2024 का लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election) दस्तक देने को है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (BJP) जल्द ही अपना घोषणापत्र भी जारी करेगी. उम्मीद है कि यह घोषणापत्र 'GYAN' पर केंद्रित होगा. दरअसल GYAN चार टर्म्स का संक्षिप्त रूप है:
गरीब
युवा
अन्नदाता (किसान)
नारी (महिला सशक्तिकरण)
लेकिन सवाल है कि मौजूदा मोदी सरकार ने पिछले दस वर्षों में इन चार मोर्चों पर कैसा प्रदर्शन किया है?
गरीबी के मोर्चे पर
नीति आयोग की तरफ से जारी लेटेस्ट डिस्कशन पेपर में दावा किया गया है कि पिछले नौ वर्षों में 24.82 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर आए हैं. कुल आबादी में गरीबों का अनुपात 2013-14 में जहां 29.17 प्रतिशत था वो 2022-23 में घटकर 11.28 प्रतिशत हो गया. यह पिछले सालों की तुलना में तेज गिरावट को दर्शाता है.
हालांकि, कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि नीति आयोग की यह रिपोर्ट कोरोना की वजह से गरीबी में आई वृद्धि को नजरअंदाज करती है. जबकि दूसरे अर्थशास्त्री उपभोग गरीबी रेखा (वैश्विक स्तर पर गरीबी का अनुमान लगाने की यही पारंपरिक विधि है) से नीचे जी रही आबादी पर डेटा न होने पर सवाल उठाते हैं.
इन प्रगतियों के बावजूद, पिछले छह वर्षों से वास्तविक मजदूरी स्थिर रही है और इसका उपभोग मांगों पर प्रभाव पड़ता है. यह तथ्य अपने आप में गरीबी के स्तर में गिरावट के साथ असंगत प्रतीत होता है. दोनों बात एक साथ कैसे हो सकती हैं?
वर्ल्ड बैंक के अनुसार, गरीबी दर और अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा ($2.15 प्रति दिन- 2017 PPP) से नीचे रहने वाली आबादी के अनुपात में 2018 तक धीरे-धीरे गिरावट देखी गई. इसके बाद, वृद्धि हुई, जो 2020 में कोरोना महामारी के बीच चरम पर थी. उसके बाद 2021 में इसमें एक और गिरावट आई.
इसके बावजूद, यह देखना चिंताजनक है कि जब भारत की गरीबी दर की तुलना बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे दूसरे पड़ोसी देशों से की जाती है, तो भारत का प्रदर्शन काफी पीछे रह जाता है.
युवाओं में बेरोजगारी
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और मानव विकास संस्थान (IHD) द्वारा संयुक्त रूप से जारी भारत रोजगार रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत में लगभग कुल बेरोजगार वर्कफोर्स में 83 प्रतिशत युवा हैं.
ध्यान देने वाली बात यह है कि कुल बेरोजगार युवाओं में माध्यमिक या उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं का अनुपात लगभग दोगुना हो गया है. यह 2000 में 35.2 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 65.7 प्रतिशत हो गया है.
कोरोना महामारी से पहले के वर्षों में युवा रोजगार और अल्परोजगार में वृद्धि देखी गई. लेकिन महामारी की शुरुआत में इन आंकड़ों में गिरावट देखी गई. इसके अलावा, रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हुए हैं, जो अनिश्चित रोजगार पर बड़ी निर्भरता का संकेत देता है.
कुल रोजगार में नियमित/ रेगुलर रोजगार की हिस्सेदारी 2000 से लगातार बढ़ रही थी. लेकिन 2018 के बाद यह घटने लगी.
यह रिपोर्ट युवाओं के बीच बड़े स्तर पर आजीविका की असुरक्षाओं को रेखांकित करती है. सामाजिक सुरक्षा उपायों से केवल एक छोटा प्रतिशत ही लाभान्वित होता है, खासकर विशेष रूप से गैर-कृषि, संगठित क्षेत्र में. यह रिपोर्ट भारत के युवाओं के सामने आने वाले रोजगार संकट को दूर करने के लिए व्यापक रणनीतियों को तत्काल बनाने की आवश्यकता पर जोर देती है.
किसानों के मोर्चे पर
किसानों पर फोकस करते हुए, सरकार ने उनकी वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने, उनके कौशल विकास को बढ़ावा देने, बाजार तक पहुंच की सुविधा देने और टिकाऊ किसानी को बढ़ावा देकर किसानों की भलाई के उद्देश्य से कई योजनाएं शुरू कीं. इन पहलों में खास है 2016 में शुरू की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY). यह प्रीमियम के मामले में विश्व स्तर पर तीसरी सबसे बड़ी बीमा योजना है. इसका उद्देश्य किसानों को अप्रत्याशित घटनाओं से होने वाली फसल की बर्बादी से बचाना है.
पिछले आठ सालों में 56.80 करोड़ किसान आवेदन रजिस्टर किए गए हैं. 23.22 करोड़ से अधिक किसान आवेदकों को बीमा का क्लेम मिल गया है, यानी बीमा की राशि मिली है. इस दौरान, किसानों ने प्रीमियम के अपने हिस्से के रूप में लगभग 31,139 करोड़ रुपये का भुगतान किया. जबकि 1,55,977 करोड़ रुपये का भुगतान बीमा के क्लेम के रूप में किसानों को किया जा चुका है.
हालांकि, हमने देखा है कि भले ही किसानों द्वारा कुल आवेदन पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़े हैं ( 2016-17 में 581.7 लाख से बढ़कर 2021-22 में 832.8 लाख हो गए), लेकिन सरकार ने जो बीमा क्लेम के बदले भुगतान किया है, उसमें गिरावट देखी गई है. 2016-17 में भुगतान किया गया कुल बीमा क्लेम 16795.5 करोड़ था, वो 2018-19 में बढ़कर 28651.8 करोड़ हो गया. लेकिन 2021-22 में भुगतान किया गया बीमा क्लेम केवल 14716.9 करोड़ था. यानी यह 2016-17 के शुरुआती बीमा क्लेम के भुगतान से भी कम है.
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PM-KISAN) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा/MGNREGS) के मामलों में भी ऐसा ही ट्रेंड देखा गया है. लाभार्थियों की संख्या, बजट आवंटित और उस बजट के उपयोग में में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है. मनरेगा योजना के तहत काम की जो मांग है वो काम मिलने की वास्तविक संख्या से लगातार अधिक देखी गई है.
नौकरियों की मांग में 41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि दी गई नौकरियों की संख्या में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 3 प्रतिशत का अंतर भले महत्वहीन दिख रहा हो लेकिन जब पूरी आबादी के संबंध में इसे देखा जाता है, तो यह बड़ा आंकड़ा हो जाता है.
महिला सशक्तिकरण
भारत में महिला की लेबरफोर्स में भागीदारी की दर (FLFPR) कई दशकों से लगातार निराशाजनक रूप से कम बनी हुई है. यह ट्रेंड पिछले नौ वर्षों में और भी बदतर हो गया है.
वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के अनुसार, रिपोर्ट की गई FLFPR साल 2012 में 27 प्रतिशत थी, लेकिन 2021 तक यह गिरकर 22.9 प्रतिशत हो गई. यह नीचा जाता ग्राफ चिंताजनक है. यह वर्कफोर्स तक पहुंचने और बाहर निकलकर काम करने में महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को दर्शाता है.
इस गिरावट के बावजूद, आशा की एक भी झलक है. आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार, 2022 में FLFPR 23.9 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई. 2023 में यह बढ़कर 34.1 प्रतिशत हो गयी.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने हाल ही में अपनी वार्षिक अपराध रिपोर्ट जारी की. यह रिपोर्ट भारत में महिला सुरक्षा की गंभीर वास्तविकता पर प्रकाश डालती है. आंकड़ों के मुताबिक 2022 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,45,256 मामले सामने आए, जो हर घंटे दर्ज होने वाली लगभग 51 एफआईआर के बराबर है. यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है क्योंकि 2022 में 4,28,278 मामले दर्ज किए गए थे जबकि 2020 में 3,71,503 मामले दर्ज किए गए थे.
(दीपांशु मोहन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (CNES) के डायरेक्टर हैं. वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में विजिटिंग प्रोफेसर हैं. अदिति देसाई CNES के साथ एक सीनियर रिसर्च एनालिस्ट और इसकी इन्फोस्फियर टीम की टीम लीड हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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