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तुम हमसे सवाल पूछो, हम तुम्हें ऐसे जवाब देंगे कि बूझते रह जाओगे!

Video: संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार ने विपक्ष के सवालों के गोलमोल जवाब दिए.

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सवाल-'पिछले आठ वर्षों में सरकारी और गैर सरकारी कितनी नौकरियां पैदा हुईं?'

जवाब-'देश में रोजगार के सर्वे के लिए तीन माध्यम उपलब्ध हैं. सबसे पहले देश के सामान्य क्षेत्र में रोजगार के लिए पीरियॉडिक लेबर सर्वे है. पीरियॉडिक लेबर सर्वे हर तिमाही माह में होता है. उसके डेटा मैंने उत्तर में प्रस्तुत किए हैं. 2018-19, 2019-20, 2020-21 में बेरोजगारी दर 5.8%, 4.8%, 4.2% रही, जो दिखाता है कि बेरोजगारी कम हुई है. दूसरा भारत सरकार के लेबर ब्यूरो द्वारा सर्वे किया जाता है जिसका मुख्यालय चंडीगढ़ में है. अब हम दो सर्वे करते हैं. एक इंस्टीट्यूशन बेस्ड सर्वे और एक एरिया बेस्ड सर्वे. इंस्टीट्यूशन बेस्ड सर्वे की रिपोर्ट आनी शुरू हो गई है. इंस्टीट्यूशन बेस्ड सर्वे की तिमाही रिपोर्ट आ गई है जिसमें कृषि के अलावा जो 9 क्षेत्र हैं जैसे एजुकेशन, ट्रांसपोर्ट, मैन्युफैक्चरिंग आदि, उनमें जो रोजगार का सृजन हुआ है वो उपलब्ध है.

तीसरा जो रजिस्टर्ड संस्थान हैं, उनमें जो रोजगार है वो पीएफओ रजिस्ट्रेशन से पता चलता है, उससे भी पता चल रहा है कि देश में लगातार प्रोविडेंट फंड में रजिस्ट्रेशन बढ़ रहा है.

राज्यसभा (Rajyasabha) में ये सवाल पूछा था आम आदमी पार्टी सांसद अशोक कुमार मित्तल ने. जवाब दिया श्रम और रोजगार मंत्री भूपेंद्र यादव ने.

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अभी-अभी संसद का जो शीत सत्र खत्म हुआ है, उसमें एक सिलसिला नजर आया. विपक्ष ने किसी मसले पर जानकारी मांगी तो ऐसे गोलमोल जवाब दिए गए कि सिर चकरा जाए.

सवाल सीधा था. आठ साल में कितने लोगों को रोजगार दिए. जवाब मिला कि बेरोजगारी दर कितनी है. और मौजूदा साल का डेटा भी नहीं दिया गया, क्योंकि 2022 का डेटा परेशान करने वाला है. CMIE के मुताबिक 2022 में जुलाई और सितंबर के अलावा हर महीने बेरोजगारी दर 7 या 8 फीसदी से ऊपर रही.

इसके आगे महिलाओं की बढ़ती बेरोजगारी पर भी सवाल पूछा गया, फिर वही गोलमोल जवाब कि बहुत कुछ किया जा रहा है.

मनरेगा पर सवाल देखिए और जवाब देखिए

राज्यसभा में 21 दिसंबर को गुजरात से बीजेपी सांसद दिनेश अनावाड़िया ने सवाल पूछा - मनरेगा के तहत देश भर में कितने मजदूरों के रजिस्ट्रेशन हुए है और गुजरात का जिलावार ब्यौरा क्या है?

जवाब में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री साध्वनी निरंजन ज्योति ने कहा-

राष्ट्रीय स्तर पर 2006 से 2014 तक 1660 करोड़ श्रमिक दिवसों का सृजन किया गया था. 2014 से अभी तक मैं कह सकती हूं कि हमलोगों ने बहुत बढ़ोतरी की है. 2006 से 2014 तक मनरेगा के लिए 2.13 लाख करोड़ राशि जारी की गई जबकि 2014 से अब तक 5.79 लाख करोड़ रुपए गए हैं.

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मूल सवाल ये है कि कितने लोगों को मनरेगा के तहत काम मिल रहा है? लेकिन जवाब अतरंगी. अतरंगी इसलिए क्योंकि ये किसी से छिपी बात नहीं है कि मनरेगा का बजट साल दर साल घटा है.

वित्त वर्ष 2022-23 के लिए इस योजना को महज 73,000 करोड़ रुपये दिए गए हैं. पिछले साल भी 73000 करोड़ का बजट था हालांकि बाद में जब ग्रामीण इलाकों में काम की ज्यादा मांग हुई तो इसे बढ़ाकर 98,000 करोड़ किया गया. इस तरह से मौजूदा साल में एक बार फिर बजट दिया गया है. जबकि कोविड के कारण गांव में काम की मांग बनी हुई है. खैर ये तो हुई कागजी बात. अब सुनिए असल बात. असल बात ये है कि कई एक्सपर्ट कहते हैं कि इस योजना में जो 100 दिन की रोजगार गारंटी की बात है, उसे सुनिश्चित करने के लिए 2.64 लाख करोड़ की जरूरत है. कोई ताज्जुब नहीं कि 100 दिन की गारंटी के बावजूद कोई भी राज्य 100 दिन रोजगार नहीं दे पा रहा. ग्रामीण विकास मंत्रालय के डेटा मुताबिक वित्त वर्ष 2021-22 में देश में इस योजना के औसतन 50.03 दिन ही रोजगार दिया जा सका. द फेडरल से बात करते हुए नरेगा संघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ता देबमाल्य नंदी कहते हैं कि चूंकि फंड की कमी है, लिहाजा प्रशासन जानबूझकर काम की मांग को दबाता है. वो कहते हैं कि मौजूदा 73,000 करोड़ के आबंटन से सिर्फ 30 दिन रोजगार की गारंटी दी जा सकती है. इसमें से भी काफी पैसा पिछले साल के बकाया भुगतान में चला जाता है.

इन तमाम तकनीकी बातों में ना उलझिए. एक सीधा सा सवाल है. अगर गांव में रोजगार होता तो लोग शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर क्यों होते? हमने देखा कि कोविड लॉकडाउन के कारण लाख मुसीबतें उठाकर मजदूर पैदल ही अपने गांव जाने को मजबूर हुए. लेकिन जैसे ही लॉकडाउन खुला, वो फिर उसी दुरूह शहर की ओर चल पड़े. वजह क्या थी? वजह ये थी कि गांव में दो वक्त की रोटी के लायक भी रोजगार न था.
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कॉरपोरेट कर्ज

औरंगाबाद से AIMIM सांसद सैयद इम्तियाज अली ने लोकसभा में पूछा कि सरकार बता रही है कि उसने चार साल में 8.48 लाख करोड़ रुपये कॉरपोरेट का कर्ज माफ किया है लेकिन ये नहीं बता रही है कि किन कंपनियों का माफ किया. बकौल इम्तियाज सरकार ने लिखित जवाब दिया है कि आरबीआई को ये बताने की इजाजत नहीं है.

संसद के शीतकालीन सत्र का एक बड़ा हिस्सा इसलिए बर्बाद हो गया क्योंकि विपक्ष अरुणाचल में चीन की कथित घुसपैठ पर चर्चा चाहता था, कुछ जानकारियां चाहता था और सरकार बताने को राजी नहीं थी.

आखिरी दिन तक सदन में इस पर हंगामा चलता रहा, लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई. दलील थी कि देश की सुरक्षा का मसला है. लेकिन जितना बता सकते हैं, उतना तो बता ही सकते हैं, ऐसा क्यों कि कोई चर्चा ही न हो. तमाम सवालों के जवाब में रक्षा मंत्री ने सिर्फ इतना कि चीनी सैनिकों ने सीमा लांघने की कोशिश की जिसे भारतीय सेना ने बहादुरी से रोक दिया. कहा कि हमारी सेनाएं हमारी अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिबद्ध है. सेना की प्रतिबद्धता पर किसी को शक नहीं लेकिन इस बयान में डिटेलिंग नहीं थी.

इकनॉमी

बजट अनुपूरक मांग पर चर्चा के दौरान पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि 1991 से 2014 के बीच हर दस-बारह साल में देश की रियल जीडीपी दोगुनी हो गई. क्या सरकार बता सकती है कि मोदी सरकार के दस साल में यानी 2024 में देश की रियल जीडीपी दोगुनी हो जाएगी? सरकार ने इसका कोई साफ जवाब नहीं दिया.

वित्त मंत्री ने कहा कि आपको मोदी सरकार के आखिरी पांच साल में कोविड को भी ध्यान में रखना होगा. लेकिन इस सबके बावजूद हम जीडीपी को दोगुना करने के करीब होंगे. उनके जवाब में वो भरोसा नहीं दिखा.

चिदंबरम ने ये भी सवाल उठाया कि ग्रोथ के चार इंजन (सरकारी खर्च, निजी खपत, निजी निवेश, और निर्यात) में से सरकारी खर्च को छोड़कर बाकी तीन इंजन धीमे हैं, तो क्यों? सरकार के पास इसका कोई क्लीयर जवाब नहीं आया. चिदंबरम ने ये भी पूछा कि पूरी दुनिया मंदी को ताक रही है, ऐसे में सरकार की क्या तैयारी है. एक बार फिर से साफ जवाब नहीं.

आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा ने कहा कि सरकार अतिरिक्त पैसा मांगने के लिए सदन में आई है तो सरकार को ये भी बताना चाहिए कि बजट में मंजूर 40 लाख करोड़ रुपये खर्च करके सरकार ने क्या पाया, क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिति तो अच्छी नहीं है.

चिदंबरम और चड्ढा के सवालों के जवाब में वित्त मंत्री ने कहा कि तमाम इंटरनेशनल एजेंसियां बता रही हैं कि मंदी के दौर में भारत की एकमात्र चमकता तारा है और पूरी दुनिया की इकनॉमी के लिए उम्मीद की किरण है.
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दिक्कत ये है कि आंकड़ों की बाजीगिरी से जिंदगी का जुआ नहीं जीता जा सकता. मूल सवाल बेहद सरल हैं. उनके जवाब हैं तो सरल हैं या नहीं हैं.

जैसे कि सब 'चंगा सी' है तो

  • रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी क्यों है?

  • क्यों मेक इन इंडिया, PLI जैसी योजनाओं के बावजूद निर्यात बढ़ नहीं रहा?

  • क्यों सरकार पर रिकॉर्डतोड़ कर्ज है?

  • क्यों महंगाई की मार से हर वर्ग की कमर टूट रही है?

  • क्यों आत्महत्या के कारण किसानों की मौतें रुक नहीं रही हैं?

ये माना कि कोविड है, ये माना कि रूस-यूक्रेन युद्ध है तो ग्रोथ पर असर पड़ेगा. तो ये कहिए ना. ये ना कहिए कि गजब की तरक्की हो रही है.

जब दस साल में अपूर्व विकास हुआ है तो फिर क्यों सरकार को मुफ्त राशन की योजना की मियाद बार-बार बढ़ानी पड़ रही है? और अब तो PMJKAY (पीएम गरीब कल्याण योजना) को NFSA (नेशनल फूड सेफ्टी एक्ट 2013) में मर्ज कर दिया गया है. यानी कि अब 81 करोड़ लोगों को अगले एक साल तक 35 किलो अनाज मुफ्त मिलेगा. आखिर क्यों 9 साल में 'अभूतपूर्व' विकास हुआ है तो पूर्व में चल रही मुफ्त योजनाओं पर ही पब्लिक निर्भर है. 81 करोड़ की आबादी कितनी है, इसे रुककर सोचिएगा तो समझिएगा कि ये आधी से ज्यादा आबादी है. अगर सरकार ऐसा मानती है कि हमारी आधी से ज्यादा आबादी दो वक्त की रोटी जुटाने लायक भी नहीं कमा रही तो कैसे तरक्की?

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