प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 अप्रैल को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा कि राज्य लॉकडाउन को आखिरी विकल्प मानें. इससे पहले गृहमंत्री अमित शाह ने एक इंटरव्यू में कहा- “लॉकडाउन लगाना है या नहीं, ये राज्य तय करें. हमने उन्हें अधिकार दे दिए हैं.” पीएम की सलाह एक तरफ है और जमीन पर सच्चाई ये है कि राज्यों को लॉकडाउन के सिवा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा.
सवाल ये है कि कोविड से जंग को इस मोड़ पर लाकर केंद्र क्यों कह रहा है कि अब राज्य देखें क्या करना है? केंद्र का ये रुख सिर्फ लॉकडाउन को लेकर नहीं है. वैक्सीनेशन से ऑक्सीजन और दवाई से इलाज तक पर है. क्या अब जब कोरोना वायरस अपना सबसे खतरनाक रूप धर चुका है तो केंद्र पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा है?
प्रधानमंत्री ने राज्यों को लॉकडाउन से बचने की सलाह ऐसे वक्त में दी है, जब हर कुछ घंटे में कोई न कोई राज्य लॉकडाउन या मिनी लॉकडाउन या कर्फ्यू का ऐलान कर रहा है. 19 अप्रैल को केजरीवाल ने दिल्ली में हफ्ते भर के लॉकडाउन का ऐलान किया और 20 अप्रैल को झारखंड ने. बीजेपी शासित राज्यों उत्तर प्रदेश और कर्नाटक ने क्रमश: वीकेंड लॉकडाउन और नाइट कर्फ्यू का ऐलान किया.
महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार जैसे राज्यों ने पहले से ही लॉकडाउन जैसी पाबंदियां लगा रखी हैं. स्कूल बंद, मॉल, जिम, पार्क, परीक्षा बंद. जाहिर है उन्हें लॉकडाउन की जरूरत लग रही है. हर पार्टी की सरकार को लग रही है. लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? राज्य.
पिछले साल के लॉकडाउन ने देश के जिस्म और रूह को ऐसा कंपाया है कि आज देश का कोई कोना लॉकडाउन नहीं चाहता. इस फैसले के सियासी परिणाम हो सकते हैं. तो अब केंद्र ने सियासी तौर पर जोखिम भरा काम राज्यों के जिम्मे कर दिया है? इतना ही नहीं पीएम तो कह रहे हैं लॉकडाउन न लगाओ. अब ये अलोकप्रिय काम राज्य सरकारें करती हैं तो खामियाजा वही भुगतेंगी. मैंने तो मना किया था जी. गृहमंत्री की दलील है कि हर राज्य में स्थिति अलग है तो राज्यों को ही फैसला करना चाहिए. तो क्या पिछले साल स्थिति एक जैसी थी?
पल्ला झाड़ने का पैटर्न
दरअसल, एक पैटर्न नजर आ रहा है. रेल मंत्री पीयूष गोयल कह चुके हैं कि कोरोना कंट्रोल राज्यों की जिम्मेदारी है. वाह जी. जब 20 हजार, 30 हजार कोरोना केस आ रहे थे, आज से आधे भी एक्टिव केस नहीं थे, तो सारे फैसले खुद लेते रहे. अब जब नए केस का आंकड़ा 3 लाख के पास और एक्टिव केस 20 लाख पार चले गए हैं तो कोरोना कंट्रोल राज्यों की जिम्मेदारी है!
वैक्सीन की कमी के बीच राज्यों को जिम्मेदारी
वैक्सीनेशन प्रोग्राम बड़ी तामझाम के साथ आपने शुरू किया. नेशनल टीवी पर सारी महफिल लूटी, लेकिन वक्त पर डिलीवर नहीं कर पाए. देर हुई, शोर हुआ तो तय किया देसी वैक्सीन निर्माता कंपनियों से पचास फीसदी वैक्सीन राज्य और निजी अस्पताल ले लें और लगाएं. दाम जो कंपनियों से तय हो सकें. लेकिन केंद्र उसी पुरानी और कम कीमत पर वैक्सीन लेगा और 50 फीसदी लेगा.
तो अब जब ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी है तो राज्यों को पटरी पर दौड़ने के लिए कहा गया है. ऐसे में वैक्सीनेशन अभियान मंजिल पर न पहुंच पाए तो जवाबदेही राज्यों की भी होगी.
लेकिन ट्रेन छूटी कैसे? सारे फैसले आपने किए. किसे अप्रूव करना है, कब करना है, कीमत कितनी होगी, ऑर्डर कितना होगा, सब कुछ. वैक्सीन की कमी की शिकायत आने लगी तो विदेशी कंपनियों को फास्ट ट्रैक अप्रूवल दे रहे हैं और देसी कंपनियों को आर्थिक मदद. लेकिन फायदा मिलने में वक्त मिलेगा.
वैक्सीन निर्माताओं से बातचीत का अधिकार आपने राज्यों को अब दिया है, जबकि ओडिशा जैसे राज्य पहले से ये मांग कर रहे थे. महाराष्ट्र महीनों से कह रहा था सरकारी स्वामित्व वाली हैफकिन इंस्टीट्यूट में कोवैक्सीन का प्रोडक्शन होने दीजिए लेकिन नहीं, बैठे रहे महीनों इस मांग पर. अब दिया है लेकिन तब तक महाराष्ट्र के गले तक पानी पहुंच चुका है.
किल्लत आप लाएं, जिल्लत राज्य सहें?
ऑक्सीजन की कमी की शिकायत आई तो कहते रहे कि कोई कमी नहीं है. फिर पीएम ने रिव्यू मीटिंग में कुछ फैसले लिए. ये फैसले जब तक सांस बनकर लोगों के फेफड़ों तक पहुंचेंगे तब तक न जाने कितनों की सांसे उखड़ जाएंगी, कह नहीं सकते. अब प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ऑक्सीजन सप्लाई बढ़ाने पर काम कर रहे हैं. आपकी रफ्तार की मोहताज किसी की सासें हैं क्या? कितने गंभीर हैं ये पीयूष गोयल की बातों से पता चलता है. सलाह दे रहे हैं,
“डिमांड साइड मैनेजमेंट भी ठीक होना चाहिए. किसी ने सही पूछा- मैनेजमेंट से क्या मतलब, मरीज सांस न लें?”
रेमडेसिविर की किल्लत है. कालाबाजारी हो रही है. अब आपने पॉलिसी बनाई. निर्यात नहीं करेंगे. दाम घटवाएंगे. उत्पादन बढ़ाएंगे. ये आपको पहले ही करना था राज्यों को नहीं. आग आपने लगाई, आंच राज्य सरकारें महसूस कर रही हैं
सब कुछ आप लेंगे तो राज्य कैसे करेंगे?
चलिए ये सब झेलते हुए राज्य कोशिश भी करें तो पैसा कहां से लाएंगे. काम धंधे पूरी तरह बंद पड़े हैं तो कहीं आधे अधूरे चल रहे हैं. जीएसटी की कैंची से आपने रेवन्यू के पंख ऐसे कतरे हैं कि राज्य लहूलुहान हैं. वो बकाया मांगते हैं तो आप कहते हैं कर्ज उठा लो. 27 मार्च को आपने 30,000 करोड़ जीएसटी क्षतिपूर्ति के दिए जरूर हैं, लेकिन पिछले साल का आज भी 63,000 करोड़ बकाया है.
आपदा के नाम पर जो पैसा पीएम केयर फंड में जा रहा है, उसका इस्तेमाल भी आप ही करेंगे. आपने तो मुख्यमंत्री राहत कोष और राज्य राहत कोष में CSR का पैसा डालने से भी रोक रखा है. यहां तक कि आपने सांसद फंड (MPLAD) को भी दो साल के लिए कोविड फंड में डायवर्ट कर रखा है.
कैनवास पर रंग उड़ेल कर राज्यों को कूची पकड़ा दी. क्या तस्वीर बनेगी? डर्टी पिक्चर दिख रही है. गाजियाबाद में फुटपाथ पर जलती लाशें, रांची में हेल्थ मिनिस्टर पर चिखती पिता को खो चुकी बेटी. शहडोल में ऑक्सीजन की कमी से भाई को खो चुका रोता शख्स. गुजरात में अस्पताल के बाहर मरीजों के साथ एंबुलेंस की कतार.
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