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‘वन नेशन, वन पोल’ का मतलब ‘वोटबंदी’ तो नहीं है?

‘वन नेशन वन पोल’ नोटबंदी से भी बढ़कर एक प्रकार की वोटबंदी है, जो मतदान का अधिकार पांच साल तक छीन लेती है.

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26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की 68वीं वर्षगांठ पर हमने आसियान देशों के प्रतिनिधियों के सामने अपने गणराज्य की खूब नुमाइश की. इसके ठीक पहले राष्ट्रपति महामहिम रामनाथ कोविंद ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश को संबोधित करते हुए कहा, "हमारा गणराज्य अपने लोगों से बना है. नागरिक सिर्फ एक गणराज्य को नहीं बनाते हैं, वो इसके अंतिम हितधारक और खंभे हैं.”

याद रहे कि संविधान निर्माता बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था, “26 जनवरी 1950 से हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक कीमत के नए अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं.”

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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज भी सारी दुनिया को अचंभि‍त करता है.

लेकिन 20 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने एक साथ चुनाव कराने के लिए राष्ट्रीय बहस छेड़कर गणतंत्र के मूलभूत अधिकार यानी मताधिकार से लोगों को वंचित रखने की बात की, जो लोकतंत्र के मूल्यों से विपरीत है. आखिर क्यों प्रधानमंत्री मोदी मतदाताओं को लोकसभा और विधानसभा के अलग-अलग समय पर होने वाले चुनावों से वंचित रखना चाहते हैं?

मतदान करने योग्य बनने के बाद मैंने चुनावों में कई बार मतदान किया है. यह एक बेहद संतोषजनक और सशक्त अनुभव है. लोकसभा और विधानसभा के लिए मैंने चार महीनों में दो बार मतदान किया, लेकिन मुझे मतदान प्रक्रिया में कभी भी कठिनाई महसूस नहीं हुई. मुझे याद है कि जब भी सरकार बदल गई, मुझे लगा, जैसे मैंने एक वोट के अपनी शक्ति से सरकार को हरा दिया हो.

मुझे यकीन है कि वोट करने वाले प्रत्येक मतदाता ऐसा ही महसूस करते होंगे. यहां एक साधारण डेविड शक्तिशाली गोलिअथ को हरा सकता है. यही कारण है कि चुनाव के दिन गरीबों के बीच सबसे गरीब राजा की तरह महसूस करते हैं. शायद इसी कारण गरीब तबका मतदान करने के लिए अति उत्साहित होता है. हम उन अभिजात वर्गों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, जो कभी भी वोट नहीं करते हैं.

क्या आपने कभी ये महसूस किया कि वोटिंग की कतार में खड़े रहे लोगों का उत्साह और खुशी देखते ही बनती है. वोटिंग एक शक्तिशाली उत्सव है, लेकिन अब इसके पांच साल में केवल एक बार इस्तेमाल आयोजित करने की बात हो रही है.

क्या आपने मतदान के बाद लोगों की अपनी उंगलियों के निशान दर्शाती हुई तस्वीर भी देखी? वे बहुत खुश दिखते हैं, जैसे वो एक युद्ध जीत गए हो.

20 जनवरी को जी न्यूज से एक इंटरव्यू में पीएम मोदी ने यह कहा कि लोकसभा और विधानसभा के लिए एकसाथ चुनाव देश के लिए महत्वपूर्ण है. अपनी इस सोच का इजहार उन्होंने पहले कई बार किया था. अब राष्ट्रपति भी यही कह रहे हैं.

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'वन नेशन वन पोल' के पक्ष में तर्क निराधार

प्रधानमंत्री मोदी की मानें, तो बार-बार होने वाले मतदान (अलग-अलग समय पर लोकसभा और विधानसभा) का मतलब है सरकारी खजाने का नुकसान, प्रशासन से विचलन, सुरक्षाबलों की क्षमता की बर्बादी और अच्छे अधिकारियों-शिक्षकों का चुनाव ड्यूटी पर अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करना.

इनमें से कोई तर्क दमदार नहीं है. सरकारी खजाने की हानि एक अजीब तर्क है. वयस्क मताधिकार के मौलिक अधिकारों का पालन करने के लिए सार्वजनिक खर्च कोई आधार नहीं हो सकता.

इसी प्रकार से चुनाव ड्यूटी पर अच्छा अधिकारी बर्बाद करने का तर्क बिलकुल गलत है. जिसने भी पुरस्कार विजेता फिल्म ‘न्यूटन’ देखी है, वह आपको बताएंगे कि एक अच्छा अधिकारी सिर्फ अपने काम में ही नहीं, बल्कि चुनाव जैसे एक पवित्र लोकतांत्रिक संस्थान को बनाए रखने के काम में भी जान की बाजी लगाता है.

सभी बाधाओं के विरुद्ध, ‘न्यूटन’ देश के दूर के हिस्से में लोकतंत्र को सुरक्षित रखता है. ऐसे में प्रधानमंत्री का यह कहना कि चुनाव एक अपव्यय है, ऐसे उज्ज्वल अधिकारियों पर अन्याय है, जो चुनाव के काम को एक पवित्र राष्ट्रीय कर्तव्य मानते हैं. लोकसभा के मुकाबले अलग समय पर होने वाले राज्यों के चुनाव लोगों को जबरदस्त शक्ति देते हैं.

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2 सालों में बड़े राज्यों में इंदिरा गांधी हार गईं

भारतीय लोकतंत्र पर धब्बा साबित हुए आपातकालीन के बाद इंदिरा गांधी को 1977 में केंद्र से इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन मनमानी सत्ता का परिणाम सिर्फ केंद्र में ही नहीं, राज्यों में भी उनको भुगतना पड़ा था. 1977 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और बिहार में मुंह की खानी पड़ी थी. इसका अर्थ यह है कि आपातकाल से पीड़ित लोगों को इंदिरा गांधी को राज्य में भी हराने के लिए लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा.

वर्तमान संदर्भ में, गुजरात, दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनाव सटीक उदाहरण हैं. 2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने इन राज्यों में भारी जीत दर्ज की थी, लेकिन बीजेपी के विकास के अजेंडे को गायब होता देख और दक्षिणपंथियों की गाय के नाम पर हो रही हिंसा के मद्देनजर दिल्ली और बिहार की उसी जनता ने केवल एक या दो साल में ही बीजेपी को सबक सिखाया था.

गुजरात में तो बीजेपी ने 2014 में सारी 26 सीटें जीती थीं. लेकिन केवल तीन साल में बीजेपी के कई कट्टर समर्थक (जैसे पटेल समुदाय) बीजेपी की किसान नीति के चलते ‘हमारी भूल कमल का फूल’ कहकर पार्टी के खिलाफ खड़े हो गए.

बीजेपी राज्य चुनाव में हारते-हारते बच गयी और 100 सीटों के अंदर सिमट गयी. जाहिर है बिहार दिल्ली या गुजरात के चुनाव केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ दिया गया वोट था.

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बार-बार होने वाले चुनाव संघवाद मजबूत करते हैं

राज्यसभा में अभी भी बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव का अलग समय पर होना राज्यसभा को एक अलग पहचान देता है, जो लोकसभा से अलग भी हो सकता है. दोनों सदन में एक पार्टी का अंकुश होना लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है.

केंद्र और राज्यों में एक साथ वोटिंग से दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार बनाने की गुंजाइश रहती है, खासकर 2014 जैसे लहर वाले चुनावों में. अगर लोकसभा और राज्यसभा एक ही पक्ष के वर्चस्व में आते हैं, तो मनमानी तरीको से कानूनों को बदलने में केंद्र सरकार को कठिनाई नहीं होगी.

संविधान के ढांचे में मूलभूत बदलाव जैसे खतरनाक कदम भी उठ सकते हैं. ऐसे हालात में खासकर तब जब बीजेपी के संसद अनंत हेगड़े ये घोषित कर चुके है कि संविधान बदलने के लिए ही पार्टी सत्ता में आई है.

अगर मतदाताओं को चुनावों में बार बार अवसर नहीं मिलते हैं, तो वो उनके मौलिक मतदान अधिकार के हथियार से बुरी तरह से हाथ धो बैठेंगे. हर एक चुनाव के साथ, लोकतंत्र केवल मजबूत और मतदाता और ज्यादा समझदार बनता है.

राजनेताओं को उनकी गलती का सबक देने का अधिकार पांच साल तक रोके रखना आम जनता के लिए धोखा होगा. केंद्र की सरकार की नीतियों से परेशान आम जनता उनका यह हथियार राज्य चुनावों में उपयोग कर सकती है, फिर चाहे वो कांग्रेस हो या बीजेपी.

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मोदी जी ने पिछले साल नोटबंदी करके सबको चौका दिया था. एकतरफा लिए गए इस फैसले से लाखों करोड़ों लोग प्रभावित हुए और कई सारे मृत भी. ‘वन नेशन वन पोल’ नोटबंदी से भी बढ़कर एक प्रकार की वोटबंदी है, जो मतदान का अधिकार पांच साल तक छीन लेती है.

धन और समय के बचत के आड़ में इसे पेश करने का प्रयास किया जा रहा है. लोकतंत्र में विश्वास करने वाले उन सभी राजनेताओं , पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने इस विचार का पुरजोर विरोध करना चाहिए.

(रविकिरण शिंदे सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वे कई वेब पोर्टल पर स्वतंत्र लेखन करते हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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