में आर्थिक प्रगति हासिल करने की क्षमता है, अगर वह कठिन सामाजिक-आर्थिक फैसले करे, रक्षा व्यय में कटौती करे और एक सामान्य देश की तरह व्यवहार करना शुरू करे, जो भारत जैसी बड़ी और तरक्कीपसंद अर्थव्यवस्था का फायदा उठा सकता है.
साफ है, चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-गलियारा (CPEC) आर्थिक स्थिरीकरण और विकास का माध्यम बन सकता है, यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है.
भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार की बहाली
पाकिस्तान के बड़े उद्योगपति और निशात ग्रुप के प्रमुख मियां मोहम्मद मंशा ने भारत के साथ अपने बंद दरवाजों खोलने की बात कही है. उन्होंने यह गुहार लगाई है कि भारत के साथ व्यापार बहाल किया जाए.
जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव के बाद पाकिस्तान ने अगस्त 2019 में भारत के साथ व्यापार पर रोक लगा दी थी.
मंशा ने कहा है कि
भारत के साथ व्यापार से कई कारोबारी मौके हाथ आएंगे." उन्होंने आगे कहा, "अगर चीन अपने क्षेत्रीय विवादों के बावजूद भारत के साथ जीवंत व्यापार और व्यापारिक संबंध रख सकता है, तो हम क्यों नहीं? मुझे लगता है कि अपने पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध रखने से बेहतर कुछ नहीं है. और आप अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते.
उनका कहना है कि हमें अपने पड़ोसियों के साथ अपने व्यवहार को सुधारने की जरूरत है. अब जो भी मुद्दे आड़े आ रहे हैं, उन्हें वहीं रहने दें लेकिन एक बार जब लोग व्यापार और पर्यटन के जरिए एक दूसरे के देश में आ जाएंगे, तो मुझे लगता है कि दरवाजे खुलने शुरू हो जाएंगे.
मंशा ने 1990 के दशक की शुरुआत में भारत के कड़े फैसलों का भी उदाहरण दिया, जब उसे भी IMF से मदद लेनी पड़ी थी. उन फैसलों की वजह से बाद में उसे आईएमएफ या दाता देशों की मदद की जरूरत नहीं पड़ी.
इसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने आसमान छुआ और अब जैसा कि मंशा ने कहा
विदेशी कंपनियां उस देश में आ रही हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीयों ने निवेशकों और निवेश की सुविधा के लिए कड़े सुधारों को लागू किया है.
Dawn अखबार ने अपने संपादकीय में मंशा की टिप्पणियों की हिमायत की. उसका हवाला देना जरूरी है क्योंकि अब तक शायद ही किसी पाकिस्तानी अखबार ने सरकार के विरोध में ऐसी नुक्ता चीनी की हो.
अखबार ने लिखा है कि मंशा ने "वह कहा है, जो बहुत से लोग कहते आए हैं कि भारत के साथ-साथ दूसरी क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं के साथ भी व्यापार किया जाना चाहिए. पाकिस्तान की दीर्घकालीन आर्थिक स्थिरता के लिए सबसे जरूरी है."
आर्थिक नीति का पुनर्गठन
बदकिस्मती से, ऐसा लगता है कि पाकिस्तान ने अपने पूरबी पड़ोसी से अच्छे विचारों या सस्ता माल, दोनों लेने से इनकार कर दिया है. कई लोगों ने पाकिस्तान सरकार से गुजारिश की है कि उस पर दोबारा से सोचे. उनकी दलील है कि जब ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे के विरोधी देश भी आर्थिक रिश्तों से इनकार नहीं करते, तो भारत और पाकिस्तान को ऐसा क्यों करना चाहिए? और इस बात से नाइत्तेफाकी रखना मुश्किल है.
सच्चाई तो यह है कि अगर इस्लामाबाद भारत के साथ व्यापार पर रोक लगाता है और इसके फायदे-नुकसान का हिसाब लगाया जाता है, तो असल में घाटे में आम लोग ही रहने वाले हैं. शायद वक्त आ गया है कि हमारे कूटनीतिककार और सरकारें अपने रुख पर पुनर्विचार करें, और भूराजनैतिक विवादों को व्यापार से अलग रखें.
खाद्य पदार्थों से लेकर फार्मास्यूटिकल्स तक, पाकिस्तान भारत से बहुत कुछ आयात कर सकता है और दुनिया भर के किसी भी देश से कम कीमतों पर.लेकिन हम फिर भी इससे इनकार करते हैं. जब महंगाई हमारे देश की जनता को दबाए जा रही है, ऐसे में ‘क्यों’ के सवाल पर फिर से सोचा जाना चाहिए. सरकार नई दिल्ली से अपने सैद्धांतिक मतभेदों को बदस्तूर रख सकती है, इस बीच दोनों देश आपसी कारोबार कर सकते हैं. दोनों ने ऐसा किया है और वह दौर उनके इतिहास का सबसे बेहतर दौर था.
पाकिस्तान ने खुद को एक कोने में समेट लिया है और ऐसा लगता है कि भारत और खुद के बीच उसने जो खाई बनाई है, उसको पार करना उसके लिए बहुत मुश्किल है.
(लेखक विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव [पश्चिम] रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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