न्योता स्वीकार करना बड़ी बात थी. कुछ लोगों के मुताबिक काफी विवादित भी. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम को संबोधित कर वाकई बड़ी दिलेरी दिखाई. उन्हें पता था कि वो ऐसी जगह जा रहे हैं जहां उनकी विचारधारा से ठीक उलट मान्यता रखने वाले लोग होंगे. प्रणब के पास एक कड़क भाषण देकर 'अल्बर्ट कामू' जैसा काम करने का मौका था. लेकिन उन्होंने एक ढुलमुल कांग्रेसी जैसा भाषण दिया.
दार्शनिक और साहित्यकार अल्बर्ट कामू को 1940 के दशक में एक ईसाई समूह के सामने बोलने का न्योता दिया गया. वो खुद एक नास्तिक थे लेकिन भारी आस्था रखने वाले लोगों के बीच बोलने के लिए उन्होंने हामी भर दी. प्रणब दा के सामने शायद यही असमंजस रहा होगा. कामू की तरह उन्होंने डायरेक्ट बात नहीं की.
कामू ने वहां क्या कहा था इसके कुछ नमूने देखिए.
उनके मुताबिक हर विचारधारा से बातचीत जरूरी है, लेकिन ये भी जरूरी है कि बातचीत उनके बीच हो जो अपने दिल की बात बोलते हों. धर्म के नाम पर अगर हत्या होती है तो इसे सही ठहराने वाला अधर्मी होता है, अपने मानव होने का अधिकार भी खो देता है.
माना कि कामू एक दार्शनिक थे और वो अपनी बात बड़ी बेबाकी से कह सकते थे. शायद प्रणब दा को इस तरह की लग्जरी नहीं है. लेकिन वो शायद इतना तो कह ही सकते थे कि डायलॉग वहीं संभव है जहां बातचीत दिल से हो. क्या आरएसएस के नेता और कैडर पूरी साफगोई से बोलते हैं?
प्रणब और भागवत के स्पीच में खास अंतर था क्या?
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के भाषण के हिस्सों पर गौर कीजिए- विविधता हमारी खासियत है, मतभेद होना स्वभाविक है, विविधता में सुंदरता है. इन शब्दों का सार क्या है? इसका मतलब है कि जितने भी लोकप्रिय 'इज्म' हैं- सेक्युलरिज्म, लिबरलिज्म, प्लूरलिज्म सबका वो सपोर्ट करते हैं. कुल मिलाकर देश की विविधता में उनकी पूरी आस्था है और विचारों और काम की स्वतंत्रता पर पूरा भरोसा. वाकई बहुत अच्छी बात है.
यही सारी बातें तो प्रणब दा ने भी कही. देश विविधता से भरा है. भारत की आत्मा उसकी विविधता में बसती है. धर्मनिरपेक्षता हमारे लिए आस्था का सवाल है और भारत का राष्ट्रवाद एक भाषा या एक धर्म वाला नहीं है. सारे शानदार अल्फाज. लेकिन इन अल्फाजों से पहले उन्होंने भारतीय इतिहास की एक झलक भी दी. मौर्य साम्राज्य की तारीफ की. गुप्त साम्राज्य के कसीदे पढ़े.
देश के जाने माने विश्वविद्यालयों जैसे नालंदा, विक्रमशीला और तक्षशीला का गुणगान किया. लेकिन उसके बाद एक गुगली भी डाल दी. मुस्लिम आक्रमणकारियों का हस्तक्षेप और उसके बाद का 600 साल. फिर अंग्रेज व्यापारियों के हाथ में सत्ता जाने का काल. बिना बताए हुए उन्होंने एक डार्क एज की तरफ संकेत कर दिया जो करीब 1,200 साल तक चला.
क्या उन्होंने इशारे में ही आरएसएस के भारतीय इतिहास की परिकल्पना को मौन सहमति दे दी? इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुस्लिम, आततायियों की तरह देश में आए. लेकिन अगले 600 साल तक वो आततायी ही रहे? क्या मुस्लिम शासकों का कोई योगदान नहीं रहा? आरएसएस के कार्यक्रम में यह बोलकर प्रणब दा किस तरह का संदेश देना चाह रहे थे?
क्या आरएसएस वही है जो इसके नेता बोलते हैं?
प्रणब दा से ज्यादा शायद किसी को भी पता नहीं होगा कि आरएसएस की दुनिया, बयानों से बाहर वाली भी है. यह कहना तो बहुत आसान है कि भारत विविधताओं वाला देश है. दरअसल, भागवत साहब ने अपने भाषण में विविधता शब्द का कई बार उपयोग किया. लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग नहीं है क्या?
- मंदिर निर्माण, राष्ट्र निर्माण कैसे हो सकता है?
- दो अलग-अलग धर्मों को मानने वालों के बीच प्रेम संबंध 'लव जिहाद' कैसे हो सकता है?
- एक नई कैटेगरी 'जमीन जिहाद' वाली भी बन गई है. इसका कौन सा अस्तित्व है?
- मुस्लिम कैसे पाकिस्तानी या बाबर के औलाद हो जाते हैं?
- ये सारे आरएसएस और उसकी विचारधारा मानने वालों के शब्दकोष के शब्द नहीं हैं?
- विविधता अगर स्वीकार्य है तो एक ही तरह के हिंदू आचरण को हर किसी पर थोपने की जिद क्यों है?
क्या प्रणब मुखर्जी चूके नहीं?
ये सारे शब्द या स्लोगन विविधता बढ़ाने वाले तो नहीं हो सकते. क्या प्रणब बाबू ने इनका जिक्र नहीं करके, चूक कर दी?
उन्होंने आरएसएस को यह क्यों नहीं कहा कि 'वसुधैव कुटुम्बकम' जीने वाले महात्मा गांधी को उतना सम्मान क्यों नहीं दिया गया, जिसका वो हमेशा से हकदार रहे हैं.
प्रणब बाबू ने ये क्यों नहीं कहा कि राष्ट्र-निर्माण हमेशा अपने-पराए के बीच झगड़ा करा कर नहीं किया जा सकता है. थोड़ा सा मतभेद जताने वालों को भद्दी गाली देने से नहीं होता, देशद्रोही घोषित कर देने से नहीं होता.
भविष्य में इतिहास लिखने वाले ये सारी बातें नहीं बोलने के लिए प्रणब बाबू की आलोचना करेंगे.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरएसएस देश में रची बसी संस्था है. इसको ठीक से समझने की जरूरत है, इससे डायलॉग की जरूरत है. लेकिन डायलॉग बेबाक होना चाहिए. प्रणब बाबू को इसका क्रेडिट तो मिलना ही चाहिए कि उन्होंने डायलॉग की शुरुआत की. लेकिन बेबाक बातें नहीं कर शायद उन्होंने बड़ा मौका गंवा दिया.
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