प्रधानमंत्री उम्मीदवार या मुख्यमंत्री उम्मीदवार जैसी सोच भारतीय लोकतंत्र का पोषक तत्व नहीं है, बल्कि यह सोच लोकतंत्र पर परजीवी बनकर उभरी है. क्या आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न हो, तो चुनाव निरर्थक हो जाता है? या संसदीय लोकतंत्र पर कोई आंच आती है?
यही सवाल सीएम उम्मीदवार के संदर्भ में भी है. सच ये है कि प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करते ही लोकतंत्र के कई नैसर्गिक गुणों का हम गला घोंट देते हैं.
प्रधानमंत्री उम्मीदवार से लोकतंत्र का स्वास्थ्य क्यों बिगड़ता है उस पर गौर करें.
अप्रासंगिक हो जाते हैं घोषणा पत्र
पीएम उम्मीदवार की घोषणा के सिस्टम से घोषणापत्र अप्रासंगिक हो जाते हैं. सच ये है कि चूंकि राजनीतिक दलों के घोषणापत्र अप्रासंगिक हुए हैं, इसलिए पीएम उम्मीदवार की आवाज बुलन्द हुई है.
मुद्दों से दूर हो जाती है राजनीति
प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय होते ही मुद्दों से दूर हो जाती है राजनीति. पीएम उम्मीदवार के रूप में नेता ही मुद्दा हो जाता है. जिस मुद्दे के आधार पर उस नेता का नेतृत्व निखरा हुआ होता है, वहीं तक मुद्दे सिमट जाते हैं. प्रतीक बन जाते हैं मुद्दे.
विकसित होती है आइकॉनिक राजनीति
पीएम उम्मीदवार आइकॉनिक बन जाता है. इस आइकॉनिक राजनीति में राजनीतिक दल का आंतरिक लोकतंत्र खो जाता है. राजनीतिक दलों में तानाशाही का जन्म होने लगता है.
दबने लगती है विरोध की आवाज
व्यक्ति के गिर्द घूमने लगती है राजनीति. चूंकि भारत जैसे बहुसंस्कृति, बहुधार्मिक देश में एक व्यक्ति सबका प्रतिनिधित्व करे, यह सम्भव नहीं है, इसलिए विरोध की आवाज दबाने की प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती है.
संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध है परम्परा
भारतीय लोकतंत्र में जनता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं चुनती. वह सांसद या विधायक यानी जनप्रतिनिधि चुनती है. पीएम उम्मीदवार तय करना इस नैसर्गिक संसदीय परम्परा के खिलाफ है.
खतरे में पड़ जाता है निर्दलीयों का अस्तित्व
पीएम उम्मीदवार तय करने से निर्दलीय चुनाव लड़ने की परम्परा भी हतोत्साहित होती है. दलीय सम्बद्धता से तटस्थ रहने का अधिकार जहां खतरे में पड़ जाता है, वहीं एक व्यक्ति के समर्थन या विरोध के आधार पर बंटने की स्थिति बन जाती है.
खारिज हो जाती है राष्ट्रीय सरकार की सोच
पीएम उम्मीदवार तय करने की सोच राष्ट्रीय सरकार के विरुद्ध है. देश में अभी तक राष्ट्रीय सरकार का प्रयोग नहीं हुआ है. मगर गठबंधन सरकारों की असफलता के बाद इस प्रयोग के आजमाने की स्थिति कभी भी पैदा हो सकती है. राष्ट्रीय सरकार एक ऐसी सरकार होती है, जिसमें सदन में क्षमता के हिसाब से सरकार में भागीदारी होती है. उस स्थिति में यह बेहतर विकल्प हो सकता है, जब चुनाव बाद गठबंधन सम्भव न रह जाए और किसी दल के पास बहुमत न हो.
खत्म हो जाती है एक चाय वाले के पीएम बनने की सम्भावना
भारतीय लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है. मगर एक चायवाला प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है अगर चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करने को अनिवार्य बना दिया जाए?
प्रधानमंत्री उम्मीदवार ताकतवर राजनीतिक दलों को उपयुक्त लगती है. कभी यह कांग्रेस के लिए उपयुक्त थी. आज यह भारतीय जनता पार्टी को भा रही है. मगर बीजेपी यह भूल रही है कि तयशुदा प्रधानमंत्री उम्मीदवार जो एकदलीय शासन व्यवस्था का आधार बन जाता है, उससे देश को निजात दिलाने के लिए गैर-कांग्रेसवाद की कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी गयी है.
राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के साथ-साथ खुद जनसंघ ने भी यह लड़ाई लड़ी है. दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी इस लड़ाई के भागीदार रहे हैं.
चुनाव से पहले प्रधानमंत्री उम्मीदवार देने के औचित्य को हम विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने या नहीं बनाने और उसके नतीजो के आईने में भी परख सकते हैं :
जब महागठबंधन में छोटी रह गयी सीएम उम्मीदवार की पार्टी
पहला उदाहरण बिहार से. 2015 में महागठबंधन का चेहरा थे नीतीश कुमार यानी मुख्यमंत्री उम्मीदवार. मगर जब चुनाव नतीजे आए, तो महागठबंधन में सबसे ताकतवर बनकर उभरा राष्ट्रीय जनता दल. महागठबंधन का सीएम उम्मीदवार के साथ चुनाव लड़ना लोकतंत्र पर भारी पड़ गया, जनादेश पर भारी पड़ गया. बिहार में तब एनडीए ने सीएम उम्मीदवार के तौर पर कोई चेहरा नहीं दिया था.
हिमाचल में सीएम उम्मीदवार ही हार गया चुनाव
दूसरा उदाहरण है हिमाचल प्रदेश का, जहां बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था. जब चुनाव नतीजे आए, तो बीजेपी ने 68 विधानसभा सीटों में 44 पर जीत दर्ज की, मगर जनता ने बीजेपी के सीएम उम्मीदवार को ही ठुकरा दिया. धूमल चुनाव नहीं जीत सके. हिमाचल की जनता ने सीएम उम्मीदवार के कॉन्सेप्ट को गलत साबित कर दिखाया.
कर्नाटक में दोनों सीएम उम्मीदवार पीछे रह गये, सीएम बने कुमारस्वामी
कर्नाटक में साफ तौर पर दो सीएम उम्मीदवार थे- कांग्रेस के सिद्धारमैया और बीजेपी के वीएस येदियुरप्पा. मतदाताओं ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिखाया और बीजेपी को सत्ता के दरवाजे पर ला खड़ा किया, मगर सीएम उम्मीदवारों में से किसी एक पर मुहर नहीं लगायी.
जनादेश गठबंधन की सरकार का था. हालांकि लोकतंत्र का चीरहरण करने की कोशिश भी सामने आई. वीएस येदियुरप्पा भी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले बैठे.
मगर चौकस सुप्रीम कोर्ट ने जनादेश का और इस तरह लोकतंत्र का मान रखने में अपनी भूमिका निभाई. जनता दल सेक्युलर के एचडी कुमारस्वामी चुनाव बाद गठबंधन के नेता के तौर पर उभरे और बहुमत का नेता बनकर सीएम बने.
एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान में हार गये सभी सीएम उम्मीदवार
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ताधारी दल के तीनों घोषित सीएम उम्मीदवारों को मतदाताओं ने मौका नहीं दिया. कांग्रेस को मौका मिला, जिसकी ओर से तीनों राज्यों में कहीं भी सीएम उम्मीदवार तय नहीं किए गये थे.
कहने का मतलब ये कि मतदाताओं ने राजनीतिक दल को अपनी पसंद बनाया, न कि किसी सीएम उम्मीदवार को. इन चुनावों में भी लोकतंत्र में सीएम उम्मीदवारों को थोपा जाना जनता ने पसंद नहीं किया.
इन उदाहरणों से साफ है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री उम्मीदवार तय भी कर दिया जाए, तो उनकी परीक्षा मतदाता ही लेंगे. मगर चुनाव लड़े बगैर जीतने और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री देने का विश्वास लोकतंत्र के स्वभाव के विपरीत है. आप 2014 के लोकसभा चुनाव में इन आंकड़ों पर गौर करें:
- बीएसपी ने देश में सबसे ज्यादा 503 सीटों पर चुनाव लड़ा और वह एक भी सीट नहीं जीत सकी.
- कांग्रेस ने 464 सीटों पर चुनाव लड़कर महज 44 सीटों पर जीत हासिल की.
- आम आदमी पार्टी ने 432 सीटों पर चुनाव लड़ा, 5 सीटों पर सफलता हासिल की.
अगर इन दलों ने पीएम उम्मीदवार दिया होता, तो भी संसदीय लोकतंत्र को या मतदाताओं को या फिर खुद इन दलों को ही हासिल क्या होता? 2014 के आम चुनाव में ही 7 राष्ट्रीय और 34 क्षेत्रीय राजनीतिक दल समेत 363 पंजीकृत या अपंजीकृत दलों ने चुनाव लड़े. निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भी 364 रही. लोकतंत्र का यही नजारा पीएम उम्मीदवार की अनिवार्यता थोपे जाने से खत्म हो जाएगी.
पीएम उम्मीदवार के पैरोकार इसे चुनावी लोकतंत्र की सचाई बना देने पर तुले हैं. वे मान बैठे हैं कि बगैर उम्मीदवार घोषित हुए किसी का प्रधानमंत्री बनना लोकतंत्र में जायज नहीं है. ऐसी सोच के लोग देश के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, इंद्र कुमार गुजराल, एचडी देवगौड़ा, चंद्रशेखर जैसे उदाहरणों को जाने-अनजाने लोकतंत्र की खराब सेहत का उदाहरण मानने की गलती कर बैठते हैं.
ऐसे लोगों को वीपी सिंह और मनमोहन सिंह तक के प्रधानमंत्री बनने पर आपत्ति है. दरअसल प्रधानमंत्री उम्मीदवार की सोच के केन्द्र बिन्दु में ही यह बात है कि पीएम-सीएम उम्मीदवार के बिना चुनाव लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है, इससे लोकतंत्र बर्बाद हो जाता है. मगर इस मसले की सैद्धांतिक और व्यावहारिक विवेचना यह साबित करती है कि यह सोच बहुत खतरनाक है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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