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भारत को पहली आदिवासी या पहला IAS राष्ट्रपति नहीं, संविधान को बचाने वाला चाहिए

President Election 2022 : सरकार असुरक्षित और सत्तावादी हो तो वो कमजोर व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना चाहती है

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"भारत को राष्ट्रपति की जरूरत क्यों है?" यह एक सुस्त और बार-बार दोहराया जाने वाले सवाल है. भले ही राष्ट्रपति को तत्कालीन सरकार द्वारा या बहुमत की इच्छा से भी अनुमोदित किया गया हो, लेकिन केवल राष्ट्रपति के पास ही संवैधानिक और प्रत्यक्ष तौर पर असंवैधानिक विशिष्टता या भावना के कृत्यों को रोकने की शक्ति है. देश के दोनों उच्च पदों, प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति के बीच बारीक अंतर यही है कि प्रधान मंत्री से भारत के संविधान का 'पालन/सम्मान' करने की अपेक्षा की जाती है, जबकि भारत के संविधान की रक्षा की 'जिम्मेदारी/अधिकार' राष्ट्रपति को दी गई है. चाहे सुनने में यह कितना भी घिसा-पिटा लगे राष्ट्रपति संविधान का 'अंत:करण' रक्षक है, जबकि राष्ट्रीय कैबिनेट के मंत्रियों के 'प्रधान' को स्वाभाविक तौर पर पक्षपातपूर्ण और वैचारिक प्राथमिकता दी जाती है.

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स्नैपशॉट
  • प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति के बीच बारीक अंतर यही है कि प्रधान मंत्री से भारत के संविधान का 'पालन/सम्मान' करने की अपेक्षा की जाती है, जबकि भारत के संविधान की रक्षा की 'जिम्मेदारी/अधिकार' राष्ट्रपति को दी गई है.

  • सरकार जितनी ज्यादा असुरक्षित और सत्तावादी होती है, वह उतने ही कमजोर व्यक्ति को रायसीना हिल पर 340 कमरों वाले वैभव का निवासी बनाने के लिए प्राथमिकता देती है.

  • आज भारत अपने 15वें राष्ट्रपति की प्रतीक्षा कर रहा है, ऐसे में एकमात्र गुण जो राष्ट्रपति में मायने रखता है वह यह कि राष्ट्रपति एक मुखर 'संविधानवादी' हो. बाकी के 'पहला आदिवासी', 'पहला आईएएस' जैसे टाइटल केवल प्रतीकात्मक हैं और भटकाने का काम करते हैं.

इसलिए एक मजबूत (ताकतवर) और कर्तव्यनिष्ठ राष्ट्रपति किसी नागरिक के संवैधानिक अधिकारों और विशेषाधिकारों को कम नहीं करता है, वह वास्तव में उन अधिकारों की रक्षा करता है. इसके अलावा वह सरकार को भी इसे अस्वीकार करने से रोक सकता / सकती है. स्वाभाविक तौर पर अगर ऐसा होता है तो व्यवस्था जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर 'आइडिया ऑफ इंडिया' के मौलिक स्वरूप (भारत के संविधान के समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक आदर्श जो नागरिकों को न्याय और स्वतंत्रता की गरिमा का आश्वासन देते हैं) को फिर से लिखना या नए सिरे से व्याख्या करना चाहती है को एक पुनर्स्थापनात्मक पुश-बैक दिया जा सकता है.

आजादी के बाद से सभी पक्षपातपूर्ण व्यवस्थाएं समझदार 'संविधानवादी' से डरती रही हैं इसके बजाए वे एक 'रबर स्टाम्प' चाहती हैं जो चुपचाप उनके सुर में सुर मिलाए. सरकार जितनी ज्यादा असुरक्षित और सत्तावादी होती है, वह उतने ही कमजोर व्यक्ति को रायसीना हिल पर 340 कमरों वाले वैभव का निवासी बनाने के लिए प्राथमिकता देती है.

इमरजेंसी और एक ताकतवर राष्ट्रपति होने के जोखिम 

एक असुरक्षित और सत्तावादी सरकार के सामने झुकने वाले राष्ट्रपति के क्या खतरे या जोखिम हो सकते हैं उसे 25 जून 1975 की आधी रात को काली स्याही से रेखांकित किया गया था. उस वक्त के राष्ट्रपति का अकादमिक (कैम्ब्रिज के पूर्व छात्र, प्रैक्टिसिंग वकील और सरकार के एडवोकेट-जनरल), राजनीतिक (मेंबर ऑफ स्टेट असेंबली, सांसद, कैबिनेट मंत्री) और "राष्ट्रवादी" पहचान ('भारत छोड़ो' आंदोलन के दौरान जेल गए, आदि) के रिकॉर्ड काफी अच्छे थे. लेकिन जब उन्होंने विनम्रता से आपातकालीन उद्घोषणा के मसौदे पर हस्ताक्षर किए तब उनके मान में गिरावट आई, क्योंकि उन्होंने अपने स्वयं के कानूनी दिमाग और सहयोगियों की सलाह (मसौदे पर हस्तारक्षर न करने की सलाह) के बावजूद ऐसा किया था.

ऐसा कहा जाता है कि उस काली रात राष्ट्रपति ने सोने के लिए नींद की दवा ली होगी.

ऐसा नहीं था कि व्यक्तिगत पहचान, ज्ञान और पेशेवर उपलब्धियों की कमी थी जिसने भारत के लोकतंत्र और 'पहले नागरिक' को नीचा दिखाया था. बल्कि वहां सिर्फ इतनी सी बात थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति ने निर्विवाद (एक ऐसा व्यक्ति जिसके काम पर कोई सवाल नहीं उठा सके) 'संविधानवादी' के तौर पर काम नहीं किया था.

वह केवल नम्र, कृतज्ञ और उस समय की राजनीतिक शक्तियों को स्वीकार करने वाले थे.

सभी रंगों और कट्‌टर वैचारिक संबद्धताओं के राजनेताओं ने बेहद प्रतीकात्मक नामों जैसे 'पहला मुस्लिम', 'पहली महिला', 'पहला सिख', 'पहला दलित' आदि का प्रस्ताव करके मुद्दों को अपनी ओर करने (और एक आज्ञा मानने वाले राष्ट्रपति हासिल करने) की कुटिल या कपटपूर्ण कला में सिद्धी हासिल कर ली है. यह निडर 'संवैधानिकता' की जरूरत को कम करते हुए पब्लिक ट्रैक्शन (जनता को आकर्षित करने के लिए कुछ नया करना) और भावनाओं को सुनिश्चित करता है. यहां पर एकमात्र जरूरत 'संवैधानिकता' की होती है, इसकी ('संवैधानिकता') तुलना में बाकी की राजनीतिक-प्रशासनिक अनुभव, शिक्षा या व्यावसायिक उपलब्धि चाहे जितनी भी हो वह कम ही होती है. लेकिन भावनात्मक और पक्षपातपूर्ण नागरिकों को 'संवैधानिकता' के बजाय प्रतीकात्मक संतुष्टि को स्वीकार करने के लिए राजनेताओं की चाल से आसानी से रिझाया और बहकाया जा सकता है.

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कैसे जैल सिंह की अंतरात्मा की आवाज ने उन्हें गाइड किया

1982 के पंजाब विद्रोह की पृष्ठभूमि के तौर पर राष्ट्रपति जैल सिंह ('पहले सिख' राष्ट्रपति), राजनीतिक प्रोत्साहन (किसी को मनाने या राजी करने के लिए कुछ करना ) का प्रतीक है. उनका एक बयान काफी चर्चित और प्रसिद्ध रहा उन्होंने कहा था कि "अगर मेरी लीडर ने यह कहा होता कि मैं झाड़ू भी उठाऊं और सफाई करने वाला (स्वीपर) बनूं तो मैंने वह किया होता. उन्होंने मेरा चयन राष्ट्रपति बनने के लिए किया." यह एक प्रकार की आज्ञाकारिता (चापलूसी) है, जिसने उनको ऊपर उठाने (उत्थान) में मदद की होगी.

लेकिन पंजाब की घटनाओं के बाद के जो मोड़ आया उसकी वजह से उनके व्यवहार और उनकी अंतरात्मा की आवाज (अंतःकरण) ने उन्हें 'संविधानवादी' के तौर पर अपनी सही भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया. इसके बाद जैल सिंह किसी और के नियंत्रण से बाहर होकर खुद के नियंत्रण में हो गए और तत्कालीन प्रधान मंत्री ( जो जैल सिंह की अपनी पूर्व पार्टी से थे) की कई रातों की नींद हराम कर दीं.

उन्होंने डाक विधेयक (Postal Bill) पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया, इस बिल के पास होने से सरकार को निजी मेल को इंटरसेप्ट (लगभग पेगासस जैसा) करने के लिए असीमित आजादी मिल मिल जाती. ऐसे में इस बिल को अस्वीकार करना संवैधानिक भावना और नागरिकों के हित में राष्ट्रपति की अप्रसन्नता के महत्व को रेखांकित करता है.

केआर नारायणन की विरासत

कई कार्यकाल के बाद, जैसे-जैसे राजनेता राजनीतिक दिखावे और दलित सशक्तिकरण के प्रतीकवाद की दिशा में आगे बढ़े वो अनजाने में एक शानदार मिट्‌टी-के-लाल को लेकर आए जो व्यक्तिगत, पेशेवर एवं राजनीतिक उपलब्धियों और 'प्रथम दलित' राष्ट्रपति से कहीं ज्यादा थे. वो एक बेहतरीन 'संविधानवादी' थे. जैसा कि केआर नारायणन ने "within the four corners of the Constitution" में वर्णित किया है, उन्होंने चुपचाप और गरिमापूर्ण ढंग से राष्ट्रपति की भूमिका के लिए बेंचमार्क को केवल 'रबर-स्टैम्प' से बदलकर 'कार्यशील' राष्ट्रपति के तौर पर कर दिया.

केआर नारायणन के जैसा राष्ट्रपति कार्यकाल और अभिव्यक्ति आज लगभग अविश्वसनीय प्रतीत होती है. केआर नारायणन ने आज्ञाकारी या शांत रहने वाली परिपाटी को तोड़ा, उन्होंने नरमी से अपने सुझाव दिए और उन्होंने जब यह देखा कि संविधान के शिष्टाचार से कोई समझौता हो रहा है तो वहां उन्होंने अपनी असहमति भी व्यक्त की. भले ही यह बात सिर्फ नैतिक जांच की ही क्यों न हो लेकिन उसमें नागरिकों को एक संवैधानिक सहारा का आश्वासन दिया गया था.
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मैन ऑफ लेटर्स (केआर नारायणन) ने पहले से लिखे हुए ड्रॉफ्ट्स का उपयोग नहीं किया, क्योंकि वह अपने कार्यालय में अथक रूप से काम करते हुए, देर रात तक अपने शब्दों को तराशते थे. भारतीय गणराज्य की स्वर्ण जयंती पर उन्होंने अपने भाषण में सतत असमानता, विषमता, सामाजिक असंतोष और शासन में जवाबदेही की आवश्यकता पर अपनी बात रखी. उनके इस भाषण से तत्कालीन सरकार खुश नहीं हो सकती थी. यह दलगत राजनीति नहीं बल्कि सकारात्मक दबाव था.

केआर नारायणन अराजकतावादी नहीं थे. उन्होंने राष्ट्रपति भवन में पथ-प्रदर्शक पत्राचार की प्रथा शुरू की ताकि मुद्दो पर उनकी राय का जनता और मीडिया को पता चले. उन्होंने दो मामलों में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग करने वाली फाइलों को 'पुनर्विचार' के लिए लौटा दिया था और उनके बारे में यह कहा जाता है कि 2002 के गुजरात दंगों से निपटने के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री से सीधे अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की थी.

नैतिक भावना को नारायणन ने कैसे बनाए रखा

केवल केआर नारायणन ही संप्रभुता के नैरेटिव को उसके नैतिक केंद्र में पुनर्स्थापित कर सकते थे. जैसे कि उन्होंने एक दावत की स्पीच के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को कूटनीतिक तौर पर फटकार लगाते हुए कहा : "वैश्वीकरण का मतलब इतिहास, भूगोल एवं दुनिया की जीवंत और रोमांचक विविधताओं का अंत नहीं है. जैसा कि एक अफ्रीकी नेता ने एक बार कहा था कि दुनिया एक वैश्विक गांव है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसे एक गांव के मुखिया द्वारा चलाया जाए." यह एक भविष्यवाणी जैसी टिप्पणी थी जो उनकी अचूक शालीन और सही शैली में थी.

भारत जिस धार्मिक बारूद के ढेर पर बैठा था उसे पहचानते हुए, केआर नारायणन ने पूजा स्थलों या देवी-देवताओं से बचने की नीति अपनाई. फिर भी उन पर ध्रुवीकरण के संभावित खतरे कम नहीं हुए. धर्म को राज्य से अलग करने वाले उपबंधों की वैधानिकता से परे, नारायणन भारतीय संविधान की व्यापक भावना में विश्वास रखते थे. वे अपने आचरण (व्यवहार), भाषण और निष्कर्षों (अनुमान) में किसी भी धर्म से 'दूरी' प्रदर्शित करने के महत्व को समझते थे.

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'पहले' के लिए मत टूट पड़िए

इस समय जैसा कि भारत अपने 15वें राष्ट्रपति का इंतजार कर रहा है, ऐसे में एकमात्र गुण जो राष्ट्रपति में मायने रखता है वह यह कि राष्ट्रपति एक मुखर 'संविधानवादी' हो. इसके अलावा हर दूसरा पहलू पूरी तरह से भटकाव और पक्षपात (किसी व्यक्ति के लिए तथ्यों और परिस्थितियों पर उचित विचार किए बिना समर्थन करना) है. यह व्यक्ति राजेंद्र प्रसाद, एस राधाकृष्णन, जाकिर हुसैन, जैल सिंह, केआर नारायणन और एपीजे अब्दुल कलाम आदि की शानदार सूची में शामिल हो जाएगा और उनसे अपनी व्यक्तिगत लालसा और वफादारी से परे जाने की उम्मीद की जाएगी.

'पहले' के प्रतीकवाद के लिए टूट पड़ना (जैसे कि "पहली ट्राइबल" या "पहला आईएएस नौकरशाह" क्रमशः द्रौपदी मुर्मू और यशवंत सिन्हा की विशेषताएं हैं.) संविधानवादी होने के सिर्फ एक गुण जो वास्तव में मायने रखता है, की अनदेखी करने के समान है.

दोनों उम्मीदवार एक प्रभावशाली राजनीतिक करियर का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें पार्टी-होपिंग (पार्टी बदलना) भी शामिल है. और इसलिए टाईब्रेकर का फैसला पूरी तरह से आत्मपरीक्षण के बाद ही किया जाना चाहिए.

यह तो समय ही बताएगा कि यह स्वविवेक या अंतरात्मा (अंतःकरण) का वोट होगा या पार्टी के प्रति वफादारी का वोट होगा. भारतीय लोकतंत्र अभूतपूर्व समय का सामना कर रहा है, जो एक 'संविधानवादी' राष्ट्रपति की मांग कर रहा है. यह नितांत जरूरी है कि इस 'संस्था' (‘institution’) की जीत हो और यह राजनीति के सामने सिर न झुकाए.

(रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल भूपिंदर सिंह अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह और पुडुचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुके हैं. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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