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सांसदों का सामूहिक निलंबन: 'पवित्रता' बनाए रखने के लिए संसद की भावना नष्ट करना है

Mass Suspensions of MPs: व्यापक रूप से लिखे गए संविधान से यह धारणा बन सकती है कि बिना लिखी हर चीज को संवैधानिक छूट है.

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भारतीय संसद के इतिहास में साल 2023 का शीतकालीत सत्र (Winter Session 2023) इन दिनों चर्चा में है. इस दौरान रिकॉर्ड संख्या में सांसदों के निलंबन का गवाह बनने का कुख्यात गौरव हमेशा याद रहेगा. 13 दिसंबर को सुरक्षा उल्लंघन (Parliament Security Breach) के बाद, विपक्षी सांसदों ने मांग की थी कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) लोकसभा में जवाब दें और इस पर दोनों सदनों में चर्चा की जाए.

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इसकी प्रतिक्रिया के रूप में एक हाई-लेवल जांच कमेटी का गठन किया गया है, लोकसभा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे का 'राजनीतिकरण' नहीं करने का आह्वान किया. चूंकि असंतुष्ट विपक्षी सांसदों का हंगामा जारी रहा, दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने एक हफ्ते में 140 से ज्यादा सांसदों को निलंबित कर दिया.

लोकसभा अध्यक्ष के मुताबिक निलंबन "सदन की पवित्रता बनाए रखने" के लिए किया गया था. लोकसभा ने तीन नए आपराधिक विधेयकों के साथ-साथ दूरसंचार विधेयक को पारित करते हुए अपना विधायी कार्य जारी रखा है.

क्या कहते हैं नियम?

इन दिनों हो रहे मामलों के बारे में जो बात चौंकाने वाली है वह यह है कि अपने चरम परिणामों के बावजूद, वे प्रासंगिक नियमों के प्रत्यक्ष रूप से सीधे-सीधे लागू होने से चर्चा में आए हैं.

संविधान के अनुच्छेद 118(1) में नियम है कि हर सदन प्रक्रिया के लिए अपने नियम बना सकता है और तदनुसार, लोकसभा और राज्यसभा से संबंधित 'प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम' उनके पीठासीन अधिकारियों को पहल करने की शक्ति और विवेक देते हैं. 'सदन के कामकाज में लगातार और जानबूझकर बाधा डालने' के लिए सांसदों को निलंबित करने का प्रस्ताव (लोकसभा नियम 374 और राज्यसभा नियम 256).

लोकसभा के नियम के मुताबिक स्पीकर को बिना किसी प्रस्ताव को पारित करने की जरूरत के स्वचालित रूप से सांसदों को निलंबित करने में मदद मिलती है, अगर 'किसी सदस्य द्वारा सदन के वेल में आने से गंभीर अव्यवस्था होती है' या अगर सदस्य 'नारे लगाकर' (नियम 374ए, 2001 में जोड़ा गया) 'नारे लगाकर' (नियम 374ए, 2001 में जोड़ा गया) बाधा उत्पन्न कर रहा है.

यह निर्विवाद है कि ये फैक्ट वास्तव में इस हफ्ते संसद में सामने आए और इस तरह, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा सभापति ने कानून के काले अक्षर के तहत काम किया. और फिर भी, इसका मतलब यह नहीं है कि उनके कार्य संवैधानिक या राजनीतिक रूप से उचित थे.

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संसदीय लोकतंत्र में संवैधानिक रूप से क्या है?

पहला- जैसा कि चक्षु रॉय बताते हैं कि यह केवल प्रक्रियात्मक नियमों में कमियों को दर्शाता है. ऐसा लगता है कि वे इस तर्क पर विचार कर रहे हैं. चूंकि संसद का उद्देश्य लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व करना और उनके नाम पर काम करना है, इसलिए व्यक्तिगत सांसदों द्वारा इसकी कार्यवाही में कोई भी व्यवधान अलोकतांत्रिक होना चाहिए और उसे दंडित करने की जरूरत है. लेकिन लोकतंत्र और निश्चित तौर पर हमारी संवैधानिक लोकतंत्र की प्रणाली केवल अबाधित बहुमत फैसले लेने की सुविधा प्रदान करने के बारे में नहीं है. जबकि बहुमत की इच्छा शक्ति प्रदान करने का आधार प्रदान करती है. संविधान इस लोकतांत्रिक शक्ति के प्रयोग को जांच और संतुलन की व्यापक प्रणाली के तहत संचालित करते हुए विभिन्न मानदंडों के अधीन करता है.

वेस्टमिंस्टर स्टाइल की संसदीय प्रणालियों में कार्यकारी प्रभुत्व की प्रवृत्ति होती है, यह देखते हुए कि सरकार की पार्टी को संसद में बहुमत प्राप्त है लेकिन यूके और अन्य जगहों पर, इस नेचर को उन परंपराओं से नियंत्रित किया जाता है, जिनके लिए विधायिका में बहुमत के फैसलों की जांच, विचार-विमर्श और सहयोग की जरूरत होती है. कुल मिलाकर, यह वह है, जो हमें संवैधानिक लोकतंत्र में सत्ता के प्रयोग की पूरी तस्वीर पेश करता है, न केवल बहुमत की क्रूर इच्छा, बल्कि फैसले लेने की एक सुविचारित, पारदर्शी और जवाबदेह प्रणाली.

प्रत्यक्ष लोकतंत्र या राष्ट्रपति प्रणाली के विपरीत, एक प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र को संसद के जरिए कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करने की जरूरत होती है, जहां सत्ताधारी और साथ ही विपक्षी दलों के सांसद सरकारी प्रस्तावों के संबंध में अपने विचार, चिंताएं और आलोचनाएं व्यक्त कर सकते हैं.

इसके अलावा, ब्रिटेन के विपरीत, भारत में संप्रभुता का अधिकार संसद में नहीं, बल्कि संविधान में निहित है. यह अंततः संविधान ही है, जो संसद सहित सभी संवैधानिक निकायों द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति का निर्माण, प्रदान और शर्तों पर करता है. जब वेस्टमिंस्टर-स्टाइल की संसद को एक लिखित संविधान के साथ जोड़ा जाता है, तो इसके सभी कार्यों (जिसमें विधायी आउटपुट, सरकारी जांच और आंतरिक विनियमन शामिल हैं) को संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप और आगे बढ़ाने की जरूरत होती है.

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दुर्भाग्य से, व्यापक रूप से लिखित संविधान इस आलसी और खतरनाक धारणा को जन्म दे सकता है कि जो चीज नहीं लिखी गई है वो हर चीज की संवैधानिक अनुमति है. संविधान के मूल पाठ पर अत्यधिक निर्भरता के नतीजे इसकी स्वयं की प्रेरक भावना कमजोर हो सकती है. जैसा कि मीनाक्षी रामकुमार, ऐश्वर्या सिंह और गौतम भाटिया जैसे विद्वानों ने उजागर किया है, संसद में विपक्षी दलों को सुरक्षा उपाय प्रदान करने में भारतीय संविधान की विफलता संसद की पूर्ण संवैधानिक अर्थ में एक लोकतांत्रिक सदन के रूप में कार्य करने की क्षमता को कमजोर करती है.

निरंकुश कानूनवाद

ऐसे कई तरीके हैं, जो लोकतंत्र को निरंकुशता की ओर ले जाते हैं. संवैधानिक विद्वान किम लेन शेपेल ने 'निरंकुश कानूनवाद' को उनमें से एक के रूप में पहचाना है, जिसमें उदार लोकतांत्रिक संवैधानिकता को कमजोर करने के लिए कानूनी रूप से स्वीकार्य उपकरणों का उपयोग करना शामिल है.

करोड़ों भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों को अपमानित करके संसद की 'पवित्रता' को बनाए रखने के लिए अनुशासनात्मक नियमों का उपयोग करना इस राह पर एक और मील का पत्थर है.

संसद की 'पवित्रता' केवल प्रतिनिधि, विचारशील लोकतंत्र के संवैधानिक सिद्धांत को मूर्त रूप देने और आगे बढ़ाने की क्षमता में मौजूद है. व्यवधान के लिए सांसदों के सामूहिक निलंबन से इस सिद्धांत का कहीं ज्यादा हद तक उल्लंघन होता है, जितना कि उनके व्यवधान से होता है.

जब तत्कालीन सरकार जन प्रतिनिधियों को समायोजित नहीं करती है, तो संसदीय व्यवधान उसके अनुशासित, बिना विवाद कामकाज की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक हो सकता है. इसके बजाय, इस सप्ताह, संसद की औपचारिक पवित्रता को उसकी मूल भावना की कीमत पर बरकरार रखा गया.

(केविन जेम्स हार्वर्ड लॉ स्कूल में LLM कैंडिडेट और जे.एन. टाटा स्कॉलर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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