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एक असंसदीय सरकार: प्रज्वल रेवन्ना का मामला कितने गड़े मुर्दे उखाड़ेगा?

बीजेपी सरकार महिलाओं के साथ अपराध करने वालों को सजा दिलाने की बजाय, उनका जश्न मनाती है.

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आरोपी प्रज्वल रेवन्ना (Prajwal Revanna) के अपराध का स्केल, उसे दबाने की कोशिश और तमाम तबके के लोगों को निशाना बनाना, इन सभी ने आम लोगों को स्तब्ध कर दिया है. कैसे खेत मजदूरों, घरेलू कामगारों, सरकारी कर्मचारियों, पार्टी की महिलाओं को परेशान किया गया, धमकी दी गईं, डर पैदा किया गया. अपहरण, जोर जबरदस्ती, दुष्कर्म जैसे अपराध किए गए. अगड़ी जातियों की सामंतवादी, वर्चस्ववादी और पितृसत्तात्मक सोच, राजनैतिक ताकत का बेशर्मी से इस्तेमाल और कानून के साथ खिलवाड़, उसकी सामाजिक हैसियत, अपराध का शिकार होने वालों की तकलीफ, सभी पक्षों के राजनैतिक हित, ये सब इंटरनेट पर मौजूद हैं.

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इस मामले के कई पहलू हैं. इसमें राजनैतिक ताकत, दौलत, जाति, सामंतवादी सोच, परिवार का नाम, जेंडर, संस्थागत पतन, चुनावी गठबंधन, व्यक्तिगत राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता, जातिगत वोट बैंक और बहुत कुछ घुला-मिला है. ये सब मिलकर इस मुद्दे को अहम बनाते हैं. इसीलिए यह जटिल मामला आम लोगों की समझ से बाहर है. सो, इस भूलभुलैया में पड़ने की बजाय इंसाफ का रास्ता ही पकड़ना चाहिए.

लेकिन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने बृजभूषण के बेटे को उम्मीदवार बनाकर, परिवार की राजनैतिक ताकत को संभालने, उसे पोषित करने और उसे आगे बढ़ाने का न्योता दिया है. दोनों मामलों में, मौजूदा सांसदों- राज्य के नुमाइंदों- पर कई महिलाओं का यौन उत्पीड़न करने, उनके साथ दुर्व्यवहार और दुष्कर्म का आरोप लगाया गया है.

मणिपुर का मामला और वीभत्स है. वहां दमन, सरकार के आलस और कुछ सबूतों के विस्फोट का मतलब है कि राज्य की छत्रछाया में महिलाओं के साथ दरिंदगी की जा रही है, वह भी बड़े और अकल्पनीय पैमाने पर. शायद यह बेरोकटोक अब भी जारी है.

यहां तक कि जब हम इन अपराधों में राज्य और उसके एजेंटों की भूमिका की तरफ इशारा कर रहे हैं, तब भी नाराज नागरिक और राजनैतिक वर्ग, कुशलता पूर्वक और व्यावहारिक, दोनों तरह के कदम उठाने की मांग कर रहे हैं- जैसे आरोपी का प्रत्यर्पण कराया जाए और स्वतंत्र जांच कराई जाए. साथ ही मृत्यु दंड जैसे कड़े कदम उठाने को भी कहा जा रहा है.

इसलिए खुद को यह याद दिलाना जरूरी है कि लोकतंत्र में क्या करना चाहिए? अपराध के शिकार लोगों के लिए इंसाफ, दोषियों के लिए उचित सजा, चाहे उनकी हैसियत कोई भी हो, साथ ही भविष्य में इस प्रकृति और इस पैमाने के अपराधों रोकने के लिए कानून, नीतियां और प्रक्रियाएं स्थापित करना जरूरी है और यही वह आखिरी रास्ता है, जिसके सामने हम पिछले 20 सालों से खड़े हैं.

एक पैटर्न नजर आता है

हम पिछले साल के तीन मामलों में देख सकते हैं कि राज्य या राज्य का कोई एजेंट महिलाओं के साथ अपराध में शामिल था. अगर हम उनकी तरफ नजर दौड़ाएं तो एक पैटर्न उभर कर आता है.

गुजरात की बीजेपी सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बिलकिस बानो दुष्कर्म केस के 11 दोषियों की सजा माफ कर दी.

उत्तर प्रदेश के बीजेपी विधायक रामदुलार गोंड को एक बच्ची के दुष्कर्म के मामले में सजा सुनाई गई लेकिन पार्टी ने 10 दिन बाद उसकी विधानसभा सदस्यता रद्द की.

इसी तरह जब उन्नाव के चार के बार के बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को पॉक्सो के तहत दुष्कर्म का दोषी ठहराया गया तो पार्टी ने 2022 में उसकी बीवी को विधानसभा का उम्मीदवार बनाया. इस मामले में भी अदालत के आदेश पर सेंगर की सीबीआई गिरफ्तारी के बावजूद बीजेपी ने उसे करीब एक साल के बाद पार्टी से निकाला.

यूं सभी राजनैतिक दलों और उनकी सरकारों के सांसदों और विधायकों पर महिलाओं के साथ अपराधों के गंभीर आरोप लगते रहे हैं और अब भी लग रहे हैं, लेकिन ऐसी हर सरकार को उसके बुरे बर्ताव के लिए कुर्सी से उतार दिया जाता है और अगली सरकार को बेहतर लोकतंत्र निर्माण के लिए चुना जाता है, न कि उसे दागदार करने के लिए.

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यहां एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के 2009 से 2014 के आंकड़े दिए गए हैं. इनमें महिलाओं के साथ अपराध के घोषित मामलों वाले दो सांसद हैं, जबकि 2014 से 2019 के दौरान महिलाओं के साथ अपराध के घोषित मामलों वाले सांसदों की संख्या में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

नरेंद्र मोदी सरकार से पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकारें यौन उत्पीड़न के कारण कई सामाजिक उथल-पुथल की गवाह बनीं, जिनमें से कुछ राज्य के एजेंट शामिल थे, (जैसे पहले भंवरी देवी मामला, लेकिन लगातार विरोध और राज्य पर दबाव के साथ) और कुछ दूसरे अपराधियों ने (जैसे निर्भया मामला).

लेकिन 2004 से 2014 के बीच कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों ने यौन उत्पीड़न, यौन शोषण या दुष्कर्म के मामलों में अलग तरह से विधायी पहल की.

1. निर्भया (ज्योति सिंह) के साथ अपराध के बाद जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों के मुताबिक, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में एसिड हमलों जैसे नए अपराध जोड़े गए, दुष्कर्म को व्यापक बनाया गया आदि.

2. कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013 बनाया गया.

3. यौन अपराध से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 लागू किया गया, जिसका उद्देश्य बच्चों के हितों की रक्षा के साथ-साथ, यौन उत्पीड़न, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी से उन्हें बचाना है.

4. दुष्कर्म के आरोपियों और उसका शिकार महिलाओं की मेडिकल जांच, हिरासत में दुष्कर्म की न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा जांच आदि पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005.

5. परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा यौन उत्पीड़न (वैवाहिक बलात्कार के अलावा) से महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम, 2005.

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पिछले 10 साल में सिर्फ एक पहल

बीजेपी सरकार में पिछले 10 साल में महिलाओं के साथ अपराधों पर सिर्फ एक कानून पारित किया गया, जबकि महिलाओं के साथ अपराधों में भारी वृद्धि हुई. यह है, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018, जिसने बालिगों और बच्चों के साथ दुष्कर्म और बच्चों के सामूहिक दुष्कर्म के लिए न्यूनतम सजा बढ़ा दी.

लेकिन निर्भया अधिनियम को इस अधिनियम में शामिल करने के बाद पांच साल में जस्टिस वर्मा समिति की किसी भी सिफारिश पर अमल नहीं किया गया. महिलाओं के साथ अपराधों पर कोई अन्य कानून पेश नहीं किया गया या उस पर चर्चा नहीं की गई.

हालांकि, भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता, 2023 ने सामूहिक दुष्कर्म के मामले में बालिग मानी जाने वाली पीड़िता की उम्र 16 से बढ़ाकर 18 साल कर दी. उसने शादी का वादा करके या धोखे से बनाए गए यौन संबंधों को भी अपराध घोषित किया.

असल में, यह कानून रिग्रेसिव ही कहा जाएगा क्योंकि यह बालिग महिलाओं की इंटरकोर्स की सहमति को कमजोर करता है और इसके तहत झूठे मामले बनाना आसान हो जाएगा.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, बलात्कार की घटनाएं 2004 में 18,233 से दोगुनी होकर 2014 में 36,735 हो गईं.

2022 में NCRB ने सिर्फ बच्चों से दुष्कर्म के 38,911 मामले और महिलाओं के साथ हिंसा के 4,45,256 मामले दर्ज किए. इन चौंकाने वाले आंकड़ों के साथ भी बीजेपी सरकार ने सिर्फ एक ठोस विधायी पहल की. यानी सिर्फ एक कानून बनाया.

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इसके अलावा महिलाओं से यौन अपराधों के जिन मामलों में राज्य या उसके एजेंट आरोपी या दोषी हैं, उन्हें संसद में स्वीकार भी नहीं किया गया. जबकि सांसदों और उम्मीदवारों के यौन अपराधों के आंकड़ों पर सत्तारूढ़ दल को चर्चा करनी चाहिए, ऐसे कानून का मसौदा तैयार करना चाहिए, जिनमें निर्वाचित व्यक्तियों के यौन अपराधों को खास तवज्जो दी जाए, पर बीजेपी ने एक अलग ही अड़ियल रवैया अपनाया है.

मणिपुर से लेकर उत्तर प्रदेश और दिल्ली से लेकर कर्नाटक तक, महिलाओं के साथ ऐसे अपराध बढ़ रहे हैं, लेकिन सरकार चुप्पी साधे बैठी है. उससे भी बुरी बात यह है कि अपराधियों का जश्न मनाया जा रहा है. प्रधानमंत्री या गृह मंत्री की ओर से महिलाओं को कोई आश्वासन नहीं मिला, यहां तक कि जहां उनके अपने राज्य एजेंट की भी मिलीभगत हो. इस सिलसिले में कोई कानून बने, उससे पहले कम से कम यह कदम तो उठाया जाना चाहिए.

विदेशों में कानून

अमेरिका जैसे अन्य देशों और कई यूरोपीय और अफ्रीकी देशों ने महिला मतदाताओं के साथ सांसदों के दुर्व्यवहार के मामलों में कानून बनाए हैं. भारत में यह पॉश अधिनियम के अंतर्गत नहीं आता है क्योंकि इसके लिए पीड़िता का कर्मचारी होना जरूरी है.

विदेशी कानूनों में सांसदों, विधायकों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाता है कि इस अपराध में क्या-क्या शामिल है- सेक्सुअल एडवांसेज, बदले की भावना आदि. इसमें असल मामलों के उदाहरण देकर प्रशिक्षित किया जाता है. चूंकि शक्ति का संतुलन नहीं होता, इसलिए उत्पीड़न की आशंका बनी रहती है. इसके लिए सांसदों, विधायकों के दफ्तरों में फ्लायर्स मौजूद रहते हैं कि महिला मतदाताओं के साथ संवाद के क्या नियम हैं. ऐसे कानून और नीतियों से महिलाओं को भरोसा होता है कि लोकतंत्र जिंदा है और उनकी जरूरतों के मुताबिक विकसित हो रहा है. साथ ही बदमाश सांसद, विधायकों को चेतावनी भी मिलती है.

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कई देश अपनी जेंडर ओम्बड्समैन एजेंसियों, जैसे भारत के राष्ट्रीय और राज्य महिला आयोगों को स्वायत्त तरीके से और सक्रियता से काम करने की मजबूती देते हैं. जैसा कि स्पष्ट है, पिछले दशक में बीजेपी सरकार ने संसदीय विमर्श और विधायी सुधारों पर कोई ध्यान नहीं दिया.

जब सामाजिक व्यवधानों का एक पैटर्न उभरता है, तो लोकतंत्र में शांति और सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए विधायी पहल की जाती है. शांति न्याय से पैदा होती है और सद्भाव, समानता और भाईचारे से.

अगर सामाजिक उथल-पुथल पैदा होती है तो संसद का मकसद होता है, कानून बनाकर उसे शांत करना. संसद को कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन यह सरकार का काम है कि वह कानून का मसौदा तैयार करे और उसे सदन के पटल पर रखे.

संसद उस पर बहस करती है, और उसे पारित करती है. अगर सत्तारूढ़ सरकार सलाह-मशविरे के साथ, और लोकतांत्रिक तरीके से सुधार करने की बजाय कृषि संकट पर आंखें मूंद लेती है, तो वह क्षेत्र खत्म हो जाएगा.

अगर वह एमएसएमई को मजबूत करने और रोजगार सृजन की नीतियां तैयार करने की बजाय बेरोजगारी को नजरअंदाज करती है, तो बेरोजगारी बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था धीरे धीरे ढह जाएगी.

इसी तरह, अगर वह नारी शक्ति के नारे लगाती रहेगी, लेकिन अपराधी विधायकों, सांसदों को सजा दिलाने वाले कानून नहीं बनाएगी, तो समाज स्त्री द्वेष के दलदल में धंस जाएगा. और, औपचारिक क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं की गैर मौजूदगी से जीडीपी पर भी असर होगा, जैसा कि आज हो रहा है.

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अगर इसकी तुलना यूपीए सरकार के 10 सालों से की जाए तो पता चलता है कि तब कई मामलों में नागरिक समाज के नेतृत्व में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर कड़े कानूनी प्रावधान किए गए थे. यकीनन, संसदीय लोकतंत्र की जो विधायी जिम्मेदारी है, यह उसे पीछे हटने जैसा है. नागरिकों, खास तौर से महिलाओं, को लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों- महिलाओं के लिए न्याय और समानता- के प्रति सत्तारूढ़ बीजेपी की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाना पड़ेगा.

(तारा कृष्णास्वामी पॉलिटिकल शक्ति की सह-संस्थापक हैं, जो नागरिकों का एक नॉन-पार्टिसन ग्रुप है. यह ग्रुप राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी के लिए कैंपेन चलाता है. तारा @taruk पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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