अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या ने राष्ट्रीय नेताओं के लिए सुरक्षा पर वैश्विक दृष्टिकोण को भावी पीढ़ी के लिए बदल दिया. उस समय सुरक्षा के अनिवार्य मानकों में हुई गंभीर चूक की जांच कर रहे आयोग ने काफी भोलेपन से यह स्वीकारा था कि आयोग के अनुसार राष्ट्रपति की सुरक्षा के क्षेत्र में जो उच्च मानक होने चाहिए थे उसमें कुछ कमजोरियां और खामियां थीं.
सिक्योरिटी प्लानिंग एक विस्तारित प्रक्रिया
इस घटना के होने के बाद यह साफ हो गया कि स्पेशलाइज्ड सिक्योरिटी सर्विसेस द्वारा जो सख्त मानक तय किए गए थे और उसमें जो चूक या खामियां देखने को मिलीं वह स्पष्ट थीं, चौंकाने वाली थीं और शायद उन्हें टाला भी जा सकता था.
राष्ट्रपति कैनेडी पर जब हमला हुआ तब पहली गोली उनकी गर्दन पर जाकर लगी थी. इससे शायद उनकी मौत नहीं होती. लेकिन दूसरी गोली इसके पांच सेकेंड के लंबे अंतराल (इस समय को स्पेशल सर्विस के संदर्भ में लाइफटाइम कहा जाता, क्योंकि उन्हें स्प्लिट-सेकंड में प्रतिक्रिया करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता) के बाद चलाई गई. दूसरा शॉट ज्यादा घातक था.
उस समय कैनेडी के सिक्योरिटी इन्चार्ज रॉय केलरमैन आवाक रह गए थे, वे ठहर से गए और उन्होंने गोली की आवाज को पटाखे की आवाज माना. सुरक्षा अधिकारी की तरह ही कैनेडी की ओपन लिमोजिन (खुली छत वाली लिमोजिन) का ड्राइवर विलियम ग्रीर ने न तो गाड़ी को घुमाया और न ही उसकी गति बढ़ाई. हालांकि सामान्यता उसे गाड़ी को मोड़ लेना चाहिए था और उसके आगे बढ़ा लेना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया.
प्रेसीडेंट कैनेडी की गाड़ी के पीछे चलने वाली गाड़ी में जो सिक्योरिटी स्टाफ मौजूद था उसे कमांडर इन-चीफ को बचाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, लेकिन जब प्रेसीडेंट को गोली लगी तब यह स्टाफ अपने शरीर से उनकी बॉडी को कवर करने के लिए सामने नहीं आया.
लगभग 60 वर्षों के दौरान इस मामले में कई तरह के सिद्धांत और स्पष्टीकरण सामने आए हैं, लेकिन अभी तक इस पर कोई निर्णायक मोड़ नहीं आया है क्योंकि यह मामला अभी उन अधिकारियों और विशेषज्ञों के बीच अटकलों में फंसा हुआ है, जिन्होंने सभी संभावित पहलुओं से इसका अध्ययन किया है.
हालांकि अधिकांश अधिकारी और विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि इस घटना में गंभीर रूप से जो सुरक्षा चूक हुई है, उससे महत्वपूर्ण सबक सीखने को मिला है.
वर्तमान में सुरक्षा व्यवस्था पर नजरें दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि छोटी से छोटी बातों को सुरक्षा में ध्यान रखा जाता है. कई सारी एजेंसियों के बीच तालमेल होता है. जहां पर जाना है वहां के माहौल की पहले से परिकल्पना की जाती है. इन सब में गोपनीयता का काफी ध्यान रखा जाता है. व्यवस्था का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि सुरक्षा एक नहीं बल्कि कई स्तर की होती है, रूट क्लियरेंस, जैमर, काउंटर-स्नाइपर यूनिट, हमला यानी असाल्ट यूनिट, निगरानी (सर्विलांस) इकाइयां होती हैं. इसके अलावा यूएस प्रेसीडेंसियल लिमोजिन जोकि एक वर्चुअल बख्तरबंद वाहन है. इसे 'बीस्ट!' के नाम भी जाना जाता है, इसको खास तौर पर तैयार किया जाता है.
किसी भी परिस्थिति के दौरान ऐसा मौका न आए कि कुछ करने को बचे ही न इसके लिए राष्ट्रपति के काफिले को एक जटिल SOP के अधीन किया जाता है, जो 60-70 पेजों का होता है. इसमें कई एजेंसियों के साथ एडवांस प्लानिंग /अलाइन्मेंट, आकस्मिकताओं और काफिले के बाधित होने की स्थिति में रीलोकेशन का विवरण होता है. ऐसा ही सबकुछ भारत में भी होता है.
भारत में जो चूकें हुई हैं, उनका इतिहास दुखद रहा
लोकतंत्र में चुने हुए नेताओं की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वे भारी भीड़ व रैली का उत्साह बढ़ाने के लिए खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं. इस वजह से वे अनजाने में खुद जोखिम में भी डाल लेते हैं.
'एक लोकप्रिय नेता को अपने ही लोगों से बचाने की जरूरत है.' यह एक ऐसा विचार है जो राजनीतिक और वैकल्पिक रूप से पंगु है. इसी वजह से राजनेताओं के लिए तय सुरक्षा या पूर्व की चेतावनियां का उल्लंघन करने के लिए अचानक से जल्दबाजी में और जानबूझकर समझौता किया जाता है. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याओं के साथ, भारत के सुरक्षा उल्लंघनों या चूक का भयानक इतिहास खून से सना हुआ है. बहुत अधिक विस्तार में जाए बिना, दोनों मामलों में प्रशासनिक टूट-फूट, व्यक्तिगत निर्णयों और प्रक्रियात्मक भूलों व खामियों का अपना हिस्सा था, जिसकी वजह से हत्याएं हुईं.
श्रीलंका के राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा से लेकर पाकिस्तानी प्रधान मंत्री बेनजीर भुट्टो और नेपाली शाही परिवार तक, हमारे पड़ोसी देशों में भी इसी तरह की घटनाएं देखने को मिली हैं. जहां नेताओं के चारों ओर अनिवार्य रूप से कठोर सुरक्षा और अलाइन्मेंट के साथ बनाए रखा जाने वाले सुरक्षा घेरे में कहीं न कहीं चूक हो गई.
देश के चोट पहुंचाने वाले और ध्रुवीयकरण करने वाले नैरेटिव को देखते हुए, भारत आज भी सीमा पार से कई विद्रोही या उग्रवादी आंदोलनों और सुरक्षा चिंताओं में उलझा हुआ है. वे बॉर्डर जो विवादों में हैं और जहां हमेशा माहौल गर्म रहता, इनके अलावा देश के अंदर मौजूद समुदायों ने अभूतपूर्व कलह और असंतोष का अनुभव किया है, जो राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ सुरक्षा तंत्र के लिए भी एक चुनौती है.
अटकलों के प्रतिकूल होने की संभावना...
अति-राजनीतिकरण ने व्यावहारिक रूप से दैनिक जीवन के हर पहलुओं को प्रभावित किया है, जिसमें सुरक्षा का संवेदनशील क्षेत्र भी शामिल है. सुरक्षा की बात करें तो यह स्वाभाविक रूप से गोपनीयता, संयम और गैर-राजनीतिक कार्य की विशेषता है.
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत में अब ऐसा नहीं है. हर चीज का राजनीतिक महत्व व मूल्य है, यहां तक कि सुरक्षा की उपलब्धियां और विफलताएं (चूक) भी इसमें शामिल हैं. 2020 की गर्मियों में भारत-चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर जब दोनों देश आमने-सामने हुए उनके बीच आक्रामक झड़प हुई तब इस मुद्दे पर जमकर भ्रम फैलाने वाली राजनीति की गई. क्योंकि तब इस मुद्दे को अधिकृत और सक्षम पदाधिकारियों द्वारा गूढ़ और अकाट्य स्पष्टीकरण के बजाय, इसे मुंहफट शब्दार्थ और विरोधाभासी बयानों के अधीन कर दिया गया था.
तब एक खराब शोरगुल को केवल इसलिए बढ़ने दिया गया क्योंकि न तो सत्ताधारी दल और न ही विपक्षी पीछे हटने को तैयार थे और ये दोनों ही अपनी साख को हासिल करना चाहते थे.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले जैसे कि सीमा पार तनाव के लिए गैर-राजनीतिक व्यवहार और स्पष्टता की आवश्यकता होती है, जोकि लापरवाही और चुनावी पृष्ठभूमि से जैसे संदर्भों से दूर होना चाहिए. आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और अन्य समान ढांचे द्वारा प्रदान की गई कानूनी सुरक्षा से परे, जो अच्छे कारणों से विशेषाधिकार प्राप्त जानकारी की रक्षा करते हैं, उनके बारे में सामान्यता यह भावना दर्शाती है कि ये डोमेन आक्षेपों, अटकलों और षड्यंत्र के सिद्धांतों से मुक्त होने चाहिए. हो सकता है कि आक्षेप, अटकलें और षड्यंत्र जैसे हथकंडे राजनीतिक तौर पर सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जैसे हों लेकिन लंबे समय में देखें तो सुरक्षा इकोसिस्टम के लिए ये हमेशा ही प्रतिकूल रहे हैं यानी ये नुकसानकारक ही होते हैं.
चूंकि संवैधानिक कुर्सी सुरक्षा घेरा और गरिमा की हकदार है, इसलिए देश के शीर्ष नेतृत्व को दी जाने वाली सुरक्षा, चाहे वह राष्ट्रपति हो या प्रधान मंत्री की वह पार्टी के जुनून, स्पिन-डॉक्टरिंग और अनुमानों से परे होनी चाहिए.
जब सुरक्षा या 'वर्दी' के मामले पर बात आती है, तो उन गैर-राजनीतिकों को अर्जित करने और बनाए रखने के लिए उच्च पदों पर नागरिकों और पदधारियों दोनों पर जिम्मेदारी होती है. ऐसे में जाहिर है कि सुरक्षा के मामले आज राजनीतिक तकरार के लिए पूरी तरह से बने हुए हैं.
फालतू की या हल्की बातें किसी के लिए मददगार नहीं
इस दृष्टि से, प्रधान मंत्री के सुरक्षा में हुई चूक की हालिया घटना बहुत दुखद व अफसोसजनक है, क्योंकि यह एक बार फिर अतीत से न सीखे गए सबक, जहरीले राजनीतिकरण और समाज के भीतर "विभाजन" को उजागर करती है, जो देश के लिए किसी भी तरह से अच्छी बात नहीं है. फ्रैक्चर या दरार न केवल केंद्र और राज्य के बीच संबंधों की फूट में दिखाई दे रही है बल्कि यह इंटर-सिक्योरिटी अलाग्नमेंट्स (जो कि किसी भी भौतिक आंदोलन में अपेक्षित है) में भी दिखाई दे रही है. इस फ्रैक्चर या दरार की चिकित्सा एक साथ मिलकर की जानी चाहिए.
एक तरफ चल रहे राजनीतिक पागलपन या अतिरेक के अलावा अगर हालिया सुरक्षा चूक की बात करें तो यह किसी ऐसे वैसे राजनेता नहीं बल्कि भारत के प्रधान मंत्री की सुरक्षा में हुई चूक का मामला था, और सही मायने में यही एकमात्र चिंता का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है.
बाद की सभी बयानबाजी या अतिशयोक्ति, जिसमें यह गया है कि 'सुनने के लिए कोई भीड़ नहीं थी' या 'बठिंडा हवाईअड्डा तक जिंदा लौट पाया' (अभी भी यह अपुष्ट है), ये सभी राजनीतिक लाभ के लिए, इसमें सुरक्षा पारिस्थितिकी तंत्र या संस्कृति में सुधार के लिए कोई वास्तविक उछाल नहीं है.
फालतू या हल्की बातें सुरक्षा प्रणाली और लोकाचार को कमजोर बनाती हैं. ये किसी अभिशाप या बीमारी से कम नहीं हैं. इसे दिखाए गए इरादे और स्पष्टीकरण के साथ रोका जाना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक द्वंद्व के इस माहौल में फालतू की या हल्की बातें ठीक वैसे ही फैल रही हैं जैसे कोई बीमारी फैलती है और इसे फैलने दिया जा रहा है.
पिछली समितियों के विपरीत, यह आशा की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर राज्य द्वारा स्थापित तीन सदस्यीय पैनल वास्तव में त्वरित स्पष्टीकरण और सुधारात्मक कार्रवाई करेगा, क्योंकि यह मुद्दा पक्षपातपूर्ण असहमति, चुनावी दांव या यहां तक कि व्यक्तिगत चिंताओं से परे है. यह भारत के प्रधान मंत्री के बारे में है, जो सरकार के संवैधानिक रूप से नियुक्त प्रतिनिधि और देश के सुप्रीम लीडर हैं.
आने वाले दिनों में उन शब्दों पर पूरा ध्यान दें जो या तो बोले गए हैं या जिनके कहे जाने की अनुमति दी जाती है, क्योंकि वे इसमें शामिल सभी पक्षों द्वारा इसके सही 'उद्देश्य या इरादों' को प्रकट करेंगे.
(लेफ्टिनेंट जनरल भूपेंदर सिंह (रिटायर्ड) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट ना तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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