प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) 2 मई से 4 मई 2022 के बीच यूरोप की तीन दिवसीय यात्रा पर थे. इन दौरान उन्होंने जर्मनी, डेनमार्क और फ्रांस के नेताओं से गुफ्तगू की. बुधवार को फ्रांस में दोबारा चुने गए राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों से मुलाकात प्रधानमंत्री मोदी के यूरोपीय दौरे का आखिरी चरण था. बृहस्पतिवार को मोदी भारत लौट आए.
यह कोई हैरानी की बात नहीं. मोदी-मैक्रों की बातचीत के बाद दोनों पक्षों के संयुक्त बयान में यह साफ नजर आता था. यूक्रेन पर दोनों पक्षों की राय अलग-अलग थी, जैसे बर्लिन और कोपनहेगेन में मोदी के पहले पड़ावों में भी स्पष्ट हुआ था.
फ्रांस ने यूक्रेन पर रूस की "गैरकानूनी और अकारण आक्रामकता" की "कड़ी निंदा" की. भारत फ्रांस की इस बात से सहमत था कि वहां मानवीय संकट है और नागरिकों की मौत हो रही है, और यह 'गंभीर चिंता' की बात है. इस सिलसिले में दोनों देशों ने दुश्मनी को तुरंत खत्म करने की अपील की.
दोनों पक्षों ने यूक्रेन के मुद्दे पर समन्वय तेज करने के लिए एक अतिरिक्त समझौता किया. जिन तीनों देशों की मोदी ने यात्रा की, उनमें से फ्रांस के साथ उसके सबसे निकट राजनैतिक संबंध हैं. बैठक के बाद की अपनी ब्रीफिंग में विदेश सचिव वीएम क्वात्रा ने कहा कि न केवल दोनों देश मजबूत रणनीतिक साझेदार हैं, बल्कि दोनों देशों के नेता 'अच्छे दोस्त भी हैं'.
जैसा कि संयुक्त बयान में कहा गया है, उनकी साझेदारी 'कूटनीतिक स्वायत्तता में स्थायी विश्वास' और दशकों से चली आ रही बहुध्रुवीय दुनिया में विश्वास पर आधारित है. दोनों देश 1998 से कूटनीतिक साझेदार रहे हैं, जब रूस के अतिरिक्त फ्रांस ने भी भारत के परमाणु हथियार परीक्षण का समर्थन किया था. उस समय अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत के इस कदम की आलोचना कर रहा था.
भारत-फ्रांस के संबंध स्थाई हैं
संयुक्त बयान से पता चलता है कि दोनों देशों के समकालीन संबंध हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए उनके एक समान नजरिये पर आधारित हैं. यह सोच है कि यह पूरा क्षेत्र 'मुक्त, खुला और नियम-आधारित' होना चाहिए जहां संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता हो, आपसी संघर्ष और दादागिरी न हो.
अपने आइलैंड डिपार्टमेंट और विशाल एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन के साथ फ्रांस हिंद प्रशांत क्षेत्र में एक बड़ी ताकत है और हाल ही में उसने इस क्षेत्र में दिलचस्पी बढ़ाई है. वह यूरोपीय संघ-हिंद प्रशांत कूटनीति को भी आगे बढ़ा रहा है.
फ्रांस के साथ मोदी की बातचीत की बनावट नॉर्डिक देशों (उत्तरी यूरोप के देशों) से कुछ अलग थी, और यह काफी हद तक ऐतिहासिक है. यह रिश्ता तकनीकी और वैज्ञानिक सहयोग और महत्वपूर्ण हथियार हस्तांतरण संबंधों पर आधारित है जो 1950 के दशक जैसा है. इसकी अभिव्यक्ति 36 राफेल लड़ाकू जेट के लिए सौदे में नजर आती है जो मोदी ने 2015 में पेरिस की यात्रा के दौरान किया था. इसके अलावा अप्रैल में भारत में निर्मित छह स्कॉर्पीन-श्रेणी की पनडुब्बियों की लॉचिंग से भी यह प्रगाढ़ता साफ दिखाई देती है. फिलहाल भारत रक्षा उपकरणों की को-डिजाइनिंग, को-डेवलपमेंट और को-प्रोडक्शन पर जोर दे रहा है और फ्रांसीसी कंपनियां भारत की इस मांग को पूरा करने के लिए कमर कसकर तैयार हैं.
फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और उसके पास परमाणु हथियार हैं. ऐसा कोई नॉर्डिक देश नहीं है जो उस भूमिका को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हासिल कर सके.
फिर हिंद प्रशांत क्षेत्र में फ्रांस की पहुंच का मुद्दा भी अहम है. पश्चिमी हिंद महासागर में कई मामलों में भारत और फ्रांस के समान हित हैं. वहां फ्रांस का कई द्वीपीय क्षेत्रों पर अधिकार है और भारत के अपने सुरक्षा हित हैं, खास तौर से खाड़ी क्षेत्र में. अबू धाबी और मॉरीशस के दक्षिण में फ्रांस के सैन्य अड्डे हैं.
भारत के लिए नॉर्डिक क्षेत्र एक नया मौका है
लेकिन भारत नॉर्डिक क्षेत्र में भी अपने पैर पसारने की कोशिश कर रहा है. जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ तो उसके अच्छे संबंध हैं ही. लेकिन हाल ही में उसने डेनमार्के, नॉर्वे, स्वीडन, आइसलैंड और फिनलैंड के साथ भी मधुर रिश्ते बनाने की शुरुआत की है. पिछले चार वर्षों में दो नॉर्डिक समिट हो चुके हैं और मोदी और उन देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच व्यक्तिगत बातचीत हुई है.
ये सभी अमीर देश हैं और उनमें महत्वपूर्ण औद्योगिक और वैज्ञानिक-तकनीकी क्षमताएं हैं. उनमें से कई, जैसे डेनमार्क और स्वीडन अपने इंजीनियरिंग कौशल के लिए जाने जाते हैं. वे हेल्थकेयर तकनीक, अक्षय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में विश्व की अगुवाई करते हैं. स्वीडन सैन्य तकनीक में बहुत आगे है. ये सभी देश डिजिटल तकनीक में भी अग्रणी हैं. साउंडक्लाउड, स्काईप, स्पोटिफाई और पायरेट बे, सभी की पैदाइश स्वीडन में हुई है.
लेकिन यूरोपीय कंपनियों को भारत में निवेश करने से कौन रोक रहा है
यूक्रेन के मुद्दे पर भारत और यूरोप का नजरिया भले अलग-अलग हो लेकिन फिर भी सभी देश भारत के प्रति उदार हैं. यह बहुत हद तक इस बात का नतीजा है कि कैसे यूक्रेन में युद्ध ने यूरोपीय देशों के दिलो-दिमाग पर असर किया है. मोदी के कम से कम दो वार्ताकारों, स्वीडन और फिनलैंड को रूस ने अप्रत्यक्ष रूप से धमकाया भी है.
इस बात के लिए सरकार की तारीफ की जानी चाहिए कि उसने भूराजनीतिक बदलावों का भरपूर फायदा उठाया. यह मोदी की यात्रा से स्पष्ट होता है. उन्होंने यूरोपीय कारोबारियों में ‘फोमो’ (फियर ऑफ मिसिंग आउट, या कहीं आपसे कुछ छूट न जाए) की भावना को भड़काया और उनसे अपील की कि वे भारत में निवेश करें.
उनके दौरे का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने यूरोप में भारतीय डायस्पोरा को जमा किया. बर्लिन और कोपेनहेगन में वे उनसे मिले. फ्रांस के साथ भारत के सभी संयुक्त बयानों में भी इस बात की तरफ इशारा किया गया है कि सरकार यूरोपीय देशों के साथ "प्रवास और मोबिलिटी" समझौतों पर जोर दे रही है ताकि भारतीय प्रोफेशनल्स का यूरोप में प्रवेश आसान हो सके.
लेकिन बड़ी समस्या जस की तस है. कई यूरोपीय देशों को लगता है कि भारत में नौकरशाही में उत्साह और स्फूर्ति नहीं है. इसके बावजूद कि सरकार बार-बार ‘कारोबारी सुगमता’ का नारा देती है. दूसरी बात, भारत में यह परंपरा है कि वह किसी भी सौदे में सबसे कम बोली लगाने वाले को ढूंढता रहता है. ऐसे में एशियाई कंपनियां अपनी कम दरों के चलते बाजी मार ले जाती हैं, और उच्च क्वालिटी के उत्पादों और इंजीनियरिंग के साथ यूरोपीय कंपनियां ठगी सी रह जाती हैं- क्योंकि उनके मुकाबले यूरोपीय कंपनियों की दरें ज्यादा होती हैं.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं. यह एक ऑपिनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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