बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की खासियत रही है कि सहयोगियों की अच्छी या बुरीपब्लिसिटी का उनकी इमेज पर खास असर नहीं पड़ता है. चाहे वो लालू प्रसाद की आरजेडी को सहयोगी बनाए या फिर बीजेपी को, उनके कुशल प्रशासक, जो सारे तबकों को साथ लेकर चलता हो, ऐसी छवि कायम रहती है.
यही वजह है कि उनका सहयोग जिस गठबंधन को मिल जाए उसकी जीत पक्की मानी जाती है. कम से कम बिहार के पिछले 7 चुनावों (विधानसभा और लोकसभा) में से 6 में ऐसा ही हुआ है.
इन 6 में 5 बार नीतीश की जेडीयू बीजेपी के ही साथ रही है और एक बार लालू प्रसाद की आरजेडी के साथ (2015 विधानसभा चुनाव में ). एक ही अपवाद 2014 का लोकसभा चुनाव रहा है जब वो अकेले लड़े थे और उनकी पार्टी का बहुत ही खराब प्रदर्शन रहा था.
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का जागरुकता अभियान काम करेगा क्या?
ऐसे में क्या लंबे समय के सहयोगी रहे प्रशांत किशोर की आलोचना का असर नीतीश कुमार के इमेज पर होगा? प्रशांत किशोर की बातों का सार कुछ इस तरह है. चुनावी रणनीतिकार किशोर का कहना है कि नीतीश कुमार के 15 साल के शासन काल में बिहार में दूसरे राज्यों की तुलना में हालात में बहुत सुधार नहीं हुए हैं. सारे मापदंडों पर बिहार 15 साल पहले भी सबसे पिछड़े राज्यों में से एक था. आज भी वहीं पर जमकर बैठा हुआ है.
उनका आरोप है कि नीतीश कुमार ने अपनी अलग पहचान खो दी है. उनके अनुसार कभी महात्मा गांधी को मानने वाले नीतीश अब “गांधी विरोधी” भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े हैं. कभी बिहार के सुप्रीम लीडर रहे नीतीश अब दूसरे की हामी भरने वाले रह गए हैं. प्रशांत किशोर मानते हैं कि बिहार में तरक्की हुई है, लेकिन उतनी नहीं जितनी राज्य की क्षमता है.
इन्हीं सब बातों को प्रचारित करने के लिए उन्होंने अपनी नई पहल ‘बिहार की बात’ शुरू करने का ऐलान किया है. इसके जरिए वो राज्य के लोगों को इन मसलों पर जागरूक करेंगे और संदेश फैलाएंगे कि कैसे बिहार देश का एक अग्रणी राज्य हो सकता है.
क्या आठ महीने के बाद राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को प्रशांत किशोर की इस मुहिम से नुकसान होगा? विपक्ष ने किशोर के इस अभियान को समर्थन देने का फैसला किया है.
नीतीश की अलग पहचान से NDA को फायदा
रणनीतिकार की भूमिका में तो प्रशांत किशोर काफी असरदार रहे हैं. कुछ अपवादों को छोड़कर, चुनाव में उनके रणनीति का काफी अच्छा नतीजा रहा है. लेकिन जागरुकता अभियान उनके लिए बिल्कुल नई कोशिश होगी. इसलिए इसका चुनाव के नतीजों पर कितना असर होगा, इसका आकलन लगाना मुश्किल है.
हां, अगर प्रशांत किशोर की पहल का यह असर होता है कि नीतीश और उनकी पार्टी की अलग पहचान पर सवाल उठने लगे तो चुनाव पर इसका असर हो सकता है. कभी इनसाइडर रहे प्रशांत किशोर की इस पहल, जिसे वो खुद वैचारिक लड़ाई मानते हैं, को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है.
इसकी दो बड़ी वजह हैं-
- पहला, नीतीश कुमार के जिस इमेज की हम बात पहले कर चुके हैं वो अगर डायल्यूट होता है तो इसका इसका नुकसान एनडीए को हो सकता है. बिहार के लोगों को शायद ये अच्छा ना लगे कि उनके लीडर की वैचारिक धारा कहीं और से कंट्रोल हो रही है.
- दूसरी बात ये है कि पिछले 15 सालों में नीतीश ने अपनी एक लॉयल वोट बैंक तैयार की है. इसमें सबसे अहम रहे हैं अति पिछड़ा वर्ग, महादलित और मुसलमानों का एक तबका. इसके अलावा कोइरी और कुर्मी जैसी पिछड़ी जाति कही जाने वाली वर्गों का भी नीतीश को खासा सपोर्ट मिलता रहा है.
सर्वे बताते हैं कि जेडीयू को महिलाओं का भी ज्यादा वोट मिलता रहा है और राज्य में शराबबंदी के बाद इस ट्रेंड को शायद मजबूती मिली है.
नीतीश का वोट बेस बीजेपी को फायदा पहुंचाता है
सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक, 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को करीब 70 परसेंट कोइरी-कुर्मी का, 76 परसेंट अति पिछड़ों का और करीब उतना ही दलितों का वोट मिला. इसी की वजह से एनडीए ने चुनाव में 53 परसेंट वोट शेयर के साथ राज्य की 40 में से 39 सीटें जीतीं. एकमात्र हारने वाली सीट रही किशनगंज की थी जहां मुस्लिम आबादी करीब 70 परसेंट है और यही पैटर्न हाल के सारे चुनावों में दिखा है.
इन तबकों का एनडीए को वोट दिलाने में नीतीश का सोशल इंजीनियरिंग का बड़ा हाथ रहा है. अति पिछड़े और महादलितों की कैटेगरी को उनके शासनकाल में कई सरकारी फायदें मिले हैं.
वेलफेयर स्कीम्स में इनका खास खयाल रखा गया है. इसलिए जिस किसी गठबंधन के साथ नीतीश होते हैं, उसको इन तबकों का खूब वोट मिलता है. इसे कह सकते हैं नीतीश का अपना वोट बैंक जो बीजेपी के अपर कास्ट वोटर बेस को कॉप्लिमेंट करता है.
दो अलग-अलग पहचान (नीतीश के जेडीयू की और बीजेपी की) की वजह से दोनों पार्टियां एक दूसरे को मदद करते हैं, एक दूसरे के पूरक होते हैं जिसका फायदा पूरे एनडीए को मिलता है. लेकिन नीतीश की जेडीयू अगर बीजेपी की एक्सटेंशन दिखने लगती है- समान विचारधारा और समान नीतियां- तो दोनों पार्टियों का अलग-अलग सोशल बेस एक दूसरे का पूरक रह पाएगा?
नीतीश जी ने अगर यह सुनिश्चित कर लिया तो 15 साल के इनकंबेसी के बावजूद वो फिर से चुनाव में बाजी मार सकते हैं. लेकिन अलग-अलग बेस अगर हाल के दिनों के आक्रामक हिंदुत्व की वजह से बिखरने लगते हैं तो नतीजा कुछ और ही हो सकता है.
(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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