“फूलन हमका मिल जाए तो कच्चौ चबा जैहैं”- बेहमई की एक छोटी सी बच्ची सीता ने ये बात मुझसे 1998 में कही थी. सीता की उम्र उस वक्त 17 साल थी. उम्र भले ही 17 की हो, लेकिन सीता की हाइट सिर्फ एक फुट थी. सीता को कोई बीमारी नहीं थी, बल्कि 14 फरवरी 1981 को डाकुओं ने सीता को चारपाई से उठा कर पटक दिया था. ये वही तारीख थी, जब फूलन देवी ने बेहमई में बीस लोगों को लाइन में खड़ाकर के गोलियों से भून डाला था. पांच गोलियां मार कर सीता के पिता बनवारी सिंह की छाती छलनी कर दी गई थी.
2005 में, एक फुट की सीता ने 24 साल की उम्र में आखिरकार दम तोड़ दिया. मर चुकी सीता बेहमई कांड और पिछले 38 सालों से चल रही इंसाफ की लड़ाई का सबसे नायाब नमूना है. सीता की टूटी रीढ़ इस मुकदमे से टूट चुकी आस के मानिंद है. सीता की बढ़ती उम्र, मुसल्सल पड़ती तारीखों की उम्र को बयां करती है. लेकिन 1981 में सीता का थम चुका कद, 2020 तक कानून के थमे हुए कद का जीता जागता चौबीस कैरेट सच्चा सबूत भी है और सबसे मजबूत गवाह भी.
खुलेआम रहता है कागजों पर 'फरार' मान सिंह
जरा खिलवाड़ तो देखिए. बेहमई कांड के इस मुकदमे में मान सिंह नाम का डाकू भी नामजद है. लेकिन मान सिंह आज तक कागजों पर 'फरार' दिखाया जाता है. सच जानेंगे तो चौंक जायेंगे. ये मान सिंह कानपुर देहात के भोगनी पुर इलाके में चौरा गांव का रहने वाला है. ये चौरा गांव यूपी की सबसे बड़ी बकरा मंडी है. मान सिंह यहीं रहता है. कल भी रहता था, आज भी रहता है. मान सिंह ने 2005 में ग्राम प्रधानी का चुनाव भी लड़ा था. ये इलाका बेहमई से बस चालीस किलोमीटर है. अगर आपने बैंडिट क्वीन देखी है तो याद दिला दूं आप को, मान सिंह का रोल मनोज बाजपेई ने किया था. मान सिंह ने मुझे बताया था कि मनोज बाजपेई और शेखर कपूर उससे मिलने चौरा आए भी थे.
मान सिंह ने मुझे एक बार बताया था, कि फूलन देवी उनको बहुत मानती थी. ग्वालियर जेल में दोनों एक दूसरे को बहुत पसंद करने लगे थे. सजा काटते वक्त ही दोनों ने जेल में शादी भी की थी. हालांकि मैंने फूलनदेवी से जब भी इस शादी के बारे में पूछा, फूलन ने हमेशा हंस कर जवाब दिया कि “मान सिंह बीहड़न ते लेकर जेल तक मददगार हते हमाए, अब जेल की बातैं जेलै मा छूट गईं”.
मरने वालों में सब नहीं थे ठाकुर
असल में अखबार से लेकर न्यूज चैनल तक की रिपोर्टिंग के दौरान बीहड़ मेरा पसंदीदा सब्जेक्ट रहा है. फूलनदेवी, मान सिंह, साधू ठाकुर, सीमा परिहार, निर्भय गुर्जर, जनजीवन परिहार और ठोकिया जैसे डकैतों से इंटरव्यू के सिलसिले में तमाम मुलाकातें होती रही. कम से कम दो दर्जन मौके ऐसे आये जब बेहमई गया मैं. अब एक और सरप्राइज एलिमेंट जान लीजिये. 1981 में जब बेहमई कांड हुआ था, उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह यूपी के चीफ मिनिस्टर थे. कुल बीस लोग मारे गए. शोर यही मचा कि सब ठाकुर मारे गए. लेकिन मारे गए लोगों में एक मल्लाह, एक धानुक और एक मुसलमान भी था.
17 ठाकुरों का कत्ल किया गया था, इसलिये वीपी सिंह से ठाकुरों का मोहभंग कराने के लिये, मुलायम सिंह यादव ने बेहमई में धरना देकर सबसे बड़ा आंदोलन किया था. फूलनदेवी और उसके गिरोह को गिरफ्तार करने के लिये दसियों दिन हल्ला बोला था. वक्त बदला. वीपी सिंह गए और मुलायम सिंह ने संभाली यूपी की सत्ता.
फूलनदेवी को पकड़ने और ठाकुरों को इंसाफ दिलाने की आवाज बुलंद करने वाले ये वही मुलायम सिंह थे, जिन्होंने यूपी का चीफ मिनिस्टर बनने के बाद पहली ही फुर्सत में फूलनदेवी के सारे मुकदमे वापस लिये थे. मुकदमे वापस लेने का जो सरकारी आदेश जारी किया गया था, उसमें साफ लिखा था कि फूलन देवी के सारे मुकदमे ”जनहित” में वापस लिये जा रहे है. फूलनदेवी समाजवादी पार्टी की टिकट से ही मिर्जापुर भदोही सीट से सांसद चुनी गई थी.
जिन ठाकुरों को मारने के लिये लाइन लगवाई गई थी, उसमें राजा राम सिंह भी खड़े थे. किस्मत से बच गये राजाराम सिंह ने 36 डकैतों के खिलाफ कानपुर देहात के सिकंदरा थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी. फूलनदेवी के साथ श्यामबाबू, राम सिंह, भीखा, पोसा, विश्वनाथ पर चार्ज फ्रेम हो चुके हैं. विश्वनाथ और भीखा जमानत पर हैं, जबकि पोसा अभी भी जेल में है. अशोक, रामकेश और मान सिंह फरार हैं. सिर्फ सात बेवायें बची हैं, जिन्हें इंसाफ की उम्मीद है.
भला किस में दम भरेगा फैसला?
दो लाइनों में कहें तो 20 का कत्ल. 36 डकैत नामजद. 15 डकैतों की मौत. तीन फरार. इंसाफ की आस में सिर्फ 7 बेवायें बचीं. 38 साल से जारी है मुकदमा. आने वाला है फैसला. लेकिन कौन सा फैसला, वो फैसला जिसे अब सुनने वाली सिर्फ सात ही विधवायें बची नहीं, बल्कि बूढ़ी हो चुकी हैं. किसके खिलाफ फैसला, उस फूलन देवी के, जिसके मुकदमे वापस लेकर सियासी फैसला पहले ही सुना दिया गया था. ये फैसला मान सिंह भी सुनेगा, जो बेहमई से कुछ दूर पर बैठा है, लेकिन पुलिस की फाइलों में फरार है. पिता की हत्या पर इंसाफ पर टकटकी लगाए बैठी एक फुट की सीता भी तो दम तोड़ चुकी है. फिर भला किस में दम भरेगा ऐसा फैसला? फास्ट ट्रैक कोर्ट का कंसेप्ट उस वक्त होता, सोशल मीडिया की ताकत 1981 में होती तो बेवाओं को वक्त पर इंसाफ हासिल होता और तब शायद ये कहावत कोई नहीं कहता कि 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनायड'.
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