आज से चंद रोज बाद 25 दिसंबर को देश पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) को उनकी 99वीं जयंती पर श्रद्धांजलि देगा. सरकार में जवाबदेही को बढ़ावा देने और लोगों में लोकतंत्र के लिए जागरूकता पैदा करने के वास्ते इस दिन को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है.
पिछले साल की तरह राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) देश की राजधानी में उनके स्मारक ‘सदैव अटल’ पर वाजपेयी को श्रद्धांजलि देंगे. सत्तारूढ़ बीजेपी के दूसरे बड़े नेता भी ऐसा ही करेंगे.
इस दिन पूरे देश में बीजेपी नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का जोश सातवें आसमान पर होगा.
अब जबकि साल 2023 खत्म होने वाला है, इन्हें पूरा भरोसा है कि 2024 में उनकी पार्टी और जिस वैचारिक परिवार का वह हिस्सा हैं, उनके लिए सबसे अच्छा साल साबित होगा.
जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में राम मंदिर का भारी जश्न के बीच उद्घाटन करेंगे. अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा, तो इसके कुछ महीनों के अंदर वह तीसरी बार पीएम पद की शपथ लेंगे– और पार्टी ने पहले से ही भविष्यवाणी करना शुरू कर दिया है– 17वीं लोकसभा में 2019 से भी बड़े बहुमत के साथ आएंगे.
वाजपेयी आज अगर जीवित होते तो खुश भी होते और दुखी भी. वे दो बातों के लिए खुश होते-
पहला, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण बाबरी मस्जिद के विध्वंस की आठवीं वर्षगांठ पर 6 दिसंबर 2000 को संसद में उनके द्वारा कही गई बात का प्रतीक होगा– कि राम मंदिर आंदोलन राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण था.
दूसरा, 1980 में खुद पार्टी के संस्थापक होने के नाते, संसदीय चुनावों में लगातार तीसरी बार बीजेपी के लिए जनादेश निश्चित रूप से उन्हें खुशी देता.
इसके बावजूद भारत में लोकतंत्र की दशा, खासकर संसद में हाल की घटनाओं को देखकर उन्हें निराशा हुई होती.
13 दिसंबर को संसद में गंभीर सुरक्षा चूक, लोकसभा और राज्यसभा के पीठासीन अधिकारियों के शर्मनाक पक्षपाती बर्ताव, विपक्षी दलों के 141 सांसदों के सामूहिक निलंबन के बाद गैर-बीजेपी दलों की लगभग पूर्ण अनुपस्थिति में जरूरी विधेयकों के पारित होने पर सरकार के आचरण पर उनको कड़ी आपत्ति होती, यह सब कुछ ऐसा है जो सिर्फ इंदिरा गांधी के दमन भरे आपातकाल में हुआ था.
ये सभी घटनाएं संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के प्रति उनकी पूरी जिंदगी कायम रखी प्रतिबद्धताओं के खिलाफ हैं.
संसद भवन परिसर में दूसरे प्रदर्शनकारी सांसदों के सामने एक विपक्षी सांसद द्वारा राज्यसभा के सभापति (जो भारत के उपराष्ट्रपति भी हैं) की मिमिक्री करने की भी वाजपेयी ने कड़ी निंदा की होती. और उन्होंने अपने फोन से मिमिक्री का वीडियो बनाने वाले राहुल गांधी को भी शालीनता से झिड़की दी होती, “नहीं, नौजवान. आपमें कई अच्छे गुण हैं, लेकिन यह आपके लिए अशोभनीय है. थोड़ी परिपक्वता दिखाएं. मैं जो आपसे कह रहा हूं वही आपके परनाना जवाहरलाल नेहरू भी कहते, जिनका मैं बहुत सम्मान करता हूं.”
वाजपेयी, राम मंदिर और लोकतंत्र का मंदिर
पार्टी और सरकार में अपने आदर्शवादी डिप्टी लालकृष्ण आडवाणी की तरह वाजपेयी भी पूरी तरह से लोकतांत्रिक थे. उनके लिए संसद एक पवित्र स्थान था. एक ऐसे शख्स के तौर पर जिसे उनके साथ मिलकर काम करने का सौभाग्य मिला, मैं बिना किसी हिचकिचाहट के दावा कर सकता हूं कि लोकतंत्र के इस मंदिर के प्रति उनकी श्रद्धा अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से ज्यादा थी.
उनका मानना था कि आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र को ताकत देकर भारत में लोकतंत्र की प्रणाली को मजबूत किया जा सकता है– और इस मकसद के लिए, भारत की कठोर संघर्ष से हासिल आजादी के बाद बड़ी सावधानी से बनाई गई लोकतांत्रिक शासन की संस्थाओं की रक्षा करना– किसी मुद्दे को, चाहे वह कितना भी सही क्यों न हो, राष्ट्र के भविष्य के लिए टकरावपूर्ण और सामाजिक रूप से विभाजनकारी तरीके से आगे बढ़ाने के बजाय कहीं ज्यादा जरूरी था.
वह बेशक चाहते थे कि राम मंदिर का निर्माण हो, लेकिन उन्होंने 6 दिसंबर 1992 को बेकाबू कार सेवकों द्वारा बाबरी मस्जिद के विध्वंस को खारिज कर दिया था. यही वजह है कि ईंट-दर-ईंट लोकतंत्र के मंदिर के जारी विध्वंस से वाजपेयी को सदमा लगता.
भारत में लोकतंत्र के साथ हो यह रहा है कि इसका ऊपरी ढांचा तो कायम है लेकिन बुनियाद कमजोर होती जा रही है. संसद के लिए एक नई आलीशान इमारत का निर्माण किया गया है. इस साल मई में इसके उद्घाटन के समय ऐतिहासिक राजदंड ‘सेनगोल’ औपचारिक रूप से भवन में स्थापित किया गया था. ‘सेनगोल’ 'धार्मिक' या न्यायपूर्ण शासन का प्रतीक है. लेकिन लोकतंत्र की कार्यप्रणाली में ‘धर्म’ कहां है, सदाचार कहां है?
जी20 शिखर सम्मेलन में और उससे पहले हुए इससे जुड़े सभी कार्यक्रमों में, प्रधानमंत्री मोदी ने दुनिया को बार-बार याद दिलाया कि भारत ‘लोकतंत्र की जननी’ है. लेकिन बाकी दुनिया का भारत के लोकतांत्रिक आचरण के प्रति लगातार आकर्षण घटता जा रहा है.
संसद में विपक्ष को महत्वहीन कर देना लोकतंत्र की अवमानना है
आइए हम लोकतांत्रिक गिरावट में योगदान देने वाले दूसरे मुद्दों को एक तरफ रखते हुए संसद में हुई हाल की घटनाओं की पड़ताल करते हैं.
बुनियादी बातें सबको मालूम हैं. 13 दिसंबर को 2001 में पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों द्वारा संसद पर हुए भयानक हमले की बरसी पर, दो लोग पब्लिक गैलरी से लोकसभा सदन में कूद गए. उन्होंने स्मोक कैनिस्टर्स से धुआं छोड़ा, जिससे कुछ देर के लिए अफरा-तफरी मच गई. बताया गया कि वे नारा लगा रहे थे: “तानाशाही नहीं चलेगी.” कुछ मीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि वे देश में बड़े पैमाने पर नौजवानों की बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे.
जाहिर तौर पर इस साजिश में छह लोग शामिल थे. पता चला है कि दोनों को कर्नाटक के एक बीजेपी सांसद से एंट्री पास मिला था. फिलहाल साजिश की तह तक जाने के लिए जांच चल रही है, जिसमें छह लोग शामिल हैं.
यह निश्चित रूप से सुरक्षा का गंभीर उल्लंघन था, भले ही सांसदों या किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ. इसके उलट, 2001 के मामले में हमले में शामिल सभी पांच आतंकवादियों को छोड़कर नौ लोग मारे गए थे.
विपक्षी सांसदों की गृह मंत्री से सदन में बयान देने की मांग सही थी. वे इस घटना में सरकार पर कोई गंभीर आरोप नहीं लगा रहे थे. अगर अमित शाह ने एक बयान दे दिया होता– यहां तक कि इस आश्वासन के साथ एक संक्षिप्त बयान ही दिया होता कि जांच पूरी होने पर संसद को भरोसे में लिया जाएगा– तो मामला वहीं खत्म हो गया होता.
2001 में संसद पर आतंकी हमला: वाजपेयी और आडवाणी का कैसा रवैया था?
यह याद करना जरूरी है कि 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले की शाम वाजपेयी ने किस तरह राष्ट्र को संबोधित किया था. पांच दिन बाद तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में एक विस्तृत बयान दिया था, जिसमें उन्होंने कहा:
“बीते हफ्ते संसद पर हुआ हमला निस्संदेह बेहद दुस्साहसी है, और लगभग दो दशकों में भारत में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के लंबे इतिहास में आतंकवाद का सबसे खतरनाक कृत्य भी है. इस बार सीमा पार आतंकवादियों और उनके आकाओं ने भारत के पूरे राजनीतिक नेतृत्व, जो कि हमारी बहुदलीय संसद में परिलक्षित है, को समाप्त करने की कोशिश करने का दुस्साहस किया...पाकिस्तान (जो कि) स्वयं अस्वीकार्य दो-राष्ट्र सिद्धांत का एक उत्पाद है, लोकतंत्र की अत्यंत कमजोर परंपरा वाला एक धार्मिक देश है, एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, आत्मविश्वास से भरपूर और लगातार प्रगति करने वाले भारत की हकीकत के साथ तालमेल बिठाने में वह असमर्थ है. भारत की स्थिति समय के साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय में निरंतर ऊची होती जा रही है.”
किसी भी विपक्षी दल ने वाजपेयी सरकार पर कुछ छिपाने या किसी भी तरह से संसद का अपमान करने का आरोप नहीं लगाया.
कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि गृह मंत्री अमित शाह का संसद में बयान देने से इनकार करना समझ से परे है. इससे विपक्षी सांसद उनसे बयान देने की मांग पर अड़े रहे. उन्होंने नारे लगाए और तख्तियां लहराईं. उनमें से कुछ लोग सदन के बीच पहुंच गए और कार्यवाही रोकने की कोशिश की. क्या वे ऐसा करने में सही थे? बिल्कुल नहीं. संसदीय प्रथाओं की मर्यादा सभी को बनाए रखनी चाहिए.
लेकिन क्या लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला और उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के लिए 141 सांसदों– निचले सदन के 95 और ऊपरी सदन से 46– को निलंबित करना सही है? बिल्कुल नहीं.
संसद में विपक्ष को नकार कर और कार्यपालिका के इशारे पर ऐसा करके, पीठासीन अधिकारियों ने बिना शक संसद के प्रति न सिर्फ अनादर दिखाया है, बल्कि घोर अवमानना भी की है.
जाहिर है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल ने इस घिनौने घटनाक्रम का सारा दोष विपक्षी सांसदों पर मढ़ दिया है. लेकिन जनता की याददाश्त इतनी कमजोर नहीं है कि वह भूल जाए कि 2014 से पहले पार्टी जब विपक्ष में थी तो बीजेपी के सांसद भी अक्सर नारेबाजी, सदन के बीच आ जाना और दूसरी रुकावट डालने वाली गतिविधियों में शामिल रहते थे.
वरिष्ठ बीजेपी नेता अरुण जेटली, जो कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA सरकार के समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे, ने एक बार इस तरह की रुकावट को यह कहकर जायज ठहराया था कि जब संसद में “लगातार मुद्दों को नजरअंदाज किया जाता है” तो “संसद में रुकावट लोकतंत्र के पक्ष में” है. उन्होंने यह भी दावा किया कि “ऐसे मौके आते हैं जब संसद में रुकावट से देश को ज्यादा फायदा होता है.”
2024 में भारत को प्रेसिडेंशियल प्राइम मिनिस्टर मिलेगा
हम जबकि 2023 के अंत के करीब हैं, तीन चीजें साफ हो चुकी हैं कि 2024 से क्या उम्मीद की जानी चाहिए-
पहला, सत्तारूढ़ दल– खासतौर प्रधानमंत्री– और विपक्ष के बीच संवाद पूरी तरह से खत्म हो चुका है. औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह का संवाद, बहुदलीय लोकतंत्र की ऑक्सीजन है. लेकिन चूंकि आज की बीजेपी– वाजपेयी और आडवाणी के युग की बीजेपी के उलट– अब बहुदलीय लोकतंत्र में भरोसा नहीं रखती है, इसने अन्य दलों के साथ जुड़ाव और सहयोग का दिखावा करना भी खत्म कर दिया है.
दूसरा, प्रधानमंत्री मोदी और ताकतवर बनना चाहते हैं, और बनेंगे भी. विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A, इसे रोकने में लाचार दिख रहा है क्योंकि वह भारत के लोगों को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहा है कि वह मोदी सरकार का एक स्थिर और बेहतर विकल्प पेश कर सकता है.
यह अब तक एकजुट ताकत बनकर उभर नहीं पाया है. इसने अब तक देश के सामने सामाजिक-आर्थिक विकास का कोई प्रेरक नजरिया या सुशासन का कोई भरोसेमंद एजेंडा पेश नहीं किया है. इसके पास गठबंधन के सभी घटक दलों के लिए स्वीकार्य कोई सक्षम प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं है, जो मतदाताओं की नजर में इसके आकर्षण को और कम कर देता है.
इस तरह पूरी संभावना है कि मोदी अपनी सरकार के प्रदर्शन के बल पर नहीं बल्कि कांग्रेस और बाकी विपक्ष की नुमायां कमजोरियों के चलते तीसरा कार्यकाल भी जीतेंगे.
तीसरा, जैसे-जैसे मोदी मजबूत होते जाएंगे, भारत की संसद अब की तुलना में कमजोर और ज्यादा अप्रासंगिक होती जाएगी. हमें भारत के राष्ट्रपति से, जो संविधान के अनुसार संसद के मुखिया हैं, लोकतंत्र के विधायी स्तंभ की रक्षा के लिए कुछ भी करने की उम्मीद नहीं है.
ऐसा इसलिए क्योंकि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति का पद पहले से कहीं ज्यादा औपचारिक हो गया है. हम दूसरी संवैधानिक संस्थाओं से भी लोकतंत्र की रक्षा की उम्मीद न करें, क्योंकि इनमें से हर संस्था का पतन हो रहा है. इनमें से हर एक सर्वशक्तिमान कार्यपालिका के अधीन हो चुका है.
नतीजन संसद में विपक्ष की आवाज– अगली लोकसभा में गैर-भाजपा सांसदों की संख्या जो भी हो– पहले से कहीं ज्यादा बेरहमी से दबा दी जाएगी. 141 सांसदों का सामूहिक निलंबन अभी आने वाली असल फिल्म का ट्रेलर भर है.
यह सब मुझे एक बार फिर से वाजपेयी को शिद्दत से याद करने पर मजबूर कर देता है. नई दिल्ली में फिक्की भवन में एक समारोह में अपने एक भाषण में उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को कैसे काम करना चाहिए, इस पर अपने विचार साझा किए. तब वह विपक्ष में थे.
उन्होंने कहा था, “लोकतंत्र सिर्फ 51 फीसद बनाम 49 फीसद का खेल नहीं है. बहुसंख्यक लोगों को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जैसे कि उनके पास अनियंत्रित शक्ति है. अल्पसंख्यक भी लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करते हैं. इसके अलावा, जो आज बहुमत में हैं वे कल अल्पसंख्यक बन जाएंगे– और इसका उलटा भी होगा. इसलिए, हम सभी राजनीतिक संस्थानों को संविधान के शब्द और भावना का सम्मान करना चाहिए.”
सबसे महत्वपूर्ण बात गौतम भाटिया ने कही है, जो संवैधानिक कानून के जाने-माने स्कॉलर और साहसी विचारक हैं. इस साल नवंबर में छपे एक शानदार और दूरदर्शी लेख में उन्होंने भारतीय संसद में पिछले हफ्ते के घटनाक्रम की भविष्यवाणी की थी. इसकी हेडलाइन है Presidential in all but the name: The centralizing drift in legislative/executive relations in India (नाम को छोड़कर यह राष्ट्रपति प्रणाली ही है: भारत में विधायी/कार्यकारी संबंधों में केंद्रीकरण का रुख)
भाटिया लिखते हैं, “औपचारिक रूप से, भारत केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर एक संसदीय प्रणाली बना हुआ है. यह संसदीय प्रणाली संविधान में दर्ज है, और संसद में हर सीट के लिए निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर, अक्सर पार्टी टिकट पर चुनाव लड़ा जाता है. और विधायिका और कार्यपालिका को संविधान में स्पष्ट रूप से अलग किया गया है. हालांकि व्यवहार में, हमने देखा है कि शक्ति तेजी से राजनीतिक कार्यपालिका में केंद्रित होती जा रही है. इसमें कई चीजों का योगदान है.”
“दसवीं अनुसूची विधायकों की निजी हैसियत पर पार्टी नेतृत्व को तरजीह देती है. कार्यपालिका-नियंत्रित स्पीकर का सदन पर कामकाजी नियंत्रण होता है, जिसमें विपक्ष भी शामिल है और जिसके पास मुश्किल समय में– किसी भी मामले में– कोई संवैधानिक रूप से गारंटी देने वाला अधिकार नहीं है. वह आगे कहते हैं, स्पीकर विधेयकों को धन विधेयक घोषित कर, उच्च सदन को भी समीकरण से हटा सकते हैं. इसलिए हम देख सकते हैं कि राजनीतिक कार्यपालिका में शक्ति का केंद्रीकरण है जो राष्ट्रपति प्रणाली (Presidential system) के राष्ट्रपति जैसा दिखता है लेकिन इसमें ऐसी प्रणालियों वाले कोई भी सुरक्षा उपाय या वीटो का अधिकार नहीं है.”
भाटिया का निष्कर्ष है: “असल में, सबसे ज्यादा मिलता-जुलता मामला 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के मध्य के लैटिन अमेरिका के कार्यकारी राष्ट्रपति हो सकते हैं, जिन्होंने बिना किसी खास रुकावट या सवाल-जवाब के सरकार चलाई. भारत के संदर्भ में यह प्रधानमंत्री होगा जो उस भूमिका में आसीन हो सकता है: औपचारिक रूप से अभी भी एक संसदीय प्रणाली है, लेकिन सभी तरह के अमल और मकसद, और शक्ति के मामले में, एक राष्ट्रपति प्रणाली है, मगर सुरक्षा उपायों के बिना जो कि चाहे राष्ट्रपति व्यवस्था हो या संसदीय उसमें होने चाहिए. और जैसा कि हमने देखा है, इसमें से ज्यादातर संविधान में लिखित और अलिखित दोनों से है, जो केंद्रीकरण के झुकाव को कार्यपालिका में मदद देता है– या कम से कम मौका देता है.
आसान लफ्जों में, भाटिया की चेतावनी का मतलब है कि 2024 के बाद, मुमकिन है कि भारत को एक राष्ट्रपति जैसा प्रधानमंत्री (Presidential Prime Minister) मिल सकता है.
यह ऐसी चीज होगी जिसकी वाजपेयी तो तारीफ नहीं करते.
(लेखक ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के तौर पर काम किया है और भारत-पाकिस्तान-चीन में सहयोग के लिए काम करने वाले Forum for a New South Asia के संस्थापक हैं. इनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni है. इनसे sudheenkulkarni@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है)
(यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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