कांग्रेस नेता पवन खेड़ा को गुरुवार, 23 फरवरी को दिल्ली से रायपुर जाने वाली एक फ्लाइट से उतरने को मजबूर करने से हाई-वोल्टेज ड्रामा शुरू हुआ. आगे उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनकी कथित अपमानजनक टिप्पणी के लिए असम पुलिस ने गिरफ्तार (Pawan Khera Arrest) भी किया. यह पूरा वाकया हास्यास्पद भी जान पड़ता अगर यह उतना ही ज्यादा परेशान करने वाला नहीं होता. पवन खेड़ा को सुप्रीम कोर्ट ने उसी दिन अंतरिम जमानत पर रिहा कर दिया.
जैसा कि पवन खेड़ा ने दावा किया है, उनकी "गलती" बस एक "जुबान फिसलने" का मामला हो सकता है. या फिर हो सकता है कि यह बिजनेस मैन गौतम अडानी के साथ कथित निकटता के लिए पीएम मोदी पर साधा गया निशाना हो.
गौतम अडानी का व्यापारिक साम्राज्य न्यूयॉर्क स्थित शॉर्ट-सेलिंग फर्म हिंडनबर्ग रिसर्च की एक रिपोर्ट के बाद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर हुआ है. हिंडनबर्ग रिसर्च ने अपनी रिपोर्ट में गौतम अडानी की कंपनियों पर गंभीर फ्रॉड का आरोप लगाया है.
वजह चाहे जो भी हो, क्या पवन खेड़ा की यह कथित "गलती" किसी राज्य के ऐसे अतिवादी और विरोधाभासी प्रतिक्रिया के लायक है?
क्या पवन खेड़ा की गिरफ्तारी लोकतंत्र को खतरे में डालती है?
पवन खेड़ा की गिरफ्तारी उनके खिलाफ असम और उत्तर प्रदेश में IPC की अलग-अलग धाराओं के तहत मामले दर्ज होने के बाद हुई है. ये धाराएं हैं- धारा 120 B (आपराधिक साजिश), 153 A, 153 B (1) (धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि के आधार पर दुश्मनी को बढ़ावा देना), 500 (मानहानि), 504 (शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान), 505 (1) और (2) (सार्वजनिक रूप से शरारती बयान).
यह विचित्र है. किस कोरी कल्पना से यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री का नाम पुकारने में गलती करना आपराधिक साजिश है? या यहां तक कि उनके नाम का मजाक बनाना धर्म, जाति, आदि के आधार पर शत्रुता को बढ़ावा देता है, या शांति भंग करने का इरादा दिखाता है?
क्या सरकार यह तथ्य भूल गयी है कि भारत एक लोकतंत्र है और इसमें नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है? क्या इसमें चुने हुए नेताओं की आलोचना करने और यहां तक कि उनका मजाक उड़ाने का अधिकार भी शामिल नहीं है?
कांग्रेस ने खेड़ा की गिरफ्तारी को भारत में ऐसे तानाशाही आने का सबूत करार दिया है, जहां सुप्रीम लीडर के किसी भी तरह के मजाक जवाब बल से दिया जाता है. तेज-तर्रार उत्साह के साथ फ्लाइट में मौजूद अन्य कांग्रेस नेता, जो रायपुर में पार्टी के महाधिवेशन के लिए जा रहे थे, एयरपोर्ट के अंदर ही धरने पर बैठ गए और गिरफ्तारी का विरोध किया.
बीजेपी की टिप्पणी या आलोचना के प्रति बढ़ती असहिष्णुता
ऐसा लगता है कि पवन खेड़ा के खिलाफ गिरफ्तारी का यह पूरा ऑपरेशन आश्चर्यजनक रूप से गलत समय पर और अनाड़ी ढंग से अंजाम दिया गया. पवन खेड़ा को गिरफ्तार करने के लिए कांग्रेस नेताओं और आम नागरिकों से भरी फ्लाइट से उतार दिया गया था. इसकी वजह से जहां कांग्रेस नेताओं ने वहीं धरना शुरू कर दिया वहीं आम नागरिक भी नाराज हुए. उनका सफर खराब हुआ क्योंकि फ्लाइट रद्द करनी पड़ी.
हालांकि, ऐसा लगता है कि केंद्र की बीजेपी सरकार और पार्टी द्वारा शासित राज्य इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि जब वे आलोचना करने वाले किसी व्यक्ति या संस्थान के खिलाफ कदम उठाते हैं तो वे कितने हठधर्मी और प्रतिशोधी दिखाई देते हैं.
खेड़ा के खिलाफ लगाए गए आरोप जाहिर तौर पर कमजोर हैं, और वे निश्चित रूप से अदालत में टिक नहीं सकते. इसलिए ऐसे तमाम कवायदों का उद्देश्य आम तौर पर देश को और विशेष रूप से बीजेपी के पकड़ वाले मूल निर्वाचन क्षेत्र को यह मैसेज देना है कि जो भी उसके शासन पर या उसके नेतृत्व पर सवाल उठाने की हिम्मत करेगा, उसके अंजाम भुगतना पड़ेगा.
इस साल जनवरी में, मोदी सरकार ने बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री 'द मोदी क्वेश्चन' पर भी बैन लगा दिया, जिसमें 2002 के दंगों में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी की कथित भूमिका की पड़ताल की गई थी. चाहे इस डॉक्यूमेंट्री में पीएम मोदी का चित्रण सही हुआ हो या नहीं, उन्हें कोर्ट ने क्लीन चीट दे दिया है और अभी भी उनकी लोकप्रियता अभूतपूर्व है. ऐसी स्थिति में भी क्या इस डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगाने की जरूरत थी?
वास्तव में, यह बैन देश के संविधान से मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक हमला था, इसने डॉक्यूमेंट्री के विषय को असहिष्णु बना दिया. इसने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को यह लिखने का मौका दिया कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है. सरकार इसे इंटरनेट प्लेटफॉर्म से हटाने का सरकारी आदेश नहीं देती तो शायद इतने बड़े स्तर पर लोग इसे देखने के लिए जागरूक नहीं होते.
राजनीतिक प्रतिशोध: पुलिसिया एक्शन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दांव पर लगा दिया है
इस महीने की शुरुआत में बीबीसी को इनकम टैक्स विभाग के सर्वे का सामना करना पड़ा. यह एक्शन डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगाने के तुरंत बाद लिया गया और इसने इस धारणा को हवा दी कि सरकार एक स्वतंत्र समाचार संगठन के खिलाफ अपना बदला ले रही है.
सच यह है कि, चाहे वह आलोचनात्मक पत्रकारिता हो या किसी विपक्षी नेता का तंज, या कोई व्यंग्य भरा गीत या स्टैंडअप कॉमेडी ही, भारत के अंदर हाल के वर्षों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बढ़ता हुआ प्रतीत होता है.
पिछले हफ्ते ही लोक गायिका नेहा राठौर, जो 'यूपी में का बा' गीतों की अपनी सीरीज के लिए प्रसिद्ध हैं, को उत्तर प्रदेश पुलिस ने कथित रूप से समाज में तनाव और दुश्मनी पैदा करने के लिए नोटिस दिया था. इसके अलावा वीर दास, कुणाल कामरा, या मुनव्वर फारूकी जैसे स्टैंडअप आर्टिस्ट को अपने शो रद्द करने के लिए मजबूर करने के कई उदाहरण हैं.
समान रूप से परेशान करने वाली बात यह है कि बीजेपी के शासन वाले राज्यों में पुलिस विरोधियों पर शिकंजा कसने के इन प्रयासों को अंजाम देने के लिए सरकारी लठैत दिख रही है.
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के शासन में असम पुलिस इस मामले में सबसे अधिक सक्रिय है. ऐसी ही पिछले साल असम पुलिस ने गुजरात से कांग्रेस नेता जिग्नेश मेवाणी की गिरफ्तारी की थी.
केंद्र की बीजेपी सरकार किसी भी आलोचना को लेकर इतनी इतनी संवेदनशील दिखकर खुद का कोई फायदा नहीं कर रही है. सार्वजनिक जीवन में, आपकी आलोचना होती है, आपसे मजाक किया जाता है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको अपने कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जाता है.
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र के विचार में निहित है. अगर सरकार इससे सहमत नहीं हो सकती है, तो उसे दुनिया में सबसे बड़े "लोकतंत्र" को चलाने के लिए देश और विदेश में अपनी पीठ थपथपाना बंद कर देना चाहिए.
(शुमा राहा एक पत्रकार और लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @ShumaRaha है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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