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हिंदी में राजनीति, राजनीति में हिंदी

हम चार भद्रजनों के बीच एकदम सही उच्चारण से महारानी की अंग्रेजी न बोल लिख सकें, तो हमको जीवन व्यर्थ लगने लगता है

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[ ये आर्टिकल क्‍विंट हिंदी पर पहली बार 3 अगस्‍त, 2017 को पब्‍ल‍िश किया गया था. हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर हम फिर से इसे पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं ]

केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने हिंदी को भारत की सबसे उपयुक्त राष्ट्रभाषा कहकर एक बार फिर हिंदी- विरोध का भिडों का छत्ता छेड़ दिया.

केंद्र की सरकार द्वारा दक्षिण भारत या बंगाल पर हिंदी थोपे जाने के खिलाफ सबसे अधिक मुखर वे अहिंदीभाषी विद्वान हैं, जो खुद अपनी मातृभाषा (बांग्ला या तमिल या कन्नड़ आदि) में नहीं लिखते-पढ़ते, न ही हिंदी से इतर भारतीय भाषाओं के मीडिया से उनका कोई समझदार निजी नाता है.

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क्षेत्र विशेष तक सीमित भाषाओं की जो पैरवी वे (सिर्फ अंग्रेजी मीडिया में) करते हैं उसका व्यापक जनभाषा से वही रिश्ता है जो हास्य कविसम्मेलनों का असल कविता से. अपने सूबे में सरकारी राजकाज के लिये भी वे कन्नड या मलयालम माध्यम की पैरवी नहीं करते. उनका अंतिम निष्कर्ष यही रहता है कि अंग्रेजी भी एक भारतीय भाषा है और उसे ही भारत की आदर्श संपर्क भाषा और जनभाषा माना जाना चाहिये.

जब गांधी जी ने 1918 में आठवें हिंदी सम्मेलन में हिंदी को भारत में सत्याग्रह द्वारा अंग्रेजों के उपनिवेशवाद के सक्षम विरोध के लिये राष्ट्रीय भाषा के रूप में चुना था तो जनमत उनके साथ था. पर आजादी के बाद संविधान की साफ सलाह के बावजूद सरकारें कोई साफ भाषा नीति बनाने और लागू करने से बिदकती रहीं.

उधर द्रमुक सरीखे क्षेत्रीय दल हिंदी के खिलाफ मुहिम चला कर चुनाव जीतते रहे. 1960 के आसपास हालात यह थे कि राममनोहर लोहिया को कोयंबटूर में हिंदी भाषण शुरू करते ही छाती पर पत्थर खाना पड़ा और उसकी निंदा की बजाय नेताओं और अंग्रेजी के पक्षधर साहबों की जमात ने इसे बनारस में राजाजी द्वारा अंग्रेजी की पेशकश करने पर किए गये हमले का जवाब करार दिया.

तब से आज तक राष्ट्रभाषा का सवाल एक दिशाहीन जहाज की तरह असमंजस के सागर में डोल रहा है. और इस बीच (चूंकि साक्षरता दर बने के बाद भी देश के दस फीसदी लोग भी अंग्रेजी फर्राटे से नहीं बोलते, पढ़ते या समझते) लोकतंत्र के बावजूद राजकाज आम भारतीय के लिये एक तरह की गुप्त विद्या में गढ़ा गया रहस्यमय टोना टोटका बन गया है जिसमें बिना (मोटी फीस वसूलनेवाले) गुणी-पंडों- ओझा की मदद लिये उनकी कोई सीधी भागीदारी असंभव है.

यह ठीक है कि आज ग्लोबल दुनिया में वित्त से लेकर प्रकाशन जगत तक का सूचना संप्रेषण कार्य अधिकतर अंग्रेजी की मार्फत हो रहा है. लेकिन यह भी है कि घरेलू स्तर पर चीन जापान या फ्रांस में लोकतंत्र और लोकसंप्रेषण की भाषायें स्थानीय ही हैं . वहां आम जन नई तकनीकी में उपलब्ध अनुवाद की मदद से टूटी फूटी अंग्रेजी से ठीक ठाक काम चला कर गर्व महसूस करता है.

पर हम हिंदुस्तानी चार भद्रजनों के बीच एकदम सही उच्चारण से महारानी की अंग्रेजी न बोल लिख सकें तो हमको जीवन व्यर्थ लगने लगता है. असल सलटाने लायक झगड़ा हिंदुस्तानी भाषाओं और अंग्रेजी के बीच है, हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच नहीं. हिंदी पर तो चतुरता से खीझ की गाज गिरवाई जाती रही है ताकि उच्च वर्ग के अंग्रेजीदां ओझा पंडों की वर्ग सीमित जिजमानी सुरक्षित रहे.

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हिंदी के खिलाफ दूसरा तर्क यह है कि इसमें छात्रों और शोध करनेवालों के लिये जरूरी किताबें, जर्नल या शाब्दिक भंडार नहीं हैं और विविधता के कारण उसका कोई सर्वग्राह्य मानक रूप बनाना असंभव होगा. सच तो यह है कि लोकतंत्र में जनभाषा एक ऐसा वाहन है जो सबको बिना भेदभाव ढोता, और परस्पर जोड़ता है. उसमें कितने आधुनिक विषयों की कितनी किताबें या पारिभाषिक शब्दकोष तत्काल उपलब्ध हैं, यह सवाल अपेक्षाकृत गौण है मुख्य बात सीधी भागीदारी की है.

स्वीकार्यता तय हो गई तभी यह कमी दूर होना शुरू होगी जैसा जापान में या चीन में हुआ. भारत में भी गदर के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने सीधे जनसंवाद और नये ज्ञान विज्ञान की तालीम के लिये भारतीय जनभाषाओं का महत्व माना, तो अवध में कई वर्नाकुलर पाठशालायें खोली गईं और अदालती भाषा जटिल फारसी की बजाय उर्दू हिंदी बनीं.

1857 की कड़वी यादों के बावजूद नई पीढ़ी को आधुनिक शिक्षा सुविधा दिलाने को उतावली जनता ने इस मुहिम का स्वागत किया कि साल भर के भीतर दसेक हजार बच्चे उनमें दाखिला ले चुके थे. इसी के साथ नवलकिशोर प्रेस सरीखे छापेखाने सरकारी मदद पा कर रातों रात हर विषय पर हर तरह की पाठ्यपुस्तकें हिंदी उर्दू में फटाफट छापना शुरू किया. न लेखकों की कमी आड़े आई और न ही खरीदारों की कमी हुई.

यहां बल देकर यह कहना जरूरी है, कि जनभाषा के सहज विकास और राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता कायम करने के लिये ‘हिंदी हिंदू हिंदुस्तान’ जैसे भड़काऊ नारों से भाषा का राजनीतिकरण न केवल गलत है, वह अलगाव को गहरा सकता है.

गांधी महापुरुष थे क्योंकि उन्होने मूक जनता को जनभाषा दी. पर वे सिद्धांत और व्यावहारिकता के समसामयिक तकाजे महीन तरह से पकड़ सकते थे. आज वे भी होते तो लगातार राजनीतिकरण से अहिंदीभाषी इलाके की जनता को गुस्से से पागल बनानेवाली भाषा नीति को तुरंत जबरन धुकाने का समर्थन न करते.

जनता की भावनाओं का खयाल कर सरकार को व्यावहारिक और उदार बन शनै: शनै: आगे बढ़ना होगा. भाषा की मुहिम में केंद्र की दबंगई या शॉर्टकट नहीं चलेंगे.

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