Project Cheetah: ठीक एक साल पहले मैं 900 किलोमीटर लंबी सड़क यात्रा पर निकली थी, स्टोरी तक पहुंचने की कोशिश करना, उस स्टोरी से भी अधिक मुश्किल लग रहा था. दूसरे हाई प्रोफाइल पार्कों से एकदम उलट, कुनो नेशनल पार्क भारत के सफारी मैप पर कहीं भी मौजूद नहीं है.
यहां ऐसा कोई रिसॉर्ट नहीं है, जहां आपका स्वागत खुशबूदार तौलिए के साथ किया जाए, या भूरे रंग की जिप्सी में आपके साथ आपका पर्सनल नेचरिस्ट हो, यानी किसी फैंसी सफारी का कोई आकर्षण यहां नहीं है. यहां एक प्राइवेट रिसॉर्ट है, जो कभी मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग का हुआ करता था और तब वहां ग्वालियर के मनमौजी पहुंचते थे, जिनका मकसद पृथ्वी के सबसे तेज धावक से मिलने की बजाय स्विमिंग पूल में आनंद लेना होता था क्योंकि तब वहां सिर्फ यही सुविधा उपलब्ध थी.
दिल्ली से इस थकान भरी यात्रा के बाद मुझे नेशनल पार्क के भीतर 20 किलोमीटर का सफर भी तय करना था और बारिश ने इसे और मुश्किल बना दिया था.
भारत में प्रॉजेक्ट चीता का लॉन्च
चूंकि अभी तक चीते नहीं आए थे, न ही प्रधानमंत्री की सिक्योरिटी आई थी तो मैं पार्क में जाने और वहां की तैयारियों को देखने के लिए आजाद थी. आप अपनी खुली आंखों से कूनो को देखते हैं, जो बारिश के चलते हरा-भरा है. इसकी तुलना खुले सवाना के घास के मैदानों के साथ की जा सकती है, जो अफ्रीका में चीतों का प्राकृतिक आवास है.
क्या सोचा जा सकता है कि यह पूरी परियोजना इतनी बड़ी और कठिन क्यों होने वाली थी, खास तौर से जानवरों की निगरानी करने वाले लोगों के लिए. हां, ये चीते यहां की मूल प्रजातियां नहीं हैं. उनके अफ्रीकी रिश्तेदार हैं.
बहरहाल, भारत ने उन्हें अपना ही माना और वैज्ञानिकों, वन अधिकारियों और सामान्य कर्मचारियों की एक पूरी बटालियन इस बात के लिए मुस्तैद किए गए कि इन मेहमानों को भारत में एडजस्ट करने में दिक्कत न हो. कुल मिलाकर सितंबर 2022 और फरवरी 2023 में दक्षिणी अफ्रीका से बीस चीतों को सफलतापूर्वक कुनो नेशनल पार्क (केएनपी) में लाया गया. यह भारत में चीतों को फिर से बसाने का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट का एक हिस्सा था.
दुर्भाग्यपूर्ण मौतों का सिलसिला
तब ये उम्मीद थी कि एक बार चीतों के आने के बाद ग्रामीण मध्य प्रदेश का यह हिस्सा रिसॉर्ट्स, जीप सफारी से गुलजार हो जाएगा और वहां ढेरों रोजगार पैदा होंगे लेकिन धूमधाम से शुरू होने वाली परियोजना के लिए आने वाला साल बहुत उथल-पुथल भरा था.
कुछ ही महीनों में, यह पार्क चीतों के लिए एक कब्रिस्तान बन गया. एक-एक करके, कई चीते मौत का शिकार हो गए. इस पीस को लिखते वक्त, यहां छह बालिग और तीन नन्हें चीते मर चुके थे और बाकी के चीतों को उस पांच वर्ग किलोमीटर के बाड़े में ले जाया गया, जो खास तौर से उनके लिए बनाया गया है.
चीता कंजरवेशन फंड की फाउंडर और मशहूर चीता एक्सपर्ट साइंटिस्ट लॉरी मार्कर ने अपने न्यूजलेटर में कहा- "पिछले साल इस पहल में चुनौतियां और सफलताएं दोनों हासिल हुई हैं, साथ ही सबक भी मिला कि मल्टीनेशनल संरक्षण की पहल को रेखांकित करने की जरूरत है ''
चीतों की मौत क्यों हुई, इस पर उन्होंने कहा...
हमें कॉलर से जुड़ी दिक्कत लगी, जिसकी वजह से तीन चीतों की मौत हुई. ये समस्या टिक्स के साथ शुरू हुईं. सीसीएफ (Chief Conservator of Forests) चीतों पर 33 साल से ट्रैकिंग कॉलर लगा रहा है, लेकिन हमने कभी ऐसा नहीं देखा."लॉरी मार्कर, चीता एक्सपर्ट साइंटिस्ट
जाहिर है, किसी ने नहीं सोचा था कि कूनो में नम मौसम की वजह से टिक्स संक्रमण और रेडियो कॉलर के कारण चीतों की मौत हो जाएगी.
रेडियो कॉलर के बिना चीतों को ट्रैक करना करीब-करीब नामुमकिन था. दरअसल, नामीबिया या दक्षिण अफ्रीका की तरह हमारे वाइल्डलाइफ पार्कों में कोई बाड़ाबंदियां नहीं की गई हैं, इसलिए चीते बाहर भटक रहे थे, जिससे ट्रैकिंग टीम परेशान हो रही थीं.
एक साल बाद प्रॉजेक्ट चीता
अप्रैल 2023 में एक नर चीता कूनो नेशनल पार्क से भटककर उत्तर प्रदेश पहुंच गया और उसे बेहोश करके वापस लाया गया. इस चीते को दूसरी बार कूनो लाया गया था. 'ओबन' नाम के इस चीते का नाम बदलकर 'पवन' किया गया था.
यह परियोजना जल्द ही विवादों में घिर गई. अंतरराष्ट्रीय एक्सपर्ट से कहा गया कि वे प्रेस से बात न करें. दूसरी तरफ सबसे सीनियर अधिकारी, मुख्य वन्यजीव वार्डन जेएस चौहान का तबादला कर दिया गया. डीएफओ के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान चौहान ने ही कूनो को नया जीवन दिया था.
कूनो में प्रॉजेक्ट की पहली वर्षगांठ पर यह देखकर दिल को सुकून होता है कि सभी चीते अपने सॉफ्ट रिलीज के दौरान प्रोटेक्टेड बाड़े में आ गए.
कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया है कि केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण एक सफारी बनाने की तैयारी कर रहा है लेकिन इतने भर से, भारत के जंगलों में चीतों को वापस लाने का मकसद पूरा होने वाला नहीं है.
भारतीय वन्यजीव संस्थान इस परियोजना की देखरेख कर रहा है. उसके कुछ लक्ष्य तय किए हैं, जैसे:
पहले साल में आने वाले 50% चीते जीवित रहें.
कूनो नेशनल पार्क में चीते अपना घर बनाए.
चीते जंगलों में सफलतापूर्वक प्रजनन करें.
जंगलों में पैदा होने वाले कुछ नन्हे चीते एक साल की उम्र पार करें.
नौ चीतों की मौत और चार नन्हे चीतों में से सिर्फ एक के जिंदा बचने पर एक्सपर्ट ने सवाल उठाया कि क्या ऊपर दिए गए लक्ष्य वास्तव में हासिल हुए हैं?
एक और लक्ष्य निर्धारित किया गया था- "चीता लोकल कम्यूनिटी को राजस्व प्रदान करेंगे." साफ है कि इसे भी हासिल नहीं किया गया. वास्तव में पर्यटन उद्योग से जुड़े कई लोगों ने दावा किया है कि जब तक चीतें यहां पूरी तरह से बस नहीं जाते, तब तक यहां कोई भी रिसॉर्ट नहीं बनाया जाएगा.
यहां चीतों के भविष्य पर एक्सपर्ट चिंतित
तो अगले कदम क्या होगा? बिग कैट स्पेशलिस्ट और मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के सीईओ, डॉ. रवि चेल्लम साफ तौर से जानते हैं कि क्या करने की जरूरत है- “भारत में अफ्रीकी चीतों को लाने की पहल में कुछ बुनियादी खामियां हैं, जैसे प्रॉजेक्ट की योजना बनाने और उसे लागू करने के काम में साइंस की उपेक्षा, जंगली और स्वतंत्र घूमने वाले चीतों की जानकारी रखनेवाले एक्सपर्ट से सलाह नहीं लेना, भारत में तैयारियों का खराब स्तर, विशेष रूप से चीतों को बसाने के लिए सही जगह का चुनाव न करना, अवास्तविक संरक्षण के गोल निर्धारित करना और इन मामलों में पारदर्शिता की भारी कमी."
"जब तक इन्हें ठीक नहीं किया जाता है, विशेष रूप से चीतों के लिए लगभग 5,000 वर्ग किमी उपयुक्त आवास सुरक्षित नहीं किया जाता है, परियोजना के सफल होने की संभावना नहीं है. जब तक हम चीतों को बसाने के लिए उपयुक्त, सुरक्षित और प्रबंधित जगह का प्रबंधन नहीं करते, हमें अफ्रीकी चीतों को नहीं मंगाना चाहिए."डॉ. रवि चेल्लम, बिग कैट स्पेशलिस्ट
क्या बचे हुए चीतों को जंगलों में छोड़ना चाहिए? क्या उन्हें वापस लाते रहना, सही होगा?
चेलम कहते हैं, “चीता कम घनत्व वाली और बड़ी जगहों में रहनेवाला प्रजाति है, जो सबसे अच्छी बसाहटों में भी प्रति 100 वर्ग किमी में 1-2 ही चीतों की घनत्व पाई जाती है. अब तक, अफ्रीकी चीतों को सिर्फ कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा गया है, जो 748 वर्ग किमी में फैला है और एक बड़ा वन है. जब चीतों को छोड़ दिया जाएगा और उन्हें आजादी से घूमने दिया जाएगा, तो वे बसने से पहले अपने लिए उपयुक्त स्थान खोजने की कोशिश करेंगे.
किसी न किसी वजह से इन चीतों ने अपना अधिकांश समय भारत में किसी न किसी रूप में कैद में बिताया है. इसका मतलब यह है कि चीतों को वास्तव में अपने व्यवहार के अनुरूप स्वतंत्र रूप से घूमने का मौका ही नहीं मिला."
प्रसिद्ध वन्यजीव संरक्षणवादी एमके रणजीतसिंह ने हमेशा चीतों को भारत लाने की हिमायत की है. वह कहते हैं कि चीजें योजना के अनुसार नहीं हुई हैं- "एक्शन प्लान में चीतों की मौतों की आशंका जताई गई थी, जिनकी कई वजहें हो सकती हैं. जैसे चीतों को यहां लाना और उनका यहां के मुताबिक न हो पाना. फिर यहां पहले से मौजूद चीतों और तेंदुओं के हमले और उनकी वजह से लगने वाली चोटें. कई बार शिकार न पकड़ पाना, जहर खिलाना या अवैध शिकार किया जाना लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ है. अगर एक्सपर्ट वेटेनरी केयर मिलती तो इन मौतों को टाला जा सकता था. फिर भी इस प्रॉजेक्ट को नाकामयाब नहीं कहा जा सकता और असफलताओं के बावजूद दृढ़ संकल्प के लिए सरकार की सराहना की जानी चाहिए.''
वे यह भी सलाह देते हैं कि जानवरों को राजस्थान की मुकुंदरा पहाड़ियों में ले जाया जाना चाहिए, जैसा कि निकालने गए वन अधिकारी चौहान ने भी सुझाव दिया था.
दिलचस्प बात यह है कि पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव से जब पूछा गया कि क्या चीतों को किसी और जगह ले जाने की कोई योजना है, तो वे इस बात पर अड़े रहे कि जानवरों को कूनो से बाहर नहीं ले जाया जाएगा.
क्या इस फैसले की पीछे वजह है कि चीतों के लिए आदर्श जगह राजस्थान एक कांग्रेस शासित राज्य है?
"बदकिस्मती से भारत में संरक्षण से जुड़े किसी भी फैसले पर राजनीति और फायदा हावी रहता है. चीता प्रॉजेक्ट इसमें कोई अपवाद नहीं है."रणजीत सिंह, वन्यजीव संरक्षणवादी
एक साल और नौ चीतों की मौत के बाद हमें शायद कुछ तर्जुबा और सबक मिला हो. लेकिन धरती पर सबसे तेज जानवर के लिए, भारतीय जंगलों में वापसी की यात्रा बेहद धीमी होगी.
(बहार दत्त अवार्ड विनिंग पत्रकार और 'रीवाइल्डिंग इन इंडिया' की लेखिका हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखिका के हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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