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ऑक्सीजन की कमी, वैक्सीन और पेगासस: तीनों पर देश को सरकार से मिला- अर्ध सत्य

अर्ध सत्य हमारे अर्ध लोकतंत्र में सरकार की धूर्त रणनीति बन गया है.

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जब मैं बीसेक साल था, तब मैंने अर्ध सत्य फिल्म (1983) देखी थी. इसे गोविंद निहलानी ने डायरेक्ट किया था और इसकी कहानी विजय तेंदुलकर ने लिखी थी. एकदम बेचैन करने वाली फिल्म थी यह. इसमें नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी और सदाशिव अमरापुरकर जैसे मंझे हुए कलाकार थे. सदाशिव अमरापुरकर इसमें एक शातिर राजनेता बने थे जो क्रूर है और बदला लेने में माहिर है. ओम पुरी की यह पहली फिल्म थी. वह एक ईमानदार पुलिसवाले बने थे जो अपने आस-पास के भ्रष्टाचार और हिंसा के आगे घुटने टेक देता है. फिल्म एक बर्बर हत्या के साथ खत्म होती है लेकिन वह "अपराध" एक अर्ध सत्य होता है. एक बुरा, लेकिन नैतिक काम जिस पर सही और गलत, दोनों की छाया है.

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फिल्म से पता चलता था कि आधा अधूरा सच एक तरह का विश्वासघात ही होता है, जोकि निरे झूठ या अटूट सच से भी ज्यादा खतरनाक है. क्योंकि आधा सच जो नफरत और क्रूरता को पनपने देता है, अस्पष्ट होता है इसीलिए ज्यादा घातक होता है. पर आप उसे समझ नहीं पाते. उसका रंग झूठ के कालेपन और सच की सफेदी से ज्यादा गाढ़ा होता है.

डेथ सर्टिफिकेट में “ऑक्सीजन की कमी” जैसा कोई कॉलम नहीं होता

मुझे अर्ध सत्य याद आ गई, जब मैंने संसद में सरकार का यह बयान सुना: “महामारी की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन की कमी से किसी की मौत नहीं हुई.” सरकार का बयान सच्चा था, पर पूरा सच नहीं था. तकनीकी रूप से सही था क्योंकि अस्पताल में हर मरीज किसी न किसी बीमारी की वजह से भर्ती है. उसे कोविड है, या कैंसर या फेफड़ों का इंफेक्शन. क्या अस्पताल में कोई ‘ऑक्सीजन लेने’ के लिए भर्ती होता है? यह कोई बीमारी तो है नहीं.

इसलिए जब किसी बेचारे इंसान की मौत ऑक्सीजन सप्लाई न मिलने की वजह से होती है तो आप यही उम्मीद करते हैं कि अस्पताल वाले डेथ सर्टिफिकेट में लिखेंगे- “कोविड या कैंसर या फेफड़ों के इन्फेक्शन से पीड़ित मरीज की इतने बजे, इतनी तारीख को मौत हुई है.” लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह एक डरावना अर्ध सत्य है. क्योंकि पिछले दिनों पूरा देश कई भयानक तस्वीरें देख चुका है.

हांफते मरीज, बेबस डॉक्टर, रोते-बिलखते रिश्तेदार, श्मशान-कब्रिस्तानों में शवों की लंबी कतारें- बदकिस्मती से यह सच्चाई, उस आधे अधूरे सच की संकरी दरारों में कहीं गुम हो गई है.

क्या डेथ सर्टिफिकेट के छोटे से कागज में “ऑक्सीजन की कमी” जैसा कॉलम होता है?

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पेगासेस के मामले में भी आधा अधूरा सच

मेरे ख्याल से यह आधे अधूरे सच का ही दौर है. क्योंकि सरकार हमें नहीं बताएगी कि वह पेगासेस की मगरूर मालिक है या नहीं? इसका जवाब सीधा सा है- हां या नहीं. लेकिन कैबिनेट मंत्री शब्दों का जाल बुनने में लगे हैं. चालाकी से सबको चकमा दे रहे हैं या आधा अधूरा सच बता रहे हैं.

आप सवाल करते हैं, “क्या आप उन सरकारों में से एक हैं जिन्होंने इजराइल से हैकिंग स्पाइवेयर खरीदा है? न्यूयॉर्क टाइम्स की उस रिपोर्ट का क्या, जिसमें एनएसओ के सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि भारत उन छह खरीदारों में से एक है? ” जवाब मिलता है, “हमने हैंकिंग नहीं की.”

"ये विदेशी ताकतें हमारी तरक्की को धूमिल करने की कोशिश कर रही हैं”, वे लोग बार-बार रटते हैं, और इस सवाल को टालते हैं कि, “अगर एक विदेशी ताकत हमारे प्रमुख मंत्रियों/राजनेताओं/अधिकारियों/पत्रकारों की जासूसी कर रही है तो भगवान के लिए, आप उस अपराधी को पकड़ने के लिए जमीन-आसमान एक क्यों नहीं करते?”

लेकिन सबसे बड़ा शिकार तो फ्रांस के राष्ट्रपति और 14 कैबिनेट मंत्री हैं. यानी भारत खास निशाना नहीं था, है ना? खैर, इस बात का जवाब दीजिए कि किसी शैतानी विदेशी ताकत को उस मामूली औरत का फोन हैक करके क्या मिलेगा, जिसने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है? वह भारत के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और रक्षा मंत्री को छोड़कर राहुल गांधी के दोस्तों के पीछे भागेगी?”

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हर बार अधूरे जवाबों की बौछार

आप फिर सवाल करते हैं, “आप दर्जन भर से ज्यादा विदेशी पब्लिकेशंस पर यह आरोप कैसे लगा सकते हैं कि उन्होंने भारत में संसद के मॉसून सत्र में रुकावट पैदा करने के लिए यह क्रोनोलॉजी बनाई है, जबकि उनके लिए इस सत्र का कोई महत्व नहीं है.” इस पर पलटवार होता है, “लेकिन एमनेस्टी ने इस बात से पहले ही इनकार कर दिया है कि यह लिस्ट सच्ची है.” एक और सवाल किया जाता है, “आप लोग इस पूरी आपराधिक साजिश का पर्दफाश करने के लिए जांच टीम क्यों नहीं बनाते, क्योंकि हैकिंग हमारे कानून में पूरी तरह से अवैध है?” इस पर सटाक से जवाब मिलता है, “कांग्रेस पार्टी हमारे बढ़ते कदमों को नाकाम करना चाहती है, उसने भारत विरोधी ताकतों से हाथ मिला लिया है.”

इन पैंतरों के आगे सवाल करने वाला हथियार डाल देता है. हर सवाल पर आधे अधूरे जवाबों की बौछार होती है. क्योंकि आधे सच की चिकनी दरारों में सब कुछ फिसल जाता है- छींटाकशी, गाली-गलौच और सारे दाग धब्बे.
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टीकाकरण का अर्ध सत्य

बदकिस्मती से भारत में टीकाकरण का ‘सत्य’ अब तक का सबसे ज्यादा तबाह करने वाला अर्ध सत्य है. पिछले साल स्वतंत्रता दिवस, यानी 15 अगस्त 2020 को देश को यह भरोसा दिलाया गया था कि हम टीकाकरण के मामले में शिखर पर हैं. फिर 140 दिन बाद हमें पता चला कि वैक्सीन की एक शीशी का ऑर्डर भी अभी पक्का नहीं हुआ है. क्योंकि टीकाकरण अभियान को शुरू होने में पंद्रह दिन हैं.

फिर हमें बताया गया कि सभी फ्रंटलाइन वर्कर्स और सीनियर सिटीजन्स जोकि करीब 300 मिलियन हैं, का टीकाकरण जुलाई 2021 तक पूरा हो जाएगा. आज हालत यह है कि एक तिहाई लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया है.

फिर यह पता चला कि हर वयस्क नागरिक को दिसंबर 2021 तक पूरी तरह से वैक्सीनेट कर दिया जाएगा. इस लक्ष्य के लिए हर रोज औसत 10 मिलियन डोज़ की जरूरत होगी लेकिन हम अभी तो हम 4 मिलियन से कम के साथ जूझ रहे हैं. आखिर में सरकार ने संसद में एक दिन में अलग-अलग जवाब दिए, और नए आधे अधूरे सच गढ़ दिए.

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एक जवाब में कोविशील्ड की एक महीने की क्षमता 110 मिलियन थी, दूसरे में जादुई तरीके से 130 मिलियन हो गई. कोवैक्सीन की मासिक क्षमता की सही आंकड़े तो बेशर्मी से बदलते गए- 25 मिलियन से 17.5 मिलियन, फिर 20 मिलियन, फिर 55 मिलियन और एक बार 80 मिलियन.

आप क्या कह सकते हैं? जब एक आधी सच्चाई में सच्चाई आधी भी न रहे- एक चौथाई हो जाए. और फिर उससे भी कम होती जाए.आपको तौलना पड़े कि इस सच में सच्चाई का अंश छंटाक भर भी बचा है या नहीं. गणित लगाइए तो इसमें सच का हिस्सा, एक बटा छह सौ पच्चीस (यानी 1/625) रह जाता है!

यानी मेरी बात सही साबित हो जाती है. अर्ध सत्य हमारे अर्ध लोकतंत्र में सरकार की धूर्त रणनीति बन गया है.

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