"अक्सर ज़ंजीरों में रहना आज़ाद रहने से कहीं ज़्यादा सुरक्षित होता है" - फ्रांज काफ़्का”
'पद्मावत' फिल्म पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद अनायास ही काफ्का की ये पंक्ति याद हो आई और मन को झकझोर भी गई. एक सवाल भी उठा कि क्या एक फिल्म हमारी परंपरा और इतिहास के लिये खतरा बन सकती है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी विरोध के स्वर उठे. राजस्थान और हरियाणा की सरकारों की प्रतिक्रिया भी कई सवाल खड़े कर गई. करणी सेना ने फिर कहा कि वो फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे.
फिर मन में सवाल उठे. सवाल देश के संविधान और उसके अमल पर. सवाल कि करणी सेना जैसे संगठनों को देश के संविधान और लोकतांत्रिक परंपराओं का मखौल उड़ाने की इजाजत कब तक और क्यों दी जानी चाहिये?
एक सवाल ये भी कि आखिर इस झगड़े से किसका भला हो रहा है? कुछ लोग कह सकते है कि अगर लोगों की भावनायें आहत हो रही हों तो फिर फिल्म बनाने और उसको दिखाने की क्या जरूरत है और अगर एक फिल्म रिलीज नहीं होगी तो क्या आसमान फट पड़ेगा? और सबसे बडा सवाल धर्म और राजनीति में अगर टकराव हो, पूरे सवाल को हिंदू धर्म के चश्मे से देखा जाये तो फिर किसकी बात को सुना जाना चाहिये,किसे प्राथमिकता मिले?
'पद्मावती' के बहाने चर्चा गरम
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में इस तरह के सवाल उठने लाजिमी है. क्योंकि तानाशाही व्यवस्था में ऐसे सवाल कभी नहीं उठते. वहां सवाल उठाने की अनुमति नहीं होती. वहां बहसें नहीं होतीं. वहां चर्चा को एक दायरे में रहना होता है. लक्ष्मण रेखा के बाहर आकर बोलना अपनी जान जोखिम में डालना होता है. ऐसे में मुझे इस बात पर गर्व है कि आज भी देश में लोकतंत्र है और देश भर में 'पद्मावती' के बहाने चर्चा गरम है. पर लोकतंत्र मे सिर्फ चर्चा ही जरूरी नही है, चर्चा को उसकी तार्किक परिणीति तक ले जाना भी जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब बहस खत्म होनी चाहिये. पर ऐसा लगता नहीं है.
'पद्मावती' पर पहली खबर तब गरम हुयी जब समाचार आया कि फिल्म के सेट पर पंहुच कर तोड़फोड़ की गई. फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट की गई. फिर, आने लगे राजनेताओं के बयान. किसी ने कहा कि ये माता पद्मावती का अपमान है जो राजपूत आन बान और शान का प्रतीक थीं. वो पद्मावती जिन्होंने अलाउद्दीन खिलजी के सामने झुकने की जगह आग में कूदना बेहतर समझा. जौहर कर लिया. किसी ने इतिहास खंगाला और कह डाला कि पद्मावती तो इतिहास में थी ही नहीं. वो एक कवि की कल्पना है. ऐसे में पूरी बहस बेमानी है. फिर भी ये कहा गया कि मलिक मुहम्मद जायसी ने जिस पद्मावती की कल्पना उकेरी वो खुद ही अलाउद्दीन खिलजी के समय से करीब सवा सौ साल बाद की कल्पना है यानी अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती कभी एक काल में थे ही नहीं.
कुछ ‘इतिहासवीरों’ ने और मेहनत की तो ये कह डाला कि दरअसल रानी पद्मावती राजपूत थी ही नहीं वो एक सिंहल निवासी थीं, श्रीलंका की रहने वाली जिनका विवाह राजस्थान के एक राजा से हुआ और वो भारत आ गईं. इस के बाद एक और दिलचस्प बहस ने जन्म लिया कि किसको ज़्यादा अहमियत दी जाये- इतिहास को या फिर श्रुति परंपरा को.
राजपूतों के मन में आदर
ये सच है कि रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के झगड़े का इतिहास में कोई प्रमाण नहीं मिलता. लेकिन ये भी उतना ही बडा सच है कि वो राजपूतों की सांस्कृतिक पंरपरा का एक जीवंत उदाहरण हैं. उनकों लेकर राजपूतों के मन में आदर है. वो उन्हे बड़े सम्मान से अपने जीवन का एक हिस्सा मानते हैं. ऐसे में इतिहास मे न होना कोई मायने नहीं रखता. मायने ये रखता है कि रानी पद्मावती राजपूतों के मानस में जिंदा हैं, सजीव हैं. और उनके इर्द गिर्द कई पीढ़ियां उनमे और उनके माध्यम से अपने गौरव की खोज करती हैं. अपने होने का एहसास पालती हैं. तो फिर सवाल ये है कि किसी फिल्मकार या कलाकार को को ऐसी परंपरा के साथ किस हद तक रचनात्मक आजादी लेने का अधिकार है.
असली झगड़ा यही है. कला, इतिहास, परंपरा और संस्कृति के बीच का रिश्ता क्या हो? क्या कला को अपनी सृजनात्मकता की तलाश में अपरिमित स्वतंत्रता लेने का अधिकार है या फिर उसे भी लक्ष्मण रेखा के दायरे में रहना होगा? उस पर भी लोकसंवदना की बेड़ियां लगनी चाहिये?
मुझे ये कहने मे जरा भी हिचक नहीं है कि भारत जैसे विविधता वाले देश में असीमित स्वतंत्रता की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसा होते ही विविधता देश पर बोझ बन जायेगी. संस्कृतियों में टकराव होगा और फिर विखंडन का खतरा पैदा होगा. ऐसे में कला, इतिहास, परंपरा और संस्कृति के बीच रागात्मक रिश्ता हो, आपस में सकारात्मक सामंजस्य हो.
अफवाहों के आधार पर विरोध
'पद्मावत' के मामले में मेरी शिकायत ये है कि किसी ने फिल्म देखी नहीं. महज अफवाह के आधार पर विरोध शुरू हो गया. मरने-मारने का सिलसिला चल निकला. राज्यों के मुख्यमंत्रियों, सांसदों और नेताओं ने बयानबाजी शुरू कर दी. 'पद्मावत' एक फिल्म की जगह वैचारिक संघर्ष का अखाड़ा बन गई. पारंपरिक वर्चस्व की लडाई शुरू हो गई. और मामला यहां पर आकर टिक गया कि ये कहा जाने लगा कि जो फिल्म के साथ खड़े हैं वो दरअसल हिंदू हैं ही नहीं.
यानी 'पद्मावत' को भी उसी श्रेणी ला खड़ा किया गया कि अगर आप इस फिल्म का विरोध कर रहे हैं तो हिंदू है, और अगर नहीं तो हिंदू विरोधी. ये खतरनाक स्थिति है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद स्थिति जस की तस है. करणी सेना ने कहा है 24 तरीख को वो जौहर करेंगे. क्या ये उचित है?
मौलिक अधिकारों को सस्पेंड करने की नौबत
पूरी लड़ाई को शुरू से राजनीतिक रंग दिया गया. संघर्ष को बडे ही सलीके से बीजेपी बनाम शेष बना दिया गया. बीजेपी के मुख्यमंत्रियों ने बिना फिल्म देखे आदेश दे दिया कि फिल्म को वो अपने राज्य में रिलीज नहीं होने देंगे. सुप्रीम कोर्ट ने सही कहा कि राज्य सरकारें कानून और व्यवस्था का हवाला देकर फिल्म के रिलीज पर बैन नही लगा सकती. कानून व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी है.
साथ ही वो ये भी भूल रहे हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार है जिसे सिर्फ आपात काल ही में निरस्त किया जा सकता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असाधारण परिस्थितियों में ही रोक लगाई जा सकती है.
'पद्मावत' के निर्माण से लेकर उसकी रिलीज की तारीख तक कहीं भी ऐसी असाधारण परिस्थिति नहीं बनी कि मौलिक अधिकारों को सस्पेंड करने की नौबत आये. तो क्या ये मान लिया जाये कि बीजेपी शासित चारों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व के निर्वहन में नाकामयाब रहे? फिल्म रिलीज के पक्ष में बोलते हुये वकील हरीश साल्वे ने यही कहा कि इन राज्यों में संवैधानिक "ब्रेकडाउन" हो गया है यानी वहां संविधान के मुताबिक सरकार नहीं चली.
संविधान की धारा 356 कहती है कि अगर संवैधानिक “ब्रेकडाउन” हो गया है तो फिर वहां की सरकारों की बर्खास्तगी का हिसाब बनता है. मेरा ये कतई मानना नहींहै कि चारों राज्यों की सरकार बर्खास्त हो पर ये सवाल तो इन मुख्य मंत्रियों ये तो पूछा ही जाना चाहिये कि वो संविधान के प्रति जवाबदेह हैं या फिर किसी विचारधारा के प्रति और अगर उनका जवाब विचारधारा के पक्ष में है तो फिर उन्हे अपने पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है.
सबका रंग एक और चेहरे पर मुखौटा
यहां एक सवाल और पूछा जाना चाहिये. क्या ऐसा पहली बार हो रहा कि किसी फिल्म पर हंगामा हो रहा है. नहीं. जब बीजेपी की सरकार नहीं थी तब भी हंगामे हुये. सिनेमाहाल में तोड़फोड़ हुयी. उन लोगों को ये बोलने का क्या अधिकार है जिन्होंने सलमान रूश्दी की किताब पर बैन लगाया या जिन लोगों ने शाह बानो के मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला माने से इंकार कर दिया? आखिर क्यों तब की सरकारों के रहते हुसैन को देश के बाहर जाना पड़ा? क्यों तस्लीमा नसरीन को बंगाल से बेदखल कर दिया गया? अगर तब धर्म और परंपरा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी पड़े थे तो आज अगर दूसरा पक्ष ये कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?
मुझे मालूम है कि मेरे इस सवाल को जवाब नहीं मिलेगा. क्योंकि राजनीति किसी भी रंग की हो सबका रंग एक ही है. सब चेहरे पर मुखौटा लगाये हैं. और सत्ता से बाहर आते ही खूबसूरत दिखने का स्वांग रचते है.
हकीकत में सब अंदर से बदरंग हैं. 70 के दशक के बाद वोटबैंक की राजनीति ने सरकारों को अवसरवादी बना दिया. जिससे जो ताकतें हाशिये पर थीं उन्हे ताकत मिली, सत्ता कमजोर होने लगी और अभिव्यक्ति की आजादी पर बर्फ मल दी गई.
आज सत्ता उनके हाथ में है जो अपनी वैचारिक समझ में असहिष्णु हैं तो असहिष्णता का नंगा नाच होना स्वाभाविक हैं पर अपराधी वो भी हैं जो आज लिबरल होने का दावा करते हैं और उदारता पर डाका पड़ने की बात कर आंसू बहाते है. काफ्का सही थे. पर उनसे ज्यादा सही अब्राहम लिंकन थे. वो कहते थे- "जो दूसरों को स्वतंत्रता नहीं देते वो खुद स्वतंत्रता के अधिकारी नहीं है."
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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