प्रिया रमानी एमजे अकबर के मानहानि के मुकदमे से बरी हो गई हैं. सब तरफ खुशी दौड़ गई है. खासकर महिला पत्रकार बधाइयां दे-ले रही हैं. एक ताकतवर से जीत की इस शुरुआत में जश्न मनाना लाजमी है. बारहा निराशा के बाद भी हम अदालतों की ओट लेकर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. प्रिया रमानी के मामले में यह और पुख्ता होता है. लेकिन अदालत का यह फैसला महिलाओं से ज्यादा पुरुषों को खुद को जांचने-जोखने का मौका देता है. अपनी आंखों में छाई धुंध को भेद पाने का मौका. अगर पुरुष अदालत के फैसले से कुछ सीखना चाहें तो उनके लिए पांच सूत्र इस तरह हैं-
1. दसियों साल बीत जाने के बाद भी आपको जवाब देना पड़ सकता है
प्रिया ने राजनीतिज्ञ और पत्रकार एमजे अकबर पर मीटू अभियान के समय यौन शोषण के आरोप लगाए तो अकबर ने पलटकर प्रिया पर ही मानहानि का मामला दायर कर दिया. इस पूरे मामले में लगातार ये बात उठती रही कि दसियों साल बीत जाने के बाद मामला क्यों उठाया गया. मीटू मुहिम के आलोचक बार-बार यही कहते रहे कि ये औरतें सालों पहले के मामलों को क्यों उछालती हैं? तब मुंह सिए क्यों बैठी रहती हैं? इस दलील का जवाब अदालत ने खुद ही दिया है. उसने कहा है कि महिलाओं को दशकों के बाद भी अपनी शिकायत सामने रखने का अधिकार है. कई बार पीड़ित व्यक्ति मानसिक आघात के कारण सालों तक नहीं बोल पाता है.
ऐसा अक्सर होता है. प्रतिष्ठित लोगों के खिलाफ बोलना मुश्किल होता है. पत्रकार यासिर उस्मान की किताब ‘रेखा- द अनटोल्ड स्टोरी’ से पता चलता है कि फिल्म इंडस्ट्री में बड़े हीरो नई हिरोइन्स का शोषण किया करते हैं. 1969 की फिल्म ‘अंजाना सफर’ की शूटिंग के दौरान रेखा और बिस्वजीत के बीच एक किसिंग सीन फिल्माया जाना था. इसके बारे में रेखा को बिल्कुल पता नहीं था. यह डायरेक्टर राजा नवाठे और बिश्वजीत की योजना थी. किसिंग सीन पांच मिनट का था जिसके बाद रेखा की हालत ही खराब हो गई. वह उस समय इंडस्ट्री में नई-नई थीं. क्या इसे तब यौन शोषण कहा जाता था? क्या किसी को इसके लिए जवाबदेह माना जाता था. आज से पचास साल पहले सेक्सुअल हैरेसमेंट को लेकर क्या हम कोई वोकैलबरी बना पाए थे? जाहिर सी बात है. अदालत ने माना है कि सालों बीत जाने के बाद भी सेक्सुअल प्रेडेटर को जवाब देना पड़ सकता है.
2. अदालतों में औरतों की बात का वजन है
अदालत ने इस बात पर भी मुहर लगाई है कि औरत जो कह रही है, उसकी बात को अदालत में अनसुना नहीं किया जाएगा. चूंकि आम तौर पर औरतें कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेने से कतराती हैं. मीटू अभियान का सबसे बड़ा टेकअवे यह था कि सर्वाइवर्स के लिए यह लीगल सिस्टम पूरी तरह नाकाम हो चुका है.
अक्सर विक्टिम के साथ कलप्रिट जैसा व्यवहार किया जाता है. केपीएस गिल यौन शोषण मामले में सर्वाइवर रूपन देओल बजाज के पक्ष में फैसला आने मे 17 साल लग गए. भंवरी देवी के साथ गैंग रेप के मामले में विशाखा गाइडलाइन्स आ गईं लेकिन भंवरी को 27 साल बाद भी इंसाफ नहीं मिला. ऐसे में औरतों के पास न्याय प्रणाली के बाहर किसी और मंच का सहारा लेने के अलावा बचता भी क्या है.
इसी के चलते 2017 में कैलीफोर्निया में कानून की पढ़ाई करने वाली राया सरकार ने अपने फेसबुक पेज पर ऐसे लगभग 70 प्रोफेसरों की लिस्ट जारी की थी, जिन्होंने अपनी छात्राओं का यौन शोषण किया है. राया ने दूसरी लड़कियों से अपील की थी कि वे भी ऐसे लोगों के बारे में बताएं जो उनका उत्पीड़न कर चुके हैं. राया की अपील के बाद अनगिनत लड़कियों ने उन्हें संदेश भेजे थे.
अब प्रिया रमानी को बरी करते हुए अदालत ने कहा है कि महिलाएं अपनी पसंद के किसी भी प्लेटफॉर्म पर अपने मामले को रख सकती है. उन्हें संविधान के तहत अनुच्छेद 21 और समानता के अधिकार की गारंटी दी गई है. इससे यह साफ होता है कि अगर औरतें, अपनी बात कहना चाहती हैं तो उनकी बात सुनी जाएगी. चूंकि अदालत ने प्रिया के साथ हुई नाइंसाफी का एक हिसाब किया है.
3. मानहानि के मामले में पुरुष की प्रतिष्ठा कोई मायने नहीं रखती
प्रिया रमानी ने हैशटैग मीटू अभियान के तहत एमजे अकबर पर ट्वीट करके आरोप लगाया था. इसके बाद कई महिलाओं ने उन पर शोषण के आरोप लगाए. प्रिया ने एक पत्रिका में भी बिना नाम लिए उनका जिक्र किया था. इसके बाद अकबर ने प्रिया पर मानहानि का मामला दायर किया. उन्होंने कहा कि उनकी समाज में प्रतिष्ठा थी, जो उनके ट्वीट के बाद खराब हो गई. रमानी ने अपने बचाव में दलील दी कि यौन दुराचार का एक आरोपी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा होने का दावा नहीं कर सकता है. इस सिलसिले में अदालत ने कहा है कि अकबर उत्कृष्ट प्रतिष्ठा के व्यक्ति नहीं थे. फिर प्रतिष्ठा का अधिकार गरिमा के अधिकार की कीमत पर संरक्षित नहीं किया जा सकता है.
दरअसल प्रभुता और छल का संबंध जगजाहिर है. न्याय सुनिश्चित करने वाली प्रक्रियाएं छल और बल को धर्मशास्त्र सम्मत भी मानती हैं. परंपरा भी साम दाम दंड भेद को अनुमोदित करती है. जब बाहुबल के नशे में न्याय अप्रासंगिक होता जा रहा हो तो प्रिया रमानी का बरी होना बहुत मायने रखता है. इसीलिए प्रिया की रिहाई न्याय व्यवस्था में महिलाओं के यकीन के लिए बहुत जरूरी हो जाती है. इसके अलावा यह पुरुषों को बताती है कि उसका रुतबा उनके असत्य पर यकीन करने का कारण नहीं हो सकता.
4. न्याय व्यवस्था गरिमा के अधिकार का सम्मान करती है
जैसा कि अदालत ने कहा कि गरिमा का अधिकार, प्रतिष्ठा के अधिकार से बड़ा है. अगर प्रिया रमानी की गरिमा को ठेस पहुंचती है तो वह उनके साथ खड़ी होगी. अक्सर यौन उत्पीड़न के मामलों में औरतों का गरिमा तार-तार की जाती है. खुद अदालतें कई बार इसका सम्मान नहीं कर पातीं. इस गरिमा के अधिकार के लिए औरतें लगातार गुहार लगाती रही हैं. 2019 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने कहा था कि उसे गरिमा के अधिकार की रक्षा को लेकर ज्यादातर शिकायतें मिलती हैं. गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार कैटेगरी में आयोग को चार हजार से ज्यादा शिकायतें मिली थीं. इन मामलों में घरेलू हिंसा के अलावा, पुलिस के दुर्व्यवहार के मामले भी शामिल थे. प्रिया रमानी के मामले में अदालत ने गरिमा के अधिकार का उल्लेख किया है, जोकि कई बार पुरुष को निर्दोष इश्कबाजी लग सकता है लेकिन किसी के लिए वह उत्पीड़न भी हो सकता है.
5. निर्दोष इश्कबाजी और उत्पीड़न में फर्क इरादे का है
अदालत के इस फैसले का अंतिम संदेश यह है कि जब ऐसे किसी दिलपसंद इशारे के बिना मौखिक या शारीरिक बढ़त बनाई जाती है तो वह यौन उत्पीड़न कहलाता है. यौन उत्पीड़न दरअसल यौन कृत्य है भी नहीं. यह हकदारी दिखाने का एक ताकतवर तरीका है जिसके बारे में व्यक्ति बखूबी जानता है कि वह क्या कर रहा है. पर पक्की तौर पर मानता है कि किसी महिला के प्रेम पर उसका हक है, भले ही महिला बार-बार यह संकेत देती रहे कि वह इसे नापसंद करती है. इश्कबाजी और उत्पीड़न के बीच का जो अंतर है, वह है इरादा. अगर पुरुषों को इश्कबाजी और उत्पीड़न के बीच के फर्क को समझना है तो उसे पहले अपने व्यवहार को ही समझना होगा. उसे समझना होगा कि अपनी हद महिलाएं खुद तय करती हैं. पुरुषों को बस उस हद को पार करने से बचना होगा.
(माशा लगभग 22 साल तक प्रिंट मीडिया से जुड़ी रही हैं. सात साल से वह स्वतंत्र लेखन कर रही हैं. इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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