Parliament Mass Suspensions: पिछले हफ्ते, भारत ने लोकसभा में तीन मूलभूत कानूनी सिद्धांतों को निर्विरोध रूप से बदलते हुए देखा, जिनके स्थान पर ऐसे वर्जन लाए गए, जो संभावित रूप से भारत के सामाजिक-कानूनी ढांचे को बदल सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि नए कानूनों पर बहस तब हुई, जब 143 सांसद सदनों से निलंबित रहे, जो भारत के संसदीय इतिहास में एक अभूतपूर्व संख्या थी.
इसके अलावा दिलचस्प बात यह रही कि निलंबित किए गए सभी सांसद विपक्ष के थे, इस प्रकार नए विधेयकों पर सत्तारूढ़ दल द्वारा, पक्ष और विपक्ष में बहस कराने का समय काफी कम हो गया. हालांकि, बेईमानी के शोर को कम नहीं किया जा सकता है, लेकिन विपक्षी सदस्य भी सीधे-सादे नहीं हैं.
पूरी तरह से न्यायोचित मांग करते समय आक्रामक हाव-भाव और अनुचित भाषा का सहारा लेने से न केवल उन्हें शेष सत्र के लिए अपनी सीटें गंवानी पड़ीं, बल्कि देश पर तीन एकतरफा थोपे गए कानूनों का बोझ भी पड़ा.
क्या अनियंत्रित व्यवहार निलंबन का एकमात्र आधार हो सकता है?
सांसदों से अपेक्षा की जाती है कि वे मर्यादा बनाए रखें और हर वक्त सदन की गरिमा बनाए रखें. आचरण और संसदीय शिष्टाचार के नियम विशिष्ट रूप से निर्धारित हैं, जो बताते हैं कि नियम के विरुद्ध व्यवहार क्या है और उनके संभावित प्रभाव क्या हो सकते हैं?
जाहिर है, वे ऐसी किसी भी चूक के लिए जांच और दंड से अछूते नहीं हैं. इसलिए, वास्तव में अनियंत्रित व्यवहार को सजा का आधार माना जा सकता है. हालांकि, निलंबन जैसी सजा का सहारा लेने से पहले उनकी अमर्यादित व्यवहार पर ध्यान देना जरूरी है.
लोकसभा में रूल्स और कार्य संचालन के नियम किसी सदस्य को निलंबित करने के आधार और प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं. वे हैं-
नियम 373 स्पीकर को अधिकार देता है कि वो सदन में घोर अव्यवस्था के कारण आवश्यक समझे जाने पर किसी सदस्य को किसी विशेष दिन की कार्यवाही से हटाने का अधिकार देता है.
नियम 374 स्पीकर को एक निश्चित सदस्य का नाम देने का अधिकार देता है, जो लगातार या जानबूझकर सदन में बाधा डाल रहा है या अध्यक्ष के अधिकार की अवहेलना कर रहा है और ऐसे सदस्य के निलंबन के लिए प्रस्ताव शुरू कर सकता है.
नियम 374ए में कहा गया है कि गंभीर अव्यवस्था की स्थिति में स्पीकर द्वारा किसी सदस्य का नाम लेने पर सदस्य की सदस्यता खुद निलंबित हो जाएगी. यदि यह निलंबन समाप्त किया जा सकता है, अगर सदन अंततः इसको लेकर प्रस्ताव पास करता है.
इसी प्रकार, राज्यसभा में, राज्य सभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम 256 में कहा गया है कि स्पीकर ऐसे सदस्य के निलंबन के लिए नाम और प्रस्ताव ला सकता है, जो लगातार या जानबूझकर सदन की कार्यवाही में बाधा डालता है या उपेक्षा करता है.
वर्तमान संदर्भ में, शिष्टाचार का उल्लंघन और सदन के आदेश में बाधा डालना निर्विवाद है, लेकिन इतने लोगों को सजा के आदेश पर सवाल उठते हैं.
डेरेक ओ'ब्रायन का निलंबन भले ही खराब सवालों के कारण हुआ, जबकि कल्याण बनर्जी, ए राजा और अन्य जैसे नेताओं को सदन के भीतर नारेबाजी के लिए निलंबित कर दिया गया. अलग-अलग तरह के नियमों के उल्लंघन के लिए व्यापक सजा से फायदे की बजाय नुकसान अधिक होता है. इसके अलावा इतनी भारी संख्या में निलंबन संभवतः अनुचित है.
निलंबित सांसद अब क्या कर सकते हैं?
फिलहाल, सांसदों के पास निलंबन के आदेश का पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. सांसदों का निलंबन एक संसदीय कार्यवाही है, जिसे दुर्भाग्य से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 122 के अनुसार न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखा गया है. ऐसे में, कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर सकता और सदन के फैसले को पलट नहीं सकता.
हालांकि, किहोटो होलोहन बनाम जचिल्हू, (1992) केस में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो कार्यवाही सदस्यों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित करती है, उसे न्यायिक अवलोकन के अधीन किया जा सकता है. इसके अलावा, जबकि अदालतें यह कहती रही हैं कि प्रक्रियात्मक अनियमितता को अदालत के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती, अवैधता के किसी भी उदाहरण को चुनौती दी जा सकती है.
इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि निलंबन आदेश को चुनौती देने वाली सामूहिक याचिका अदालत के समक्ष टिक नहीं पाएगी. हालांकि, व्यक्तिगत तौर पर सदस्य निलंबन आदेश के माध्यम से अपने मौलिक अधिकार के उल्लंघन का हवाला देते हुए हाई कोर्ट का रुख कर सकते हैं.
इसके अलावा, मौजूदा सदस्य एक या दूसरे सदस्यों के निलंबन को समाप्त करने के लिए प्रस्ताव उठा सकते हैं और यदि सदन पक्ष में मतदान करता है, तो संबंधित सदस्यों को सदन में बहाल किया जाएगा.
दुर्भाग्य से, वर्तमान परिदृश्य में राजनीतिक गेमप्ले की मजबूत स्थिति ऐसी रूलबुक स्थितियों की संभावना को बेहद कम कर देती हैं.
क्या संसद 'विपक्ष मुक्त' चल सकती है?
सत्ताधारी दल को वर्तमान में दोनों सदनों में रिकॉर्ड बहुमत प्राप्त है, इसलिए सत्र के निकट भविष्य में विपक्ष के एक बड़े हिस्से के निलंबन के बाद भी, नियमित कार्यवाही में कोई रुकावट नहीं आएगी. इस प्रकार विधेयकों को पेश जा सकता है और उन पर मतदान किया जा सकता है और फिर भी वे अपेक्षित कोरम को पूरा कर सकते हैं. यहां असली सवाल यह है कि ये कानून कितने लोकतांत्रिक होंगे?
जब विपक्ष चुप्पी साध लेता है और सत्तारूढ़ दल संसद के सदनों में अपने हिसाब से सिस्टम बनाना चाहे, तो क्या पारित किए जा रहे कानून वास्तव में लोकतांत्रिक भावना को समाहित करते हैं? समानांतर रूप से, विपक्ष को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या उनका विरोध प्रदर्शन वास्तव में वैधानिक निर्णयों का विरोध और प्रतिकार करने का तरीका है.
(यशस्विनी बसु बेंगलुरु स्थित वकील हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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