यह सर्वविदित है कि राजनीति में कोई स्थायी तौर पर दोस्त या दुश्मन नहीं होता है. इसके बावजूद भी कुछ दिन पहले तक पीएम नरेंद्र मोदी की खुले तौर पर आलोचना करना वाली तृणमूल कांग्रेस (TMC) सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हालिया टिप्पणी को सुनकर आश्चर्य हुआ. पीएम मोदी के प्रति अचानक से सीएम ममता के सुर बदल गये हैं, उन्होंने पीएम के बारे में अच्छे विचार व्यक्त किए हैं.
ममता ने इस सप्ताह की शुरुआत में कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में प्रवर्तन निदेशालय (ED) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के तथाकथित 'दुरुपयोग' (जरूरत से ज्यादा उपयोग) के लिए पीएम जिम्मेदार हैं.
ममता ने कहा "सीबीआई अब पीएमओ (प्रधान मंत्री कार्यालय) के अधीन नहीं है. केंद्रीय गृह मंत्रालय अब इस एजेंसी को चलाती है. कोलकाता में ईडी ने 21 छापेमारी की है. एक महीने में ईडी और सीबीआई ने 108 मामले दर्ज किए हैं. मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं कर रहे हैं. ये काम बीजेपी के प्रदेश नेता कर रहे हैं."
ममता ने कहा है कि उन्हें नहीं लगता कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच में प्रवर्तन निदेशालय (ED) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के तथाकथित 'दुरुपयोग' (जरूरत से ज्यादा उपयोग) के लिए पीएम जिम्मेदार हैं.
टीएमसी महासचिव अभिषेक बनर्जी को भी केंद्रीय एजेंसियों की जांच की आंच का सामना करना पड़ रहा है. शिक्षक भर्ती घोटाले में कथित संलिप्तता के आरोप में टीएमसी के दो पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी और परेश चंद्र अधिकारी जेल में हैं. पार्टी के बाहुबली नेता अनुब्रत मंडल भी कस्टडी में हैं.
यह याद दिलाते हुए कि ममता और उनकी पार्टी कभी बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से जुड़ी थीं. कांग्रेस और विपक्ष ने तुरंत उन्हें (ममता को) दक्षिणपंथी ताकतों के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताया है.
पश्चिम बंगाल गंभीर वित्तीय संकट से जूझ रहा है ऐसे में उसे अपने कोष में केंद्रीय धन के सुचारू प्रवाह की जरूरत है. इसके साथ ही एक डर इस बात का भी है कि बीजेपी बंगाल में टीएमसी के साथ वह कर सकती है जो उसने महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ किया.
पार्टी तनाव के बीच मोदी को ममता की 'क्लीन चिट'
सीबीआई और ईडी द्वारा विपक्षी नेताओं को स्पष्ट रूप से निशाना बनाने में सभी आरोपों से मुक्त करते हुए ममता ने ऐसे समय में पीएम पर विश्वास जताया है जब इन जांच एजेंसियों की जांच की आंच का सामना ममता की अपनी पार्टी के कई नेताओं को करना पड़ रहा है, जिनमें उनके भतीजे और टीएमसी महासचिव अभिषेक बनर्जी भी शामिल हैं.
शिक्षक भर्ती घोटाले में कथित संलिप्तता के आरोप में टीएमसी के दो पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी और परेश चंद्र अधिकारी जेल में हैं. पार्टी के बाहुबली नेता अनुब्रत मंडल भी हिरासत में हैं. वहीं करोड़ों रुपये के कोयला घोटाले में संभावित संलिप्तता को लेकर अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी की जांच की जा रही है.
पीएम मोदी को लेकर बंगाल के मुख्यमंत्री द्वारा की गई अनुकूल टिप्पणी पर कांग्रेस और सीपीआई (एम) जैसे अन्य विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. इन्होंने टीएमसी प्रमुख पर प्रधान मंत्री पर नरम रुख अपनाने और उन्हें तब "क्लीन चिट" देने का आरोप लगाया है जब यह माना जा रहा है कि विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने और उन्हें परेशान करने के लिए केंद्र सरकार ईडी और सीबीआई का दुरुपयोग कर रही है.
यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि जब तक कि पीएम और उनके गृह मंत्री अमित शाह द्वारा हरी झंडी नहीं दे दी जाती तब तक प्रमुख विपक्षी नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियों की ताकत को दिखाने के फैसले शायद ही कभी लिए जाते हैं.
मोदी के प्रति ममता की नरमी क्या इशारा करती है?
तो क्या वाकई में मोदी को लेकर ममता 'नरम' हो गई हैं? 2021 में बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान मोदी और बीजेपी के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ने और इसे व्यापक रूप से जीतने के बाद, क्या उन्होंने (ममता ने) तय किया है कि अब पीएम के साथ सुलह वाला राग अलापने का समय आ गया है?
यदि हां तो, ऐसा क्या हुआ कि मोदी के प्रति हमेशा नाराजगी दिखाने वाली ममता की स्थिति में नाटकीय बदलाव आ गया और उनको (ममता को) मोदी में समझदारी वाली सराहनीय क्वॉलिटी दिखने लगी.
हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वही मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने कई मौकों पर प्रधानमंत्री को इंतजार कराया, मोदी के साथ की बैठकों से बाहर चली गई, कोविड वैक्सीन सर्टिफिकेट पर अपनी तस्वीर लगाने के लिए उन पर (मोदी पर) कटाक्ष किया इसके साथ ही खुद को एक संयुक्त विपक्ष की नेता और 2024 में उनके लिए संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में सीधे तौर पर पेश किया.
लेकिन यह सब पहले की बात है. ऐसा लगता है कि ममता ने पिछले कुछ महीनों के दौरान आम तौर पर बीजेपी और विशेष रूप से मोदी के विरोध में सार्वजनिक आलोचना के अपने तीखे प्रहार को कम कर दिया है. इसके बजाय उन्होंने तय किया है कि वे अपने गुस्से को राज्य के बीजेपी नेताओं पर केंद्रित करेंगी. जाहिर तौर पर ममता ने 21 जुलाई को कोलकाता में अपनी वार्षिक मेगा रैली के दौरान मोदी का बिल्कुल भी जिक्र नहीं किया.
बीजेपी पर टीएमसी की सिलेक्टिव टारगेटिंग विपक्षी गुट को परेशान करती है
रुख बदलने का पहला स्पष्ट संकेत तब देखने को मिला जब अगस्त में टीएमसी ने उपराष्ट्रपति पद के लिए बीजेपी उम्मीदवार जगदीप धनखड़ का विरोध नहीं करने का फैसला किया. बंगाल के राज्यपाल के तौर पर धनखड़ का ममता के साथ कटुपूर्ण और उथल-पुथल भरा संबंध रहा था, इस तथ्य के बावजूद सभी को चौंकाते हुए टीएमसी ने मतदान से दूरी बनाते हुए परोक्ष रूप से उपराष्ट्रपति के तौर पर उनका (धनखड़ का) समर्थन किया.
अगर वह चौंकाने वाला वाक्या था, तो इस महीने की शुरुआत में ममता का यह बयान कि "आरएसएस में हर कोई बुरा नहीं है" भी कम चौंकाने वाला नहीं था. बेशक कांग्रेस और विपक्ष ने यह याद दिलाते हुए कि ममता और उनकी पार्टी कभी बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से जुड़ी थीं, उन्हें (ममता को) दक्षिणपंथी ताकतों के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताया. और इसके बाद ममता का प्रधानमंत्री को बदले की किसी भी राजनीति से दूर करने का एक छू लेने वाला प्रयास देखने को मिला. हो सकता है या नहीं भी हो सकता कि उनके इस प्रयास के पीछे का कारण सीबीआई और ईडी द्वारा विपक्षी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के ढेरों मामले हैं.
इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बंगाल के राजनीतिक हलकों में आज मिलियन-डॉलर के जिस सवाल पर चर्चा हो रही है वह यह है कि ममता ने इस विद्रोही छवि को क्यों थोड़ा और उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर मोदी पर हमला करने से दूरी बनाने का फैसला क्यों किया?
निहित स्वार्थ से प्रेरित है क्या ममता का मोदी तुष्टिकरण?
इस सवाल का जवाब अटकलों और साजिशों के सिद्धांतों के दायरे में हैं. बंगाल की सियासी अफवाहों के मुताबिक ममता और मोदी के बीच एक "सेटिंग" हो गई है. ये "सेटिंग" तब हुई जब अगस्त की शुरुआत में दोनों की दिल्ली में आमने-सामने की बैठक हुई थी.
मुख्यमंत्री के नजदीकी संबंधियों को कथित भ्रष्टाचार के लिए केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच का सामना करना पड़ रहा है. चर्चा यह भी है कि सीएम और पीएम के बीच किसी तरह की डील की गई है जिसके तहत बंगाल में 2024 के लोक सभा चुनाव में टीएमसी पर्दे के पीछे से बीजेपी का समर्थन करेगी और इसके बदले उनके नजदीकियों के खिलाफ चल रहे मामलों में नरमी बरती जाएगी. उस स्थिति में यह समझ में आता है कि ममता बीजेपी के सुप्रीम नेता यानी नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने के बजाय केवल राज्य के बीजेपी नेताओं तक ही अपना गुस्सा सीमित क्यों रख रही हैं.
क्या मोदी के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में पीछे हटेंगी ममता?
एक थ्योरी यह भी चल रही है कि हो सकता है यह देखते हुए कि आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल मोदी के लिए एक चुनौती के रूप में खुद को देख रहे हैं और कांग्रेस भी बीजेपी को हराने के प्रयास में किसी अन्य पार्टी के नेतृत्व को स्वीकार करने के मूड में नहीं है. टीएमसी प्रमुख इस निष्कर्ष पर पहुंचीं होंगी कि 2024 तक एक एकीकृत बीजेपी विरोधी पार्टियों को एक साथ लाना मुश्किल होगा.
जनता दल (यूनाइटेड) यानी जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव का भी अपना एजेंडा है. इस स्थिति में ममता के लिए क्षेत्रीय से राष्ट्रीय स्टेज पर जाना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण और मुश्किल होगा.
इसलिए हो सकता है कि उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला हो कि प्रधान मंत्री के साथ अपनी दुश्मनी को तेज करने में इस समय उनके (ममता के) पास खोने को बहुत कुछ है. पश्चिम बंगाल गंभीर वित्तीय संकट में है और राज्य के कोष में केंद्रीय धन के सुचारू प्रवाह की जरूरत है, वहीं हमेशा यह डर बना रहता है कि बीजेपी बंगाल में टीएमसी के साथ वह कर सकती है जो उसने महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ किया, यह देखते हुए मोदी के प्रति गैर-लड़ाकू रवैया अपनाने से ममता को फायदा हो सकता है.
हाल ही में नरेंद्र मोदी के प्रति ममता में जो बदलाव आया है, उसमें अंतर्निहित वास्तविक कारण आने वाले महीनों में स्पष्ट हो जाएंगे. जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक अगर वह (ममता) प्रधानमंत्री के बारे में कुछ और उदार टिप्पणी करती हैं, तो इस बात को लेकर चौंकने की जरूरत नहीं है.
(शुमा राहा, एक पत्रकार और लेखिका हैं. वह @ShumaRaha से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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