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UP से लेकर छत्तीसगढ़ तक BJP क्यों काट रही मौजूदा सांसदों के टिकट? 

आखिर ऐसी क्या वजह है कि चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक पार्टियां ले रही ऐसा फैसला

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चुनावी मौसम में तीन बातें सिर चढ़कर बोलती हैं. पहला, किसका-किससे-कैसा और क्यों गठबंधन या तालमेल हो रहा है? दूसरा, कौन-किसको-कहां से उम्मीदवार बना रहा है? तीसरा, चुनाव में कौन-किस मुद्दे को हवा दे रहा है और उसका कैसा असर है? बीते छह महीने से जारी गठजोड़ की कोशिशों के किनारे लगने के बाद अभी दौर टिकट मिलने और कटने का है.

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इस दौर को मरीज की नाड़ी यानी पल्स के व्यवहार की तरह देखा जा सकता है. जिस तरह से भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में नाड़ी परीक्षण से मरीज का हाल बता देने की परंपरा है, उसी तरह से चुनावी मौसम में नेताओं के टिकट काटे जाने की भी बहुत ही सहज व्याख्या की जा सकती है.

कैसे तय होती है उम्मीदवारी?

टिकट बांटते वक्त सभी पार्टियों की नजर अर्जुन की तरह सिर्फ मछली की आंख पर रहती है. इस आंख को ‘विनिबिलिटी फैक्टर’ या ‘जीत के आसार’ कहते हैं. इसे चुनाव की आत्मा भी माना जाता है. इसकी संरचना किसी डिश यानी व्यंजन की तरह होती है. जैसे डिश के निर्माण में तरह-तरह के मसालों, उनकी मात्रा और पाक-कौशल की अहमियत होती है, उसी तरह से उम्मीदवार की जात-धर्म, निजी छवि, पार्टी का जनाधार, निर्वाचन क्षेत्र की विशेषताएं, मुद्दे, प्रचार का तरीका जैसी कई बातों पर बारीकी से गौर किया जाता है.

सभी पार्टियां ऐसा करती हैं. इसके लिए आंतरिक सर्वेक्षण करवाती हैं. कार्यकर्ताओं की राय बटोरती हैं. लेकिन तमाम कवायद के बाद अंतिम फैसला ‘विनिबिलिटी फैक्टर’ के आधार पर ही लिया जाता है.

कब कटता है टिकट?

चुनाव के वक्त जब नेताओं को ये साफ दिख रहा होता है कि उनकी पार्टी और उम्मीदवार की हालत पतली है तो वो अपनी जीत के आसार को बढ़ाने के लिए जहां गठबंधन करते हैं, वहीं अपने मौजूदा सांसदों-विधायकों के टिकट भी काटते हैं. ऐसा तभी होता है जब नेताओं को साफ दिख रहा होता है कि उनके मौजूदा सांसद या मंत्री का हारना निश्चित है.

अब उनके पास दो रास्ते होते हैं. एक तो ये कि वो हार रहे नेता के रौब और रसूख से डरते हैं और उसका टिकट काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. दूसरा ये कि पार्टी-हित में जीते हुए नेता का टिकट काटकर नए उम्मीदवार पर दांव लगाते हैं.

इस तरह, टिकट काटकर पार्टियां ये स्वीकार करती हैं कि उनकी और उनके जीते हुए नेता की चुनाव में मिट्टी पलीद होना तय है. लिहाजा, डैमेज कंट्रोल या नुकसान की भरपाई के अंतिम उपाय के रूप में ‘टिकट काटने’ के ब्रह्मास्त्र को आजमाया जाता है.

जैसे सर्जन किसी बुरी तरह से क्षत-विक्षत व्यक्ति के हाथ-पैर की क़ुर्बानी देकर यानी एम्प्युटेशन करके उसे जिंदा बचाने का फैसला लेता है, वैसे ही जीते हुए नेता का टिकट काटकर पार्टियां जनता से जीवनदान मांगती हैं.

ज्यादातर मामलों में जनता का दिल नहीं पसीजता है. क्योंकि चुनाव से खासा पहले ही जनता अपनी ये राय बना लेती है कि इस बार उसे तो हराना ही है, जिसे पिछली बार जिताया था. इसीलिए टिकट काटने का ब्रह्मास्त्र भी यदा-कदा ही लोकप्रियता गंवा चुकी पार्टी और उसके उम्मीदवार की लुटिया को डूबने से बचा पाता है. ज्यादातर मामले में देखा गया है कि टिकट काटने से भी हार नहीं टलती.

टिकट काटने से किसका होता है नुकसान

टिकट काटने का असली असर उस पार्टी पर होता है जो अपनी सत्ता को बचाने के लिए चुनाव में उतरती है. क्योंकि यदि पार्टियां अपने उन उम्मीदवारों को बदलती हैं जो पिछली बार चुनाव हारे थे, तो इसका मतलब ये है कि वो नया विकल्प आजमा रही हैं. लेकिन जब सत्ता पक्ष अपने उम्मीदवार का टिकट काटता है तो उसे साफ दिखता है कि ‘विनिबिलिटी फैक्टर’ उसके हाथ से निकल चुका है.

वर्ना, जिन उम्मीदवारों को लेकर पार्टियों को जीत का इत्मिनान होता है कि उनके मामले में तो वो उसके आपराधिक कारनामों या अन्य अनैतिक अतीत की भी परवाह नहीं करतीं. यही वजह है कि राजनीति के अपराधीकरण पर भी ‘विनिबिलिटी फ़ैक्टर’ हमेशा हावी रहता है.

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राजनीति के सहज-सामान्य नियमों से जुड़ी उपरोक्त बातों का असर हरेक पार्टी पर रहता है. अब सवाल ये है कि 2019 के चुनाव में बीजेपी को बड़े पैमाने पर अपने सांसदों के टिकट काटने का फैसला क्यों लेना पड़ रहा है? इसके क्या मायने हैं? इसे समझने के लिए अतीत में झांकना जरूरी है.

2014 में ऐतिहासिक कामयाबी हासिल करने के लिए बीजेपी ने कई राज्यों में अपना परचम लहराया. लेकिन आगामी सालों में उसकी जीत का उन्माद उन राज्यों में ही ठंडा पड़ता चला गया जिन्हें वो अपना गढ़ मानती थी. मिसाल के तौर पर गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान. पंजाब में भी सत्ता परिवर्तन हुआ, हालांकि वहां सहयोगी अकाली दल के मुकाबले बीजेपी की ताक़त हमेशा बहुत मामूली ही रही है. गोवा, बिहार, अरूणाचल और मेघालय में बीजेपी ने सत्ता को शर्मनाक हठकंडों से हथियाया. कर्नाटक में भी बीजेपी ने सत्ता हथियाने के लिए सारे धत-करम किए और अपनी छीछालेदर ही करवाई.

बीजेपी ने क्यों लिया है टिकट काटने का फैसला

आखिर ऐसा क्यों हुआ? यदि मोदी सरकार की नोटबंदी, जीएसटी, आर्थिक नीतियां, किसानों से जुड़ी नीतियां, बेरोजगारी से जुड़ी नीतियां, युवाओं से जुड़ी नीतियां, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक सदभाव, श्रेष्ठ राजनीतिक आचरण, काला धन वापस लाने, लोकतांत्रिक संस्थाओं को सशक्त बनाने, सेना में गर्व का संचार करने, आतंकवाद को उखाड़ फेंकने, 15-15 लाख सबके खातों में पहुंचाने जैसे वादों को जनता ने सही माना होता तो आज बीजेपी की लोकप्रियता सातवें आसमान पर क्यों नहीं होती? क्यों संघ को ज़मीन स्तर से ये जानकारियां मिलती हैं कि बीजेपी की हालत बहुत खराब है? इतनी खराब है कि 2019 में सिर्फ उसकी जीत का फासला यानी ‘विनिंग मार्जिन’ ही कम नहीं होता बल्कि वो बड़े पैमाने पर अपनी जीती हुई सीटें हार जाएगी.

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ये महज इत्तेफाक नहीं है कि संघ-बीजेपी को ये हार उन्हीं राज्यों में सबसे अधिक दिखाई दे रही है, जहां से उसके दिल्ली के तख्त तक पहुंचने का रास्ता बना था. हालात इतने खराब हैं कि बीजेपी ने बिहार में गठबंधन के उस दल यानी जेडीयू की खातिर अपनी कब्र खोद ली, जिसे 2014 में उसने मात्र 2 सीटों पर पहुंचा दिया था.

2014 में भी नीतीश मुख्यमंत्री थे. लेकिन दो सीट पर सिमट गए. उनका ये हाल करने वाली बीजेपी 22 सीट जीतने के बावजूद 2019 में बगैर चुनाव लड़े 17 सीटों पर क्यों सिमट गई? क्या ये बगैर लड़े ही हार मानना नहीं है? बिहार की तरह ही महाराष्ट्र में बीजेपी ने उस शिवसेना के आगे घुटने क्यों टेके, जिसने डंके की चोट पर अपने अखबार ‘सामना’ में लिखा कि ‘चौकीदार चोर है!’ अब कौन चोर-चोर मौसेरे भाई हैं, ये तो महाराष्ट्र की जनता तय करेगी? लेकिन इतना तो कोई भी समझ सकता है कि लड़ाई में आत्म-समर्पण कौन करता है? विजयी या पराजित?

यूपी में बीजेपी सबसे मजबूत तो क्यों काट रही है टिकट

उत्तर प्रदेश में बीजेपी सबसे बड़े पैमाने पर अपने जीते हुए सांसदों का टिकट काटने को क्यों मजबूर है? एसपी-बीएसपी और आरएलडी जैसे महा-मिलावटियों के महज साथ आने से बीजेपी की हवा क्यों खिसकी हुई है? वहां तो उसके सबसे प्रतापी मुख्यमंत्री की प्रचंड बहुमत वाली सरकार है! वहीं से उसके सबसे प्रतिभाशाली और नेक-नीयत प्रधानमंत्री, गृहमंत्री समेत दर्जन भर मंत्री, मोदी सरकार की आन-बान-शान हैं!

2014 में लोकसभा की 80 में 73 सीटें और 2017 में विधानसभा की 403 में से 325 सीटें जीतने वाली पार्टी की लोकप्रियता दो साल में इतनी क्यों गिर गई कि अब कोई कह रहा है कि बीजेपी के 25 फ़ीसदी सांसदों के टिकट कटेंगे तो कोई बता रहा है कि 40 प्रतिशत सांसदों के सिर पर टिकट कटने की तलवार लटक रही है?

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बाकि राज्यों में बीजेपी का क्या हाल है?

छत्तीसगढ़ में तो बीजेपी की हालत इतनी दयनीय है कि पार्टी ऐलान कर चुकी है कि वो 2014 में राज्य की 11 में से 10 सीटों के सभी विजेताओं का टिकट काटने वाली है. बंगाल को लेकर बीजेपी ने इतने सब्जबाग जगाए हैं, जिसकी दूसरी मिसाल शायद ही हो. लेकिन वहां की जमीनी हकीकत ये है कि खुद पश्चिम बंगाल बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कह चुके हैं कि उनके पास बढ़िया या जिताऊ अर्थात ‘विनिबिलिटी फैक्टर’ वाले उम्मीदवार नहीं हैं.

अब आप ही तय कीजिए कि जिस पार्टी ने 2014 में राज्य की 44 में से 2 सीट जीती हो और जो इस बार 42 सीटें जीतने का दावा कर रही हो, क्या उसके पास ‘विनिबिलिटी फैक्टर’ वाले उम्मीदवारों की किल्लत हो सकती है?

उड़ीसा को लेकर भी ऐसे-ऐसे दावे हैं कि विरोधियों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाए. जबकि हकीकत ये है वहां भी बीजेपी की नैया दलबदलुओं और बीजू जनता दल के बागियों के भरोसे ही है. साफ है कि 2019 का चुनाव मुख्य रूप से ‘झूठ की पोल-खोल’ पर ही केंद्रित रहेगा. जिन झूठों का टिकट पार्टी नहीं काटेगी, उनका उद्धार जनता के हाथों ही होगा.

(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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