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कोरोना संकट के समय संसद सत्र जरूरी, मगर कैसे? मालदीव है मिसाल  

दुनिया के कई देशों ने वर्चुअल या हाइब्रिड संसद को अपनाया है

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ऑस्ट्रेलिया की विक्टोरियन पार्लियामेंट के एंट्रेंस की टाइल्स पर एक खूबसूरत संदेश लिखा है- वेयर नो काउंसल इज, द पीपल फॉल, बट इन द मल्टीट्यूट ऑफ काउंसलर्स देयर इज सेफ्टी. यानी जन प्रतिनिधियों के अभाव में लोगों की हानि होती है पर उनकी ज्यादा संख्या सुरक्षा का पर्याय बन जाती है. संसदीय लोकतंत्र का क्या महत्व है, इस संदेश में यह साफ जाहिर होता है. COVID-19 महामारी में इसका महत्व और बढ़ जाता है.

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दुनियाभर के देशों में संसद की वर्चुअल बैठकें आयोजित की जा रही हैं. भारत में फिलहाल बजट सत्र के बाद मॉनसून सत्र के लिए समय है. आम तौर पर ये सत्र जुलाई के आखिर में शुरू होता है. बजट सत्र को आठ दिन कम कर दिया गया और कई अहम बिलों पर चर्चा नहीं हो पाई. इसके बाद संसदीय समिति की बैठक भी आयोजित नहीं की गई. फिलहाल यह खबर है कि 3 जून को गृह मामलों से संबंधित स्थायी समिति की बैठक होगी जिसमें सभी सदस्य हिस्सा लेंगे. यह भी पक्का है कि यह बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए नहीं होगी. वैसे विपक्ष लगातार वर्चुअल बैठकों की मांग कर रहा है. आखिर दूसरे देशों की तरह हमारे यहां इस नई तकनीक के प्रति इतनी उदासीनता क्यों है?

दुनिया के कई देशों ने वर्चुअल या हाइब्रिड संसद को अपनाया है

दुनिया के कई देश संसद की ऑनलाइन बैठकें आयोजित कर रहे हैं. ब्राजील की संसद ने पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के दौरान रिमोटली काम करने को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया. चिली की सीनेट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए बैठकें करने का कानून बनाया. कनाडा में यह प्रस्ताव मंजूर किया गया कि स्थायी समितियां वर्चुअल तरीके से काम करेंगी.

मालदीव दुनिया का पहला देश है जिसने COVID-19 संकट के दौरान संसद का पूर्ण अधिवेशन आयोजित किया. इसके लिए उसने कई सॉफ्टवेयर एप्लीकेशंस का इस्तेमाल किया और दूर-दूर बैठे अपने सांसदों को एकजुट किया. डिबेट, वोटिंग सब की. दरअसल वहां की संसद में 2018 में ही इस तकनीक का प्रयोग करना शुरू कर दिया गया था.

दूसरी तरफ फ्रांस ने सीनेट की बैठकों को सीमित किया और प्रश्नकाल के प्रश्नों की संख्या कम कर दी. ब्रिटेन में हाइब्रिड संसद का प्रयोग किया गया है. इसमें वर्चुअल और शारीरिक मौजूदगी, दोनों का इस्तेमाल किया गया. कुछ ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सदन की कार्यवाही में हिस्सा लिया, कुछ ने सदन में पहुंचकर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. यहां तक कि 15 से ज्यादा देशों की संसदीय समितियां भी ऑनलाइन काम कर रही हैं.

हमारे यहां यह प्रयोग सिर्फ प्रयोग ही क्यों?

भारत में यह प्रयोग सिर्फ प्रयोग बनकर रह गया है. इसकी पहल अप्रैल में की गई थी. COVID-19 के प्रकोप के लिए वित्तीय साधन जुटाने हेतु सांसदों के कार्यालयी और निर्वाचन क्षेत्र संबंधी भत्तों में 30 फीसदी कटौती की गई. इस फैसले के लिए वेतन और भत्तों की संयुक्त समिति की बैठक वर्चुअल तरीके से की गई. इस बैठक में रीता बहुगुणा जोशी अध्यक्ष थीं और लोकसभा के नौ और राज्यसभा के पांच सांसद शामिल थे. समिति ने 15-15 मिनट की दो बैठकें कीं और कटौती के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई. मगर इसके बाद किसी समिति की बैठक ऑनलाइन आयोजित नहीं की गई. आम तौर पर संसदीय समितियां अलग-अलग विषयों पर सरकार के कामकाज और विधेयकों की समीक्षा करती हैं.

फिलहाल दो समितियां श्रम और पर्सनल डेटा जैसे विषयों पर केंद्रित विधेयकों पर विचार कर रही हैं. COVID-19 के दौरान ये दोनों विषय अहम और प्रासंगिक हैं, पर इनका काम लंबित पड़ा है. जबकि खुद प्रधानमंत्री वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की मदद से कैबिनेट की बैठक कर रहे हैं और दूसरे राजनेताओं से बातचीत भी कर रहे हैं. लोग ऑफिस का काम घरों से कर रहे हैं. बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

अक्सर बदलाव व्यवस्था की मर्जी पर निर्भर करता है

जाहिर सी बात है, कई बार बदलाव व्यवस्था बनाने वाले की मर्जी पर निर्भर करता है. सरकार चाहे तो नियमों में बदलाव कर सकती है और वो करती भी है. इसके लिए संसदीय नियमों के इतर भी जाया जाता है. संसद सत्र न चलने की स्थिति में अध्यादेश लाकर कानून बनाए जाते हैं. कई राज्यों ने श्रम कानूनों में बदलाव करने के लिए अध्यादेशों का ही सहारा लिया है. इससे पहले ऐसा कई बार हो चुका है. मिसाल के तौर पर 1962 में सबसे पहले संसदीय कार्रवाई में शून्य काल को शामिल किया गया क्योंकि तब सांसदों को ऐसा लगा था कि वे संसद में अपने स्थानीय मुद्दों को पेश नहीं कर सकते. यूं संसदीय नियमों में शून्यकाल का कोई जिक्र नहीं है.

वैसे संसदीय नियमों में कहीं इस बात का भी जिक्र नहीं है कि सांसदों को संसद भवन में शारीरिक रूप से मिलना होगा.

इस बात पर कई बार चर्चा हो चुकी है कि संसद सत्र को दिल्ली के बाहर ले जाया जाए. इसके लिए सिर्फ एक शर्त है कि अध्यक्ष या अधिकृत सांसद द्वारा बैठक की अध्यक्षता की जाए. जिस ब्रिटेन के लोकतांत्रिक मॉडल को भारत ने अपनाया है, वहां 1940-41 के बीच संसद के दोनों सदनों की बैठकें चर्च हाउस में की गई थीं क्योंकि सरकार को डर था कि जर्मन एयरफोर्स चैंबर पर बम गिरा सकती है. दूसरे विश्व युद्ध के समय पैलेस ऑफ वेस्टमिन्स्टर पर 14 बार हमले किए गए थे. यह ब्रिटिश संसद का सभा स्थल है. इसके बाद चर्च हाउस को संसद के दूसरे वैन्यू के तौर पर देखा जाता है.

नई तकनीक का इस्तेमाल सांसद पहले से करते रहे हैं

सवाल यह है कि नई तकनीक से हमें गुरेज क्यों है. ऐसा नहीं है कि ऐसी तकनीक उपलब्ध नहीं है जिनके जरिए संसदीय समितियों की बैठकों में गोपनीयता नहीं बरती जा सकती है. समितियों के हर कामकाज में गोपनीयता की जरूरत होती भी नहीं है. फिर तकनीक का प्रयोग हमारे सांसद पहले से करते रहे हैं.

पचास के दशक में लोकसभा की लॉबी में टेलीप्रिंटर लगाया गया तो यही तर्क दिया गया था कि सांसदों को ताजा घटनाक्रमों की जानकारी मिलती रहेगी.

आज सांसद सदन में फोन पर इंटरनेट और आईपैड का इस्तेमाल करते हैं. अपने सवाल भी इलेक्ट्रॉनिकली सबमिट करते हैं. टीवी पर संसदीय कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण की शुरुआत करते समय गोपनीयता की दुहाई दी गई थी, पर इससे सांसदों की जवाबदेही और पुख्ता हुई है.

सबसे अहम है सांसदों की जवाबदेही

COVID-19 महामारी के दौरान जन प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करने का भी वक्त है. जैसा कि सांसद मनोज झा ने COVID-19 में संसद की भूमिका नामक एक वेबिनार में कहा, यह सिर्फ स्वास्थ्य, खाद्य या रोजगार संकट नहीं है- यह प्रतिनिधित्व का भी संकट है. बेशक, लॉकडाउन का फैसला, सामूहिक फैसला कतई नहीं था. तीसरे लॉकडाउन तक का फैसला संघवाद की अवधारणा के अनुरूप भी नहीं था. क्योंकि यह केंद्रीय स्तर पर लिया गया फैसला था. इस पर कोई विमर्श नहीं किया गया था. फिर विधायिका का काम कार्यपालिका पर अंकुश लगाना भी होता है. यह अंकुश निरंतर होता है- संसदीय सत्र के दौरान, और दो सत्रों के बीच भी. खास तौर पर, जब देश की जनता पर किसी किस्म का संकट हो. वर्चुअल बैठकों से हम संसदीय कार्य प्रणाली का दायरा बड़ा कर सकते हैं- इनसे बचने से यह दायरा सीमित होगा. यह सिर्फ COVID-19 जैसी महामारी से लड़ने के लिए ही नहीं, देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए भी जरूरी है.

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