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पुलिस एनकाउंटर: हम भारतीय ‘इंस्टेंट’ इंसाफ का जश्न क्यों मनाते हैं?

हम राजा-बादशाहों के आदी रहे हैं जो अपने दरबार में तुरंत इंसाफ किया करते थे और अक्सर बर्बर सजाएं सुनाया करते थे.

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हैदराबाद के सैदाबाद इलाके में छह साल की बच्ची के रेप और हत्या के मामले में तेलंगाना के श्रम मंत्री मल्ला रेड्डी ने एक वीडियो में कहा है- “हम यकीनन आरोपी को धर दबोचेंगे और उसे एनकाउंटर में ढेर कर देंगे. उसके छूटने का सवाल ही पैदा नहीं होता.” मलकाजगिरी के सांसद और तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस समिति (TPCC) के अध्यक्ष रेवंत रेड्डी ने भी ऐसा ही बयान दिया है कि रेप आरोपी का एनकाउंटर कर दिया जाएगा. सैदाबाद और आस-पास के इलाके में कई प्रदर्शनों में भी ऐसी ही मांग की गई है.

9 सितंबर से बच्ची लापता थी. 10 सितंबर को उसका शव उसके पड़ोसी पल्लाकोंडा राजू के घर से बरामद हुआ. ऑटोप्सी रिपोर्ट में कहा गया है कि उसका रेप हुआ था और फिर गला घोंटकर उसकी हत्या की गई थी.

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दो दिन बाद वारंगल के पास घनपुर पुलिस थाना क्षेत्र में रेलवे ट्रैक पर एक शव मिला. पुलिस का कहना है कि उसके शरीर पर गुदे टैटू से पता चलता है कि वह शव आरोपी का था और यह आत्महत्या का संदिग्ध मामला है. इस आर्टिकल को लिखने तक मृतक की पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हुई थी और इसलिए इस सिलसिले में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता.

‘इंस्टेंट’ न्याय कानून के शासन पर हावी नहीं हो सकता

हालांकि सभी जानते हैं कि हमारे देश में “कानून का शासन” चलता है. इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के मुताबिक, इसका मतलब यह है कि कानून बनाना, उसका प्रवर्तन और कानूनी नियमों के बीच के संबंध कानूनी तरीके से रेगुलेट होते हैं, इसलिए कोई भी व्यक्ति, जिसमें उच्च पदों पर बैठे अधिकारी और सरकार खुद भी- कानून से ऊपर नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें तो, वे ताकत का मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकते.

हां, इस खौफनाक अपराध के लिए उनका गुस्सा जायज है लेकिन मंत्री महोदय को यह याद रखना चाहिए कि ‘इंस्टेंट’ न्याय यानि तत्काल न्याय की उनकी मर्जी “कानून के शासन” पर हावी नहीं हो सकती. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 साफ तौर से कहता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता. ऐसा सिर्फ कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के आधार पर किया जा सकता है. जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता में निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार भी शामिल है.

अब इसके लिए भी किसी स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं, चूंकि सभी जानते हैं कि ‘एनकाउंटर’ में पुलिस का लोगों को मारना, कोई “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” नहीं है.

इसलिए मंत्री महोदय और टीपीसीसी अध्यक्ष के बयान बहुत ज्यादा समस्या भरे हैं. वे इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि देश की राजनीतिक संस्था न्याय देने के लिए जिस तरीके की वकालत करती है, उसकी जड़ में ही खोट है.

राज्य किसी नागरिक को उसके जीवन से महरूम कर सकता है. ऐसा करने का नैतिक अधिकार उसे सिर्फ इसलिए मिलता है ताकि वह अपने बनाए कानूनों का अनुपालन कर सके, और अपराधी इन कानूनों का उल्लंघन करता है. “कानून के शासन” को जनता के दबाव में आकर दफन नहीं किया जा सकता. राज्य को खुद कानून का पालन करना चाहिए, उसे अपने आप कानून हो जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती.

एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट की क्या राय है

पीयूसीएल मामले (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि पुलिस एनकाउंटर में मौत से कानून के शासन और आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता प्रभावित होती है. तब अदालत ने पुलिस बल में लोगों के भरोसे को बरकरार रखने के लिए 16 सूत्रीय दिशानिर्देश दिए थे.

इससे पहले प्रकाश कदम (2011) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फेक एनकाउंटर्स पर नाराजगी जताई थी और इस अमानवीय व्यवहार पर कड़ी फटकार लगाई थी. अदालत ने कहा था कि जिन मामलों में सुनवाई के दौरान यह साबित होता है कि पुलिसवालों ने फेक एनकाउंटर किया था, वहां उन्हें मौत की सजा दी जानी चाहिए और इसे दुर्लभतम मामला माना जाना चाहिए. “फेक एनकाउंटर” उन लोगों द्वारा की गई निर्मम और नृशंस हत्याएं हैं जिनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे कानून की मर्यादा निभाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस वालों को यह चेतावनी भी दी थी कि उन्हें ‘एनकाउंटर’ के नाम पर किसी की हत्या करने पर इस वजह से माफी नहीं मिलेगी कि वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों या आला राजनेताओं के आदेशों का पालन कर रहे थे.

अगर किसी पुलिस वाले को उसका वरिष्ठ अधिकारी फेक ‘एनकाउंटर’ करने का गैरकानूनी आदेश देता है तो यह उसका कर्तव्य है कि वह इस आदेश का पालन करने से इनकार करे, वरना उस पर हत्या का मामला दायर होगा, और अगर वह अपराधी पाया जाता है तो उसे मौत की सजा मिलेगी. ‘एनकाउंटर’ का सिद्धांत, आपराधिक सिद्धांत है और सभी पुलिस वालों को यह पता होना चाहिए. हिंसा प्रेमी पुलिस वाले, जो यह सोचते हैं कि वे ‘एनकाउंटर’ के नाम पर लोगों को मार सकते हैं और फिर सजा से बच सकते हैं, उन्हें यह पता होना चाहिए कि फांसी का तख्ता उनका इंतजार कर रहा है.

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दरअसल भारतीयों की सोच ही सामंती है

दिसंबर 2019 में पुलिस ने हैदराबाद के कथित दिशा गैंगरेप और हत्या मामले में चार आरोपियों को ‘एनकाउंटर’ में मार डाला. बेशक, पुलिस की वही स्टैंडर्ड स्टोरी थी कि आरोपी पुलिस से हथियारों को छीनकर भागने की कोशिश कर रहे थे. वे इस पूरे वाकये को इंसाफ की सुंदर कहानी के तौर पर पेश करना चाहते थे, इसीलिए कथित आरोपियों को उसी जगह पर मार गिराया गया, जहां उन्होंने यह गुनाह किया था.

इस आर्टिकल में मैं यह कोशिश नहीं कर रहा कि हर उस कहानी की कमियां गिनाऊं, जिसे पुलिस ‘एनकाउंटर’ के बाद सुनाया करती है. इस पर मैं अपनी किताब ‘स्टेट परसिक्यूशन ऑफ मायनॉरिटीज़ और अंडरप्रिविलेज्ड इन इंडिया’ में एक पूरा अध्याय, चैप्टर नंबर 8 ‘फेक एनकाउंटर्स: मर्डर मोस्ट फाउल’ लिख चुका हूं.

वैसे यह सच्चाई सबसे अहम है कि एनकाउंटर का सभी स्वागत करते हैं. असल बात तो यह है कि लोगों ने पुलिस वालों के पक्ष में नारे लगाए और उन पर फूलों की बारिश की. न पुलिस और न ही लोगों की यह इच्छा थी कि कानून उन्हें सजा दे.
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देश के बाकी हिस्सों में भी हमें यही देखने को मिलता है कि लोग “एनकाउंटर कल्चर” को व्यापक तौर पर स्वीकार करते हैं और सरकारें भी “टफ और माचो” मानकर इसका समर्थन करती हैं. चूंकि इससे ‘इच्छित’ परिणाम मिलते हैं जोकि दूसरे किसी तरीके से हासिल नहीं किए जा सकते.

हमें सोचना चाहिए कि उचित कानूनी प्रक्रिया के लिए भारतीय लोगों में सब्र क्यों नहीं और वे एक्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग को “सेलिब्रेट” कैसे कर सकते हैं?

ऐतिहासिक दृष्टि से सोचें तो इस सामूहिक विकृति के अपने कारण हैं. यह बताता है कि किस तरह किसी ऐसे देश पर रातों रात वेस्टमिनिंस्टर लोकतंत्र को ‘लागू’ कर दिया गया था जिसकी आत्मा हमेशा से सामंतवादी रही है.

कई सौ सालों तक भारतीय जनता उन राजाओं और बादशाहों की आदी रही है जो अपने दरबार में दो पक्षों की दलीलों को सुनकर तुरत-फुरत इंसाफ कर दिया करते थे. वहां कोई “तारीख पे तारीख” (अदालत का बार-बार मुल्तवी होना) नहीं होती थी और सजा काफी बर्बर होती थी. ऐसे में लोग हमेशा ‘इंस्टेंट’ इंसाफ के ‘अभ्यस्त’ हो जाते हैं.

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कस्टडी में यातना और एक्ट्रा ज्यूडीशियल हत्याएं

भले ही भारत ने अपने लिए सबसे विस्तृत, अलंकृत और आदर्शवादी संविधान बनाया है लेकिन इस देश के लोगों को इसमें या इस देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में कोई विश्वास नहीं है. वे इसमें रहते हैं, इसे सहन करते हैं क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं, या शायद उन्हें इसके कुछ हिस्से सुविधाजनक लगते हैं.

भारतीयों को लगता है कि ब्रिटिश सरकार ने देश में 1861 में जो आपराधिक न्याय प्रणाली लागू की थी, वह उनके मूल्यों और विश्वासों से एकदम अनजान है. भारतीय अधिकारियों को यह कभी पसंद नहीं आई क्योंकि यह जनता पर उनके सामंती अधिकार के लिए खतरा पैदा करती है.

जब तक वे अंग्रेजों के अधीन रहे, उन्हें अपने वरिष्ठों की बात माननी पड़ी. आजादी के बाद यह नियंत्रण खत्म हुआ, तो दैत्य ने अपने सारे नुकीले पंजे खोल दिए. भारतीय पुलिस अधिकारियों और उनके राजनैतिक आकाओं को एहसास हुआ कि कानून, स्वयं में कमजोर था. अगर सही जगहों पर उनका दबदबा बना रहे तो वे हत्या जैसे अपराधों से भी बच सकते हैं.

इससे कस्टडी में यातना, एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल हत्याओं और एनकाउंटर्स की परंपरा की शुरुआत हुई. मर्दानगी का प्रतीक और व्यावहारिक- लोगों को ऐसा ही महसूस हुआ.

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पर यह दलील खोखली है

एनकाउंटर के लिए ज्यादातर लोग दलील देते हैं- न्यायिक प्रक्रिया धीमी है और इसके जरिए उन लोगों को सजा दिलाना मुश्किल होता है जो गवाहों को ‘खामोश’ कर सकते हैं. हालांकि सवाल यह है कि सरकार को कानून में संशोधन करने से कौन रोक रहा है ताकि इंसाफ जल्द मिल सके और सबूतों और गवाहों की हिफाजत के लिए नियम बनाए जा सकें.

असल बात तो यह है कि उनका इरादा ‘इंस्टेंट’ इंसाफ देना नहीं होता, बल्कि ‘इंस्टेंट’ वाहवाही और ईनाम लूटना होता है.

लेकिन किसी भी हालत में “हत्यारे की हत्या” को किसी सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि इसमें आनन-फानन में इंसाफ देने के लिए बदले में हत्या कर दी जाती है.

जैसा कि अमेरिका के पूर्व चीफ जस्टिस अर्ल वारे ने स्पैनो बनाम न्यूयॉर्क मामले (1959) मामले में कहा था, पुलिस को कानून को लागू करते समय कानून का पालन करना चाहिए. पुलिस के गैर कानूनी व्यवहार से जीवन और आजादी को उतना ही खतरा है, जितना वास्तविक अपराधियों से.

(रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉ. एन. सी. अस्थाना केरल के डीजीपी रह चुके हैं. ‘स्टेट परसिक्यूशन ऑफ मायनॉरिटीज़ और अंडरप्रिविलेज्ड इन इंडिया’ और ‘वाई रेप्स: इंडियाज़ न्यू एपिडेमिक’ सहित उन्होंने 49 किताबें लिखी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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