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मोदी को विदेश नीति में जीतना है तो कोरोना वायरस को हराना होगा

PM की मौजूदा और भावी नीति पर भी निशान लगा रहेगा और इस बात पर विचार किया जाएगा कि उनकी विदेश नीति कैसी हो सकती थी.

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कोविड-19 जैसी महामारी को नजरंदाज करके हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति का आकलन नहीं कर सकते. इसके बिना हम इस बात का आकलन भी नहीं कर सकते कि दूसरे कार्यकाल के पहले साल में प्रधानमंत्री की विदेश नीति कैसी रही. उनकी मौजूदा और भावी नीति पर भी सवालिया निशान लगा रहेगा और लोग इस बात पर विचार करते रहेंगे कि उनकी विदेश नीति कैसी हो सकती थी.

पिछले साल प्रधानमंत्री की विदेशी नीति का आकलन करने के कई पैमाने हैं. दोस्तों, दुश्मनों और पड़ोसियों के साथ हमारे रिश्ते कैसे रहे. क्या हम विदेशी निवेश को आकर्षित कर पाए. भारत ने पिछले वर्ष अपने घरेलू मोर्चे पर कैसा प्रदर्शन किया.

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कितने विवादास्पद नीतिगत फैसले किए गए, भले ही वह कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाने का मामला हो या नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से जुड़े विवाद हों.

कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण

कश्मीर के मुद्दे के कारण भारत की विदेश नीति को विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा. पिछले साल अगस्त में राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया. इसके बाद पूरी दुनिया से प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं आईं, खास तौर से बड़े पैमाने पर लोगों को हिरासत में लेने और सूचनाओं पर पाबंदी लगाने के कारण.

केंद्र सरकार ने भी कूटनीतिक स्तर पर अपनी तरह से पहल की जिसके अलग-अलग नतीजे देखने को मिले. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने गुपचुप बैठकें कीं, और यूरोपीय संसद में इस मुद्दे पर चर्चा हुई.

विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन, यूरोप और अमेरिका का दौरा किया. दूसरे कई मंत्री पश्चिम एशिया हो आए. खुद प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति ट्रंप से बातचीत की और जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल ने अपने दिल्ली दौरे के दौरान इस स्थिति को ‘अनसस्टेनेबल’ कह दिया.

वैसे सरकार कुछ भी कहे, उसने एक बार फिर कश्मीर के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीय कर दिया. 

पिछले वर्ष हमने देखा था कि अमेरिका की कांग्रेस कमिटी इस मुद्दे पर काफी सक्रिय थी. अमेरिकी राष्ट्रपति ने कई बार भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा था. दूसरे मित्र देशों यूएई, सऊदी अरब, नॉर्वे और रूस ने भी ऐसे ही प्रस्ताव दिए थे.

दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम पारित हुआ और इसके बाद देश भर में इसका विरोध देखने को मिला. एनआरसी के बाद इसे मुसलमानों के खिलाफ उठाया गया दूसरा कम माना गया. इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए तो उत्तर प्रदेश में पुलिस ने बर्बर कार्रवाई की. कई यूनिवर्सिटी कैंपस में स्टूडेंट्स के साथ हिंसा की गई. हजारों लोगों को गिरफ्तर किया गया. हिंसा से इतर, इस मुद्दे को धार्मिक आजादी के तौर पर देखा गया.

इसके बाद जब राष्ट्रपति ट्रंप भारत यात्रा की तैयारी में जुटे थे, दिल्ली में दंगे हुए. एक प्रेस वार्ता में सीएए के मुद्दे पर जवाब देते हुए ट्रंप ने दिल्ली की हिंसा की तरफ इशारा किया था और इस बात का भी जिक्र किया था कि वह भारत में धार्मिक आजादी को लेकर मोदी से चर्चा कर चुके हैं.

सीएए के बाद भारत का रुख और विदेश नीति

सीएए पर दुनिया भर से प्रतिक्रियाएं आई थीं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेस ने इस हिंसा की भत्सर्ना की और ‘इसे सुरक्षा बलों का अत्यधिक बल प्रयोग’ कहा. उन्होंने भारत सरकार से अपील की थी कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण प्रदर्शन को सम्मान दे. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का मानना था कि सीएए ‘जरूरी नहीं था’, हालांकि उन्होंने इसे भारत का अंदरूनी मामला बताया था.

मलेशिया, तुर्की, कुवैत, अफगानिस्तान और यूरोपीय संघ ने इसकी तीखी आलोचना की थी. अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च शाखा ने एक रिपोर्ट में कहा था कि एनआरसी और सीएए से ‘भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति’ पर असर हो सकता है.

भारत के दो घरेलू घटनाक्रमों ने विश्व स्तर पर ‘ब्रांड इंडिया’ की छवि को धूमिल किया.

जिन देशों को भारत एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति प्रतीत होता था, एक ऐसा देश जो विश्व स्तर पर शांति और स्थिरता को बढ़ावा देता है, उनके लिए यह एक बड़ा धक्का था. जिस भारत से चीन जैसी महाशक्ति ईर्ष्या करती थी, क्योंकि उसकी पहचान एक लोकतांत्रिक और बहुलतावादी देश के रूप में थी, उसकी साख में बट्टा लग गया था.

केंद्र सरकार के मंत्रियों को दुनिया भर के देशों में अपनी घरेलू नीतियों पर सफाई देनी पड़ रही थी. उनके लिए यह बताना मुश्किल था कि भारत निवेश के लिए सर्वोत्तम गंतव्य देश है.

इसके अलावा भारत को अपनी विदेशी नीति के मोर्चे पर भी काम करना था- चीन से अपने संबंध बरकरार रखना. अमेरिका से अपने रिश्तों में होते सुधार की रफ्तार को धीमी न होने देना. यूरोप और रूस से अपने संबंधों को निर्विरोध कायम रखना. खाड़ी देशों के साथ आर्थिक सहभागिता को मजबूत करना. पड़ोसी देशों को नियंत्रण में रखना और विश्व मंच पर व्यापक भूमिका निभाना- जोकि अगले वर्ष संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता की खातिर की जाने वाली तैयारियां का एक अंग है.

पाकिस्तान के साथ निभाना एक मुश्किल काम है

लेकिन देश में लगातार विरोधों और फिर बेशक, कोविड के बाद कुछ भी सही नहीं हुआ. सिवाय अहमदाबाद के नमस्ते ट्रंप के तमाशे के अलावा. यहां तक कि चेन्नई में मोदी और चीन के शी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक वार्ता भी उपयोगी सही, पर बहुत महत्वपूर्ण नहीं रही.

इन घटनाक्रमों के बीच सबसे विचित्र यह रहा है कि भारत के लिए अपने पड़ोसी देशों के साथ निभाना मुश्किल होता गया. न सिर्फ अपने चिर विरोधी पाकिस्तान, बल्कि एक अच्छे मित्र रहे नेपाल के साथ भी.

मोदी की विदेशी नीति के आकलन का सबसे बड़ा पैमाना उनकी विदेश यात्राएं रही हैं. दिसंबर और जनवरी को छोड़ दिया जाए तो यह उनके पहले कार्यकाल की खास विशेषता थी. दूसे कार्यकाल के पहले छह महीने में इस स्तर पर प्रधानमंत्री का प्रदर्शन अच्छा था. अपनी दस विदेश यात्राओं में उन्होंने पूरी दुनिया की सैर कर ली- ब्राजील, अमेरिका, जापान, सऊदी अरब, मालदीव और श्रीलंका, फ्रांस, यूएई और बाहरीन, थाईलैंड, भूटान और किर्गिस्तान.

इस वर्ष जब प्रधानमंत्री अपने शीतकालीन सफर का समापन ट्रंप के भारत दौरे के साथ कर रहे थे, कोविड-19 ने अपना जाल बुनना शुरू कर दिया था. इसी के चलते ईयू समिट के लिए यूरोप का दौरा, ईजिप्ट में एक पड़ाव, बांग्लादेश की महत्वपूर्ण यात्रा, मई में विक्टरी डे परेड में मॉस्को की मेजबानी, सभी रद्द हो गए.

अभी कई बहुपक्षीय शिखर सम्मेलन होने शेष हैं- एससीओ, ब्रिक्स और जी20 की वार्ताएं, ट्रंप की अगुवाई में जी 7 देशों का शिखर सम्मेलन. पर सभी के भविष्य पर अभी शंका बनी हुई है.

भारत की समृद्धि एफडीआई और विदेशी व्यापार पर निर्भर

प्रधानमंत्री के लिए आने वाले वर्षों में एक बड़ी चुनौती है. यह कोविड के प्रकोप से भारत को मुक्त करना है. इस पर घरेलू और विदेश नीति टिकी हुई है. सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी कथनी, करनी में तबदील हो सके. उनकी नीतियां फलीभूत हों. मोदी सरकार ने व्यापक आर्थिक सुधारों का लक्ष्य रखा है. राष्ट्र के नाम संबोधन में वह आत्मनिर्भर भारत के लिए बड़े पैमाने पर सुधारों के जरिए अर्थव्यवस्था की ऊंची छलांग लगाने की बात कह चुके हैं.

पर आप मानें या न मानें, भारत की समृद्धि अब भी एफडीआई और विदेशी व्यापार के ट्राइड एंड टेस्टेड फ़ॉर्मूले पर निर्भर करती है.

इसके लिए विदेशी कंपनियों और सरकारों को आकर्षित करना होगा. लेकिन साथ ही साथ घरेलू स्तर पर ऐसी पहल करना जरूरी है कि प्रशिक्षित और अनुशासित श्रमबल तैयार किया जा सके.

जैसा कि वॉल स्ट्रीट जनरल में सदानंद धूमे ने कहा है, यह वही मोदी हैं जिन्होंने छह साल पहले मेक इन इंडिया स्कीम की घोषणा करते हुए कहा था कि वह मैन्यूफैक्चरिंग को भारत की जीडीपी के 25 प्रतिशत पर पहुंचा देंगे. लेकिन सच्चाई क्या है? 2018 तक जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग का योगदान 15.1 प्रतिशत से गिरकर 14.8 प्रतिशत हो गया है.

इसलिए, सिर्फ घोषणा कर देने, थालियां बजाने या दिए जलाने से बदलाव नहीं हो जाते. देशवासियों की रोजमर्रा की जिंदगी को बदलने, उन्हें शिक्षित करने और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य देने के लिए धैर्यपूर्वक और व्यवस्थित तरीके से काम करना पड़ता है. और इसमें दसियों साल लग जाते हैं.

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अमेरिका- चीन का मनमुटाव: भारत के लिए मौका भी, खतरा भी

विदेशी नीति के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है, अमेरिका और चीन के बीच मनमुटाव. इसके नतीजे देखने को मिल रहे हैं. यह हमारे लिए अवसर भी है, और खतरा भी. अमेरिका समान विचारों वाले देशों, संगठनों तथा व्यापार जगत के साथ इकोनॉमिक प्रॉस्पैरिटी नेटवर्क (ईपीएन) बनाने पर विचार कर रहा है ताकि ग्लोबल सप्लाई चेन्स को चीन से बाहर संगठित किया जा सके.

हालांकि, भारत को ईपीएन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जा रहा है, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या अमेरिका डिजिटल व्यापार, एनर्जी और इंफ्रास्ट्रक्चर, व्यापार, शिक्षा और वाणिज्य के लिए जिस प्रकार के मानदंडों का आग्रह करेगा, क्या भारत उन पर खरा उतरेगा.

भारत अपनी कमजोर तैयारियों के कारण रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) का सदस्य नहीं बना पाया. इस बात में संदेह है कि अमेरिका भारत को वह आर्थिक छूट देगा, जो उसने अस्सी और नब्बे के दशक में चीन की दी थी. फिर अमेरिका के ‘टेक्नोस्फेयर’ को कायम होने में दसियों साल लगेंगे, जिसमें नए सिरे से सप्लाई चेन्स को स्थापित किया जाएगा.फिर चीन के प्रति प्रतिकूल रवैये से भारत को भूराजनैतिक खतरा भी हो सकता है.

अपने पड़ोसी देशों से हमारा रिश्ता बहुत सुखद नहीं रहा है. फिर चीन से खुली दुश्मनी भारी पड़ सकती है. इसका असर आर्थिक संबंधों पर पड़ सकता है जोकि प्रतिद्वंद्वी टेक्नोस्फेयर हो सकता है.

(लेखक Observer Research Foundation, New Delhi में एक Distinguished Fellow हैं. आर्टिकल में दिए गए विचार उनके निजी विचार हैं और इनसे द क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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