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मंत्रिमंडल विस्तार: घटती सियासी साख बचाने के लिए मोदी का 'CEO वाला प्लान'

कोरोना कुप्रबंधन और आर्थिक नीतियों में पैरालिसिस के कारण मोदी की सियासी साख घटी है

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इससे पहले कि आप इस आर्टिकल को पढ़ना शुरू करें, मैं आपसे आग्रह करूंगा कि आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) को एक ऐसे सार्वजनिक नवरत्न कंपनी के CEO के रूप में सोचें जो दूसरों की तुलना में बेहतर स्थिति में है. अब इस संदर्भ में मोदी कैबिनेट विस्तार( Modi Cabinet Expansion) को देखते हैं, जिसने दुनिया भर की सुर्खियां बटोरी हैं-मोदी ने महामारी के बीच अपने स्वास्थ्य मंत्री और आईटी और कानून मंत्री को बर्खास्त कर दिया, जिसने उनके आशीर्वाद से ही ट्विटर और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया दिग्गजों के साथ बड़े स्तर पर कानूनी लड़ाई शुरू की थी.

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लीडर भी एक CEO की तरह अपना रणनीति बदलता रहता है और यह साबित करने के लिए अपने वरिष्ठ सहयोगियों को भी बर्खास्त करने से नहीं हिचकता. वह दिखाता है कि कथित रूप से खराब प्रदर्शन करने वालों को दंडित करने में कितना दृढ़ हो सकता है. इस कवायद में वो बॉस के रूप में अपनी ओर से लिए गये संदिग्ध निर्णयों से सबका ध्यान भटका देता है, ऐसा बॉस जिसके पास इस बात का स्पष्टीकरण देने और औचित्य सिद्ध करने की कोई जवाबदेही नहीं है कि उसने मानवीय संकट के बीच अपने मंत्रियों को बाहर का रास्ता क्यों दिखाया.

कोरोना कुप्रबंधन और आर्थिक नीतियों में पैरालिसिस के कारण मोदी की सियासी साख घटी है. राज्यों के चुनावों में बीजेपी के गिरते वोट शेयर से इसमें और गिरावट का खतरा है. इस साख को बचाना ही मोदी का सबसे बड़ा मकसद है. CEO के नजरिए से देखें तो मंत्रिमंडल में फेरबदल उनका रीकैपिटलाइजेशन प्लान है.

मोदी एक CEO की तरह खुद को पावरफुल ब्रांड नेम मानते हैं. वो उस तरह की आलोचना स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, जब दूसरी कोविड लहर ने घरेलू स्तर पर हमें गिरफ्त में लिया और वैश्विक स्तर पर उनकी 'कर सकते हैं' की व्यक्तिगत छवि को भारी धक्का लगा.

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अब एक चुस्त CEO के रूप में उनकी प्रतिक्रिया हमारे सामने है. हांलाकि 12 मंत्रियों को बर्खास्त करना अप्रत्यक्ष रूप से अपनी विफलता को स्वीकारना है, फर्क सिर्फ इतना है कि इसका मूल्य दूसरों के सिर मढ़ा गया है. ऐसा करके उन्होंने न केवल तथाकथित 'नॉन परफॉर्मर' को दंडित किया है बल्कि कुछ ऐसे लोगों को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया है जो थोड़े वरिष्ठ थे और उनके प्रति पूरी तरह आभारी नहीं थे.

CEO का यह अंदाज पुराना है

2014 में पीएम बनने के तुरंत बाद मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी और उनके कई समकालीनों को दरकिनार करने में कोई देरी नहीं की. रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन और प्रकाश जावेडकर वाजपेयी-आडवाणी युग के दौरान विकसित हुए लोगों में से हैं. हटाने की इस कवायद के साथ केंद्र सरकार में विशुद्ध रूप से वाजपेयी युग का अंत हो गया. राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी को छोड़कर कोर टीम अब ज्यादातर मोदी के वफादारों से भरी है.

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पिछले कार्यकाल के बाद सुरेश प्रभु ,उमा भारती और मेनका गांधी तक को बाहर कर दिया गया. नरेंद्र सिंह तोमर और अर्जुन मुंडा के बाद मौजूदा सरकार में स्मृति ईरानी और पीयूष गोयल वरिष्ठता क्रम में ऊपर हैं, लेकिन मंत्रालयों के बंटवारे से लगता है कि उन्हें भी रोक दिया गया है. दोनों को अधिक महत्वपूर्ण विभाग से हटा दिया गया है. निश्चित रूप से वर्तमान स्थिति में उनके लिए कोई प्रमोशन नहीं है.

हमने भूपेंद्र यादव, अश्विनी वैष्णव और अनुराग ठाकुर जैसे मंत्रियों का उदय देखा है. यह एक बार फिर इस बात को साबित करता है कि कैसे मोदी टीम भविष्य के लिए तैयार हो रही है. CEO युवा तुर्कों पर बाजी लगा रहा है और उनकी वफादारी को पहले ही आजमाया और परखा जा चुका है.

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जनाधार नहीं कोर टीम में आने का आधार

बड़े जनाधार वाले कई नेता उनके कोर ग्रुप का हिस्सा नहीं हैं. उदाहरण के तौर पर- शिवराज सिंह चौहान ,योगी आदित्यनाथ और येदियुरप्पा मुख्यमंत्री होने के बावजूद राजनीतिक अर्थों में कोर ग्रुप का हिस्सा नहीं हैं. वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसे अन्य नाम इस बात को स्पष्ट करते हैं कि कैसे मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी 'मोदी युग' के अलगे दौर के लिए आकार ले रही है.

हैवी ऐसेट को लाइट ऐसेट से बदला

मोदी ने जिस मॉडल का अनुसरण किया है, वह है हैवी ऐसेट को लाइट ऐसेट से बदलने का. युवा चेहरों को लाना दरअसल ऐसे चेहरे को लाने की कवायद है जो केवल और केवल उनके प्रति समर्पित हो. नए मंत्रियों में से कईयों की स्थानीय स्तर पर समुदाय के बीच पैठ है, उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन वे लाइट ऐसेट हैं, जिन्हें मैनेज करना आसान है. इसके विपरीत सुशील मोदी को बाहर रखा गया और राज्यसभा के रास्ते आने वाले उनसे तुलनात्मक रूप से जूनियरों को प्रमोट किया गया.

बहुत सारी कमेंट्री के बावजूद मैंने इतना बड़ा विस्तार और बर्खास्तगी नहीं देखी है, जो इतना हैरान करने वाली है. हम बजट के मामले में ऐसा होता देखते हैं. मोदी सरकार के कुछ बजट कई दिनों तक समझ से बाहर रहते हैं. ऐसा हम इस कैबिनेट फेरबदल के बारे में भी कह सकते हैं.
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सबसे बड़ी पहेली है प्रक्रिया से जुड़े लोगों की. जिस तरह का केंद्रीकृत PMO और कमांड स्ट्रक्चर हम देख रहे हैं,उसमें सिर्फ लोगों के बदलाव से शासन का तरीका बदलेगा. वास्तविक परिवर्तन के लिए प्रक्रिया को बदलना होगा. अभी तक प्रक्रिया में बदलाव के कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिख रहे हैं.

जहां तक राजनीति और चुनाव प्रबंधन की बात है तो यह एक बड़ा कदम है. लाइट ऐसेट के साथ रीकैपिटलाइज करना और उसे जूनियर, ऊर्जावान और अधीनस्थ पदाधिकारियों के साथ और सुदृढ़ करना. मोदी एक दूरदर्शी व्यक्ति हैं जिनका ध्यान उस आकार और पैमाने पर अपने विरासत के निर्माण पर केंद्रित है, जो हमने नहीं देखी है. इस नजरिए से यह मंत्रिमंडल विस्तार उसी दिशा में एक और कदम है.
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क्या इस कदम से भारत की मौजूदा समस्याओं को हल करने में मदद मिलेगी, जिसमें वैक्सीन की कमी से लेकर इकनॉमिक रिवाइवल और नौकरियों के प्रश्न शामिल हैं? मैं कैबिनेट विस्तार बाद किए गए लोकल सर्कल के सर्वे का हवाला देता हूं .जबकि कई लोगों ने 'नॉन परफॉर्मर' की बर्खास्तगी का स्वागत किया, केवल 4% नागरिकों का मानना है कि यह कदम बेहतर शासन लाएगा. यह सर्वे 309 जिलों के 9618 नागरिकों के बीच किया गया. 53% लोगों ने कहा कि सुशासन के लिए स्पष्ट उद्देश्यों और जवाबदेही की जरूरत है.

रीकैपिटलाइजेशन की यह कवायद तभी सफल होगी जब सरकार सुशासन देने में सफल रहेगी. अब बहस का मुद्दा यह है कि 3 वर्षों बाद जनता के अगले जनाधार तक CEO के निर्णय पर सवाल कौन उठाएगा?

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