प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने 28 मई को अपने दूसरे कार्यकाल के तीन साल पूरे होने पर कहा है कि "पिछले आठ वर्षों में मैंने राष्ट्र सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी है. न तो मैंने किसी ऐसे काम की अनुमति दी है, न ही व्यक्तिगत तौर पर ऐसा कोई कार्य किया है जिससे आपका या भारत के किसी एक भी व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाए."
व्यक्तिगत तौर भले ही मोदी ने कुछ न किया हो लेकिन उन्होंने निश्चित रूप से अपने कार्यकाल में चीजों की एक श्रृंखला को होने दिया है. अब यह एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गया है, जिसके कारण न केवल उनकी सरकार को बल्कि भारत को भी वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व अपमान देखने को मिला है. इसके अलावा देश सांप्रदायिक रूप से ज्वलनशील होता जा रहा है. भगवान न करे कि ऐसा हो लेकिन यह आग माचिस के छूने भर से भड़क सकती है.
भारतीय मुसलमानों का गुस्सा, जो कि पिछले हफ्ते पूरे देश में विरोध के रूप में फूटा वह आक्रोश केवल सिर्फ नूपुर शर्मा की पैगंबर मुहम्मद के बारे में अपमानजनक टिप्पणी के कारण नहीं है. कुछ समय से आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था.
मुसलमानों पर सामुदायिक दंड लगाने के लिए यूपी सरकार ने कानून को अपने हाथों में ले लिया है.
अगर हमारे देश की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों के खिलाफ एक बड़ी प्रतिक्रिया से इंकार नहीं किया जा सकता है.
यदि बढ़ते सांप्रदायिक तापमान को कम नहीं किया गया, तो घरेलू और वैश्विक स्तर पर भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
बीजेपी की बहुलवाद के प्रति खोखली 'प्रतिबद्धता' क्यों है?
इस पर विचार करें : केवल दो खाड़ी देशों कुवैत और कतर (दोनों को मिलाकर कुल आबादी केवल 74 लाख है) ने अचानक से मोदी सरकार और पूरे भारत को यह अहसास दिला दिया कि अगर इस्लाम और भारतीय मुसलमानों को अपने ही देश में नफरत फैलाने वाले अभियान का निशाना बनाया जाता है तो हम मुस्लिम दुनिया की चिंताओं को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकते.
कतर और कुवैत के अलावा जल्द ही दुनिया के कई अन्य मुस्लिम मुल्क (ईरान से लेकर इंडोनेशिया, अजरबैजान और यूएई तक) उन देशों में शामिल हो गए जिन्होंने आधिकारिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के दो नेताओं द्वारा पैगंबर मुहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी का विरोध किया. उसी दौरान, खाड़ी देशों के मार्केट्स में भारतीय उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान करने के लिए एक अभियान शुरू हुआ. भारत के उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू (उस समय कतर दौरे पर थे) के सम्मान में एक डिनर कार्यक्रम तय था लेकिन कतर ने उसे भी रद्द कर दिया.
मोदी सरकार के लिए तुरंत डैमेज कंट्रोल मोड में आने के लिए यह काफी था. भारतीय दूतावासों ने एक स्पष्टीकरण जारी करते हुए कहा कि जिन्हाेंने पैगंबर मुहम्मद के बारे में अस्वीकार्य टिप्पणी की वे लोग "फ्रिंज एलिमेंट्स" यानी "अराजक तत्व" थे और उनके कमेंट किसी भी तरह से भारत सरकार के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. भारत के अंदर या बाहर किसी को भी इस बात पर विश्वास नहीं था कि अपमान करने वाले ये दोनों "फ्रिंज एलिमेंट्स" थे, जिनका मोदी सरकार से कोई लेना-देना नहीं था. नूपुर शर्मा को जब तक पार्टी से सस्पेंड नहीं किया गया था तब तक वे सबसे ज्यादा दिखने वाली और बात करने वाली राष्ट्रीय प्रवक्ता थीं. वहीं पार्टी से निष्कासन तक नवीन कुमार जिंदल बीजेपी की दिल्ली यूनिट के मीडिया प्रमुख और प्रवक्ता थे.
इसके साथ ही भारतीय विदेश कार्यालय द्वारा जो दावा किया गया था वह भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, खास तौर पर वैश्विक मुस्लिम समुदाय के लिए अविश्वसनीय था. खाड़ी देशों में मौजूद भारतीय दूतावासों के माध्यम से यह कहा गया था कि मोदी के नेतृत्व में भारत धार्मिक बहुलवाद सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है.
खास तौर पर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि "हमारी सभ्यतागत विरासत और विविधता में एकता की मजबूत सांस्कृतिक परंपराओं के अनुरूप, भारत सरकार सभी धर्मों को सर्वोच्च सम्मान देती है". ऐसा प्रतीत होता है कि यह बात देश के भीतर और दुनिया भर में खोखली हो गई है.
न तो प्रधान मंत्री और न ही उनकी पार्टी और न ही संघ परिवार का व्यापक वैचारिक पारिस्थितिकी तंत्र (जो आक्रामक रूप से उनका समर्थन करता है) ने अब तक इस बात के विश्वसनीय सबूत दिए हैं कि वे "सभी धर्मों को सर्वोच्च सम्मान" देते हैं.
गलत काम करने वाले बच निकलते हैं या मंत्री बन जाते हैं
इसके उलट मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ नफरत फैलाने वाले अभियान बढ़ने के सबूत हैं जो पिछले आठ वर्षों से लगातार जारी हैं. यह सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के खुले और गुप्त समर्थन के बिना जारी नहीं रह सकता था.
मॉब लिंचिंग, तथाकथित 'धर्म संसद' में मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान, तलवार रखने व चलाने वाले हिंदू विजिलेंट समूहों द्वारा मस्जिदों के पास आपत्तिजनक नारे ("हिंदुस्तान में रहना है तो जय श्री राम कहना होगा") और प्राइम टाइम टेलीविजन पर कश्मीर व अन्य जगहों पर भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाना. ये सब दुनिया से छिपा हुआ नहीं है. नफरत फैलाने वाले इन अभियानों के कई भागीदार सत्ताधारी पार्टी से हैं.
इस तरह का कृत्य करने वालों में से कुछ को तो पुरस्कृत भी किया जाता है. उदाहरण के तौर पर जैसा कि मोदी के मंत्रिमंडल में एक मंत्री द्वारा किया गया है, जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर पार्टी समर्थकों की भीड़ के सामने "देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को" का नारा लगाया था. इसके लिए उन्हें फटकार नहीं लगाई गई, बल्कि उनको प्रमोशन भी मिल गया.
शायद प्रधान मंत्री के पास राष्ट्रीय शर्म को मापने के लिए एक अलग पैमाना हो, लेकिन बीजेपी शासित राज्य में सरकार के बाद जब पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करती है तो निश्चित तौर पर भारतीय लोकतंत्र के लिए कलंक है. भारतीय संविधान द्वारा धर्म के आधार पर भेदभाव करना मना है, लेकिन यह भेदभाव तेजी से सामान्य होता जा रहा है.
जहां एक ओर किसी गलत काम में अगर बहुसंख्यक समुदाय के लोग शामिल रहते हैं तो सरकार मुश्किल से ही कोई कार्रवाई करती है. वहीं दूसरी ओर कई मुसलमान बिना किसी मुकदमे के और बिना न्यायिक प्रक्रिया के सैकड़ों दिनों तक जेलों में बंद रहते हैं. मुसलमानों के खिलाफ हिरासत में होनी वाली क्रूरता सामान्य बात हो गई है. कानून की धज्जियां उड़ाते हुएराष्ट्रीय राजधानी (दिल्ली) और हाल ही में उत्तर प्रदेश के कई शहरों में स्थानीय प्रशासन द्वारा मुस्लिमों के घरों और संपत्तियों को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया है.
कानून को हाथों में लेना
कानून राज का पहला सिद्धांत है समानता. इसी सिद्धांत का बेरहमी से उल्लंघन किया जा रहा है. अगर प्रशासन की कार्रवाई के पीछे का कारण अवैध निर्माण को बताया जाता है तो वाकई में कानून लागू करने वाली सरकार को शहर में हजारों अवैध संरचनाओं के खिलाफ एक विध्वंस (demolition) अभियान चलाना होगा. अवैध निर्माण के मालिक बड़ी संख्या में अमीर और शक्तिशाली लोग हैं. सबको ढहाना हो तो ऐसे अभियान सालों तक चल सकते हैं. जाहिर है, मुस्लिम संपत्तियों को गिराने का उनकी वैधता से कोई लेना-देना नहीं है. दरअसल सत्ता में बैठे लोगों का इरादा "मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाने" का है.
जैसा कि एक प्रतिष्ठित नेपाली प्रकाशक, हिमाल पत्रिका के संस्थापक-संपादक और दक्षिण-एशियाई मामलों के एक्सपर्ट कनक मणि दीक्षित ने एक ब्लॉग में लिखा है कि "उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है वह मानवाधिकारों के बुलडोजिंग से परे सामूहिक दंड है जो अंतरराष्ट्रीय कानून और जिनेवा सम्मेलनों के खिलाफ है. आधुनिक कानूनी प्रणालियों में आपराधिक दायित्व व्यक्तियों तक ही सीमित है."
ठीक ही कहा गया है कि किसी भी नागरिक या समूह को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए. लेकिन क्या यह सिद्धांत उत्तर प्रदेश सरकार पर लागू नहीं होता है?
मुसलमानों पर सामुदायिक दंड थोपने के लिए इसने कानून को अपने हाथ में ले लिया है; राज्य सरकार को भरोसा है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट उन्हें दंडित करने के लिए कुछ नहीं करेंगे.
इसलिए, भारतीय मुसलमानों का जो गुस्सा पिछले हफ्ते देश भर में दर्जनों स्थानों पर जुमे की नमाज के बाद विरोध के रूप में भड़कते हुए सामने आया, वह केवल केवल पैगंबर मुहम्मद पर नूपुर शर्मा की आपत्तिजनक टिप्पणियों के कारण नहीं आया. निश्चित तौर पर इन टिप्पणियों ने एक चिंगारी का काम किया है. यह आक्रोश घटनाओं के एक क्रम, भारतीय समाज का ध्रुवीकरण करने के लिए जानबूझकर की जा रही एक राजनीतिक साजिश और हिंदू प्रभुत्व की गहरी खाई के कारण वर्षों से बढ़ रहा है जिसमें मोदी सरकार देश को घसीटने का प्रयास कर रही है.
हिंसा किसी भी पक्ष के लिए जवाब नहीं है
इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत में समान नागरिक होने के नाते हमारे मुस्लिम भाइयों को विरोध करने का अधिकार है. उनके पास विरोध करने का एक कारण भी है कि उन्हें समानता, गरिमा और न्याय से वंचित किया जाता है. हालांकि उनका कर्तव्य यह भी है कि जब भी वे विरोध करें तो शांतिपूर्वक ढंग से करें. शुक्रवार को अधिकांश जगहों पर विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे, लेकिन कुछ नहीं थे. कुछ कट्टर मुस्लिम नेताओं ने नूपुर शर्मा को जान से मारने की धमकी दी है, जिसकी स्पष्ट रूप से निंदा की जानी चाहिए. वहीं कुछ ने सांप्रदायिक तौर पर आपत्तिजनक बयान दिए हैं जो हिंदू धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं यह भी निंदनीय काम है.
यह उन प्रमुख मुस्लिम विरोधों की जिम्मेदारी है कि वे न तो किसी को भी उकसाएं और न ही किसी के उकसावे में फंसे, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में इसका नतीजा हिंसा होगी. उन्हें खास तौर पर समुदाय के भीतर चरमपंथी और कट्टरपंथी तत्वों से सावधान रहना चाहिए जो हिंसा की स्थिति पैदा करते हैं.
हालांकि, जो कुछ उनके साथ हो रहा है, उस पर केवल मुसलमानों को ही आपत्ति नहीं होनी चाहिए. यह हिंदुओं की भी जिम्मेदारी है कि वे मोदी सरकार, बीजेपी और बड़े संघ परिवार से भारतीय समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर सवाल करें, जिसको हासिल करने पर वे तुले हुए हैं. चुनावी तौर पर कुछ समय के लिए बीजेपी को फायदा हो सकता है, लेकिन भारत को इन कामों के विनाशकारी परिणामों को आने वाले लंबे समय तक भुगतना होगा. हाल ही में पिछले 14-15 दिनों पहले हमने एक छोटा सा उदाहरण देखा जब नूपुर शर्मा द्वारा पैगंबर मुहम्मद को लेकर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर दुनिया भर के मुस्लिम देशों ने सामूहिक तौर पर भारत की निंदा की. लेकिन अगर हमारे देश की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो खाड़ी देशों में काम करने वाले भारतीयों के खिलाफ एक बड़ी प्रतिक्रिया से इंकार नहीं किया जा सकता है.
विस्फोटक स्थिति में है भारत
इसलिए, चाहे कोई किसी भी धर्म या राजनीतिक पार्टी से हो, ये रुक कर सोचने का समय है.अगर भारत में बढ़ते सांप्रदायिक तापमान को कम नहीं किया जाता है, अगर मुसलमानों के खिलाफ नफरत का प्रचार बंद नहीं किया जाता है, अगर सरकार कानून तोड़ने वालों से निपटने में भेदभाव न करने के अपने संवैधानिक कर्तव्य को निभाने में विफल रहती है, अगर अदालतें अपनी जिम्मेदारी से बचती हैं और अगर हमारे देश में बड़े पैमाने पर हिंसा होती है, तो निश्चित तौर पर घरेलू और वैश्विक स्तर पर भारत के लिए काफी अप्रिय नतीजे होंगे.
ऐसे में आइए भारत को सांप्रदायिक रूप से विस्फोटक बनने से रोकें और उन लोगों के हाथ से माचिस की तीली छीन कर फेंक दें जो भारत में आग लगाकर लाभ कमाना चाहते हैं. यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है.
(सुधींद्र कुलकर्णी, ने पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के रूप में कार्य किया है और भारत-पाकिस्तान-चीन सहयोग द्वारा संचालित न्यू साउथ एशिया फोरम के संस्थापक हैं. इनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni और मेल आईडी sudheenkulkarni@gmail.com है.)
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