ADVERTISEMENTREMOVE AD

ओपिनियन: BJP राजनीतिक बवंडर में फंसी, किसानोंं में ज्यादा नाराजगी

2014 में बीजेपी को वोट देने वाले बहुत से लोग अब उससे नाराज लग रहे हैं

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

बीजेपी अचानक बड़े राजनीतिक बवंडर में फंस गई है. 2014 में बीजेपी को वोट देने वाले बहुत से लोग अब उससे नाराज लग रहे हैं. सबसे ज्यादा नाराजगी किसानों में है. एक अजीब विरोधाभास ये है कि खेती में उत्पादन तो बढ़ रहा है, लेकिन कृषि अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. 2014 से अब तक के चार सालों में किसानों की औसत आमदनी महज 5 फीसदी के आसपास बढ़ी है. लागत में हुई बढ़ोतरी की तुलना में ये बेहद कम है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस बीच, 4 साल के बुरे दौर के बाद उद्योग धीरे-धीरे मंदी से उबरने लगे हैं. लेकिन रिकवरी का ये दौर इतनी देर से शुरू हुआ है कि किसानों-मतदाताओं की बड़ी आबादी को इससे कोई खास फायदा नहीं होने वाला. अगर ये सुधार दो साल पहले आया होता, तो इनमें से कुछ लोगों को कृषि क्षेत्र से बाहर रोजगार मिल गया होता और कृषि उत्पादों की मांग में भी इजाफा हुआ होता. अगर ऐसा होता, तो किसानों की नाराजगी भी शायद कुछ कम होती.

मोदी सरकार की भूल

वाजपेयी सरकार की तरह ही मोदी सरकार ने भी मीडियम टर्म में खेती की उत्पादकता बढ़ाने के लिए काफी कुछ किया है. लेकिन वाजपेयी सरकार की तरह ही ये भी भूल गए कि किसानों के लिए उनकी मौजूदा आय, भविष्य में आमदनी बढ़ने की संभावना से कहीं ज्यादा महत्व रखती है. राजनीति में सड़क, बिजली, रसोई गैस वगैरह के मुकाबले वोटर के जेब में पड़े पैसे ज्यादा फायदेमंद साबित होते हैं.

मौजूदा हालात में इस बात की काफी संभावना है कि बहुत से किसान इस बार बीजेपी को वोट नहीं देने वाले हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था का शाश्वत प्रश्न भी इसी से जुड़ा हुआ है : आखिर क्या वजह है कि तमाम उपायों के बावजूद कृषि आय में बढ़ोतरी नहीं होती?

ADVERTISEMENTREMOVE AD

आप ये सवाल वैज्ञानिकों से करेंगे, तो वो टेक्नॉलजी की बात करेंगे. उनका कहना है कि इसमें सुधार की जरूरत है.  राजनेताओं से पूछें, तो वे बीज, खाद, सिंचाई और कीटनाशकों की कमी का जिक्र करेंगे. हालांकि उनमें से कई अपने-अपने इलाकों में इन्हीं चीजों के बड़े बिक्री एजेंट भी हैं.

खेती हमेशा से बुरी हालत में रही है

अर्थशास्त्रियों से पूछने पर वो बताएंगे कि असली दिक्कत कृषि मूल्यों और मार्केट के ढांचे में है. वो कहते हैं कि इन ढांचों का झुकाव ही किसान हितों के खिलाफ है. अगर आप आर्थिक इतिहासकारों से बात करेंगे तो वो उलटे आपसे ही सवाल कर देंगे, "...तो, इसमें नया क्या है? खेती तो हमेशा से और हर जगह बुरी हालत में ही रही है." और दुखद हकीकत यही है कि उनकी ये बात पूरी तरह सही है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
ADVERTISEMENTREMOVE AD

पारंपरिक समझ ये कहती है कि जमीन के भरोसे रोजी-रोजी जुटाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है. लिहाजा, जीवन स्तर में सुधार के लिए जरूरी है कि उनमें से कुछ लोग खेती से अलग होकर आय के दूसरे साधन अपना लें. लेकिन अगर हम किसी तरह उनमें से आधे लोगों को खेती की जगह किसी और रोजगार में शिफ्ट करने में सफल हो जाएं, तो भी कम से कम 40 करोड़ लोग ऐसे बच जाएंगे, जिनकी जिंदगी खेती के भरोसे चलेगी.

पीढ़ी दर पीढ़ी बंटवारा

आर्थिक ढांचे का विश्लेषण करने वालों का मानना है कि समस्या की एक वजह हिंदू उत्तराधिकार कानून भी है, जिसमें एक किसान की सभी संतानों को संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी मिलती है. इससे जमीन का पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार बंटवारा होता रहता है, जिससे वो बेहद छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाती है. लिहाजा, खेती करना फायदे का काम नहीं रह जाता.

इसी तर्क का एक हिस्सा ये भी है कि कृषि उत्पादन में सप्लाई और डिमांड के बीच एक अंतर्निहित असंतुलन हमेशा बना रहता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि किसान कौन सी फसल कितनी मात्रा में उपजाएगा, इसका फैसला उसे दाम की जानकारी मिलने के काफी पहले से करना पड़ता है.

यानी, इस साल की कीमतों से तय होता है कि अगले साल किस फसल का उत्पादन कितना होगा. ऐसे में किसान ये फैसला करने में हमेशा गलती कर बैठते हैं कि कौन सी फसल कितनी उगानी है.

और अंत में आते हैं वो नौकरशाह, जिन्होंने कृषि नीति के केंद्र में खुद को बिठा रखा है. हालांकि उन्हें कुछ पता नहीं होता कि करना क्या है.

एक के बाद दूसरी सरकारें इन सभी विशेषज्ञों के बताए तमाम उपायों के अलग-अलग घालमेल को आजमाती रही हैं. लेकिन फायदा किसी से नहीं हुआ. किसान न सिर्फ गरीब बने हुए हैं, बल्कि लगातार और भी गरीब होते जा रहे हैं. और ये ट्रेंड भविष्य में भी बना रहने वाला है, क्योंकि देश में करीब 10 करोड़ खेती के यूनिट  हैं, जिनमें हरेक पर औसतन 8 लोग निर्भर हैं. इनमें करीब आधे खेत कर्ज में डूबे हुए हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
ADVERTISEMENTREMOVE AD

बुनियादी समस्या है इंसानी आबादी

अगर आप मुझसे पूछेंगे, तो मैं कहूंगा कि ये माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत का ही नया रूप है. माल्थस के सामने मुख्य मुद्दा ये था कि अनाज की कमी के दौर में सबको भोजन कैसे मिलेगा. जबकि हमारे लिए मुद्दा किसानों की आमदनी बढ़ाने का है.

बीजेपी ने इसी सोच पर चलते हुए करीब 10 साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा किया है. लेकिन ये संभव नहीं है, क्योंकि असल मुद्दा खेतों की उत्पादकता बढ़ाने का नहीं है. बुनियादी समस्या है इंसानी आबादी का हद से ज्यादा बढ़ जाना.

19वीं सदी में जब यूरोप में यही समस्या सामने आई, तो उन्होंने अपनी आबादी को दूसरे महाद्वीपों में भेज दिया. चीन ने लोगों को उनके गांवों में कैद कर रखा है, जिनके बारे में किसी को ज्यादा जानकारी नहीं है. लेकिन इनमें से कोई भी रास्ता हमारे लिए नहीं खुला है. ऐसे में हम क्या कर सकते हैं ?

ये भी पढ़ें-

ADVERTISEMENTREMOVE AD

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×