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संडे व्यू: अमेरिका में दिखा हार्ड पावर का दम, 'खौलती कड़ाही' बना मणिपुर

Sunday View: पढ़ें आज टीएन नाइनन, चाणक्य, आसिम अमला, पी चिदंबरम और अदिति फडणीस के विचारों का सार.

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सॉफ्ट नहीं हार्ड पावर का दम

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन ने यह सवाल रखा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा से जुड़े औपचारिक शोर शराबे और दिखावे से इतर सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना कौन सी थी- नरेंद्र मोदी का संयुक्त राष्ट्र में योग करना, जनरल इलेक्ट्रिक तथा हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स के बीच लड़ाकू विमान इंजन बनाने की साझेदारी, कुछ पश्चिमी प्रकाशन समूहों का भारत को लेकर नया राग या फिर खतरनाक ड्रोन्स और वाणिज्यिक विमानों का बड़ा ऑर्डर?

जवाब देते हुए वे लिखते हैं कि मोटे तौर पर यह साफ्ट या हार्ड पावर का प्रदर्शन है. सॉफ्ट पावर से तात्पर्य है बिना बल प्रयोग के किसी देश को प्रभावित करना. वहीं, हार्ड पारवर में बल प्रयोग, दमदारी की कूटनीति आदि शामिल होते हैं.

टीएन नाइनन लिखते हैं कि अगर श्रेष्ठ अमेरिकी भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करने आएं तथा भारतीय पासपोर्ट पाने के लिए लाइन लगें तब अवश्य इसे सही मायनों में भारत की सॉफ्ट पावर कहा जा सकता है. मामला इसके उलट है. अगर अधिकांश संपन्न और सक्षम भारतीय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाते हों, रोजगार के अवसर अमेरिकी टेक कंपनियों में हों, उन्हें अमेरिकी वित्तीय तंत्र की ताकत पर यकीन हो, उस देश की प्रकृति समावेशी हो, वहां जीवन जीना सहज हो और अमेरिका की लोकप्रिय संस्कृति उन्हें लुभाती हो तो कहा जा सकता है कि यह अमेरिकी सॉफ्ट पावर का उदाहरण है. ऐसे में साफ है कि द्विपक्षीय रिश्तों में हार्ड पावर ही मायने रखती है. भारत का बढ़ता सैन्य व आर्थिक कद और उसके बाजार की संभावना आधार जरूर है. भारतीय सेना भी मायने रखती है. कई पश्चिमी कंपनियों को भारत में सुखद भविष्य नजर आता है.

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भारत-अमेरिका रिश्ते में विश्वास की बड़ी छलांग

हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य ने लिखा है कि नरेंद्र मोदी में कुछ तो बात है. आप उन्हें पसंद या नापसंद कर सकते हैं, उन्हें वोट करें या ना करें लेकिन यह स्पष्ट है कि अवसर का लाभ उठाना उन्हें आता है. अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए राजनीतिक ताकत का उपयोग, आवश्यकतानुसार उसमें नरमी और फिर राजनीतिक रूप से निर्णय करना नरेंद्र मोदी को बेहतर पता है. जो बाइडन में भी बहुत कुछ ऐसे ही गुण हैं. आप उन्हें बुजुर्ग भले मानें लेकिन विपरीत परिस्थितियों में उनके साहस और अनुभव की सभी कद्र करते हैं. कैपिटॉल स्टोर्मिंग हो या फिर महामारी, यूक्रेन की मदद हो या फिर बीते ढाई साल में प्रभावशाली विदेश नीति- बाइडन का रुख सराहनीय माना गया है.

चाणक्य सवाल करते हैं कि भारत-अमेरिका के बीच रिश्ता क्या टर्निंग प्वाइंट से गुजर रहा है? बहुत बड़ा बदलाव न भी कहें तो यह केवल प्रगति भर नहीं है. आर्थिक प्रतिबंध और परमाणु करार के बाद स्थिति बदल चुकी है. दोनों देशों के बीच रिश्ते को परस्पर विश्वास की दिशा में बड़ी छलांग कहा जा सकता है.

अमेरिका ने झिझक तोड़ी है और भारत के साथ रक्षा क्षेत्र संबंध को मजबूत बनाया है. चीन की चुनौती को देखते हुए अमेरिका ने भारत को अहमियत दी है. अमेरिकी तकनीक, पूंजी निवेश और बौद्धिक क्षेत्र की बुनियादी संरचना से जुड़ कर भारत उसका फायदा उठा सकता है. जेनरल इलेक्ट्रिकजेट इंजन टेक ट्रांसफर को बड़ी डील माना जा रहा है. इसी तरह प्रीडेटर ड्रोन्स हासिल करना भी भारत के लिए बड़ी सफलता है. खनिज सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग, सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में निवेश के अलावा अमेरिका की मैन्युफैक्चरिंग में भारतीय निवेश भी अहम बात है. मगर, सबसे बड़ी बात है विश्वास का मजबूत होना.

खौलती कड़ाही बन चुका है मणिपुर

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अनुच्छेद 355 भारतीय राज्य की संघीय प्रकृति की पुष्टि करता है. मणिपुर में अनुच्छेद 355 द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करने के बजाए संविधान का ही उल्लंघन किय जा रहा है. 3 मर्ई के बाद से हिंसा जारी है और प्रधानमंत्री ने एक शब्द नहीं बोला है. शांति की अपील तक नहीं की है. न ही दौरा करना जरूरी समझा है. मणिपुर में बीजेपी की सरकार है और केंद्र की ओर से उसे फटकार तक नहीं लगाए जाने के बाद यह बात अति लगती है- “मेरा देश मेरी पार्टी से ऊपर है”.

अलोकप्रिय बीरेन सरकार से खुद को अलग दिखाना ‘डबल इंजन सरकार’ की शेखी को उजागर करता है. एक्ट ईस्ट की नीति की भी पोल खुली है और ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ की भी पोल खुल गयी है.

चिदंबरम लिखते हैं कि 3 मई 1993 को मैतेई हिन्दू और मुस्लिम लड़े थे और 30 साल बाद मैतेई और कुकी ने लड़कर इतिहास दोहराया है. मणिपुर उच्च न्यायालय का एक गलत सलाह वाला आदेश इसकी वजह माना गया है. लेखक उल्लेख करते हैं कि बीजेपी विधायकों के तीस सदस्यी प्रतिनिधिमंडल को प्रधानमंत्री ने मिलने का समय नहीं दिया. पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के नेतृत्व में दस विपक्षी दलों ने मिलने के लिए समय का व्यर्थ इंतजार किया. प्रधानमंत्री ने मणिपुर राज्य को जलने के लिए छोड़ दिया. मणिपुर में एक इंजन (राज्य सरकार) का इंधन खत्म हो गया है. दूसरे इंजन (केंद्र सरकार) ने खुद को अलग करके लोको शेड में छिपने का फैसला कर लिया है. डबल इंजन की बदौलत, मणिपुर खौलती हुई कड़ाही बन चुका है.

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विपक्ष में संरचनात्मक बदलाव लाएगा पटना

आसिम अली ने टेलीग्राफ में विपक्षी दलों की पटना मे हुई बैठक को महत्वपूर्ण घटना माना है. इसे केवल तात्कालिक नतीजों से नहीं देखा जा सकता. 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद इसे विपक्ष की ओर से संरचनात्मक बदलावकारी प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जा सकता है. कांग्रेस और उत्तर भारत की मंडलवादी पार्टियां लोहियावादी प्रगतिशील समझ के साथ एक-दूसरे के करीब आयी हैं.

अखिलेश यादव ने एक इंटरव्यू मे कहा है कि पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के गठजोड़ से वे एनडीए को हरा देंगे. विपक्ष की बैठक के लिए स्थान के तौर पर पटना का चयन जेपी और लोहिया दोनों की स्मृतियों को जीवंत बनाने के लिहाज से महत्वपूर्ण है.

आसिम अली लिखते हैं कि 2014 के बाद से कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष में वाम लोकप्रियतावाद और बीजेपी क नेतृत्व में दक्षिणपंथी हिन्दुत्व का उभार हुआ है. 1991 से 2014 के दौर में यानी प्री मोदी एरा में कांग्रेस और बीजेपी की चुनावी गठबंधन की सियासत एक-दूसरे से मिलती जुलती थी. कांग्रेस के वाम झुकाव वाली नीतियां आलोचना के केंद्र में रही हैं. कुछ वाजिब तर्क भी हैं. फिर भी बीजेपी का राष्ट्रवादी मॉडल उतना प्रभाव नहीं छोड़ सका है. भारतीय राजनीति के केंद्र में नेहरूवादी मध्यम वर्ग और उदारवाद के बाद वाले मध्यम वर्ग का प्रभाव रहा है. मंडल-मस्जिद के दौर वाली राजनीति में बीजेपी की ओर झुकाव के बावजूद मध्यम वर्ग का झुकाव बीजेपी की ओर स्थिर नहीं रहा है.

2009 के सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे में भी मध्यमवर्ग कांग्रेस शासन का समर्थन करता है. हिन्दुत्व के जवाब में समावेशी लोकप्रियतावाद को विपक्ष ने अपनाया है.
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तेलंगाना में किसे मिलेगा सत्ता विरोधी लहर का फायदा?

अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि अविभाजित आंध्र प्रदेश के करिश्माई मुख्यमंत्री दिवंगत वाएस राजशेखर रेड्डी की बेटी शर्मिला ने दो साल पहले वाईएसआर तेलंगाना पार्टी बनायी थी. अब वह इसका कांग्रेस में विलय कर रही हैं. यह विलय ऐसे समय में हो रहा है जब केसीआर सरकार के लिए सत्ता विरोधी लहर बढ़ रही है.

2018 और 2021 के बीच कांग्रेस के 19 में से 12 विधायकों ने बीआरएस में शामिल होने के लिए दलबदल किया था. अब उल्टा पलायन दिख रहा है. बीआरएस के कई वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं.

फडणीस लिखती हैं कि विधानसभा चुनाव में टीआरएस ने एकतरफा चुनावी जीत हासिल की थी लेकिन बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में चार सीटें जीती थीं. उसने हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भी अपना दमखम दिखाया है. ऐसे में बीजेपी की बढ़ी हुई ताकत का आकलन नये सिरे से करना होगा. वहीं कांग्रेस की स्थिति भी पहले से बेहतर हुई है. कांग्रेस के लिए चुनौती होगी कि शर्मिला और वर्तमान कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रेवंत की महत्वाकांक्षाओं का समाधान कर सके. तेलंगाना की राजनीति में अस्थिरता दिख रही है और इस पर बीआरएस की पूरी नजर है. तेलंगाना में सत्ता विरोधी लहर को कौन भुना पाएगा- बीजेपी या शर्मिला के साथ कांग्रेस- यह देखा जाना बाकी है.

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