पब्लिक सेक्टर बैंकों की बैलेंस शीट खराब हालत में हैं. खराब लोन से दबे, प्रावधानों से घिरे और पूंजी की बेहद कमी है. और अब तो एक केस में करबी 2 बिलियन डॉलर का फ्रॉड हुआ लेकिन ऐसा लगता है जैसे किसी की भी कोई जिम्मेदारी नहीं. न मैनेजमेंट की, न बोर्ड की, न प्रमोटर की और न ही रेगुलेटर की.
हम बात कर रहे हैं पंजाब नेशनल बैंक में हुए 2 बिलियन डॉलर के घोटाले के बारे में. कथित तौर पर ये घोटाला 7 सालों से चल रहा था और इस दौरान बैंक के तीन अलग-अलग चीफ रहे. केआर कमथ 2009 से लेकर अक्टूबर 2014 तक चेयरमैन थे. ये पोजिशन फिर 10 महीनों तक खाली रही. ऊषा अनंथासुब्रह्मण्यम ने अगस्त 2015 में सीईओ का पद संभाला और मई 2017 तक बनी रहीं. उन्होंने बड़े अजीब ढंग से पद छोड़ा और फिर वर्तमान चीफ सुनील मेहता ने कुर्सी संभाली.
तो इन 7 सालों से ज्यादा के वक्त के बीच, जब घोटाला धीरे-धीरे जन्म ले रहा था तो बैंक ने तीन अलग-अलग चीफ देखे. टॉप मैनेजमेंचट पर जिम्मेदारी थी कि वो सुनिश्चित करें किसी भी तरह की गड़बड़ी को रोका जाए और बैंक सही तरीके से चले लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तो अब सवाल ये कि ये जांच कहां तक जाती है. सिर्फ एक चीफ से या तीनों से ?
बोर्ड की ओर चलते हैं. बाकी दूसरे पब्लिक सेक्टर बैंकों की तरह ही पीएनबी के बोर्ड में भारतीय सरकार का एक नोमिनी, एक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का नोमिनी, तीन शेयरहोल्डर डायरेक्टर और एक डायरेक्टर सीए कैटेगरी से होते हैं. आठ सब-कैटेगरी में बैंकिंग कंपनी एक्ट के जरिए पब्लिक सेक्टर बैंक के बोर्ड अधिकारियों को जगह दी जाती है.
- पूरे समय के डायरेक्टर (चेयरमैन, सीईओ और एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर)
- केंद्रीय सरकार के ऑफिशियल डायरेक्टर
- आरबीआई डायरेक्टर
- कार्यकर्ता कर्मचारी डायरेक्टर
- ऑफिसर कर्मचारी डायरेक्टर
- चार्टेड अकाउंटेंट डायरेक्टर
- केंद्रीय सरकार नोमिनी डायरेक्टर
- चुने हुए शेयरहोल्डर डायरेक्टर
बोर्ड में अधिकारियों के चुनाव में अक्सर खानापूर्ति की जाती है और बेस्ट बोर्ड को चुनने की बजाए सिर्फ खाली स्थानों पर लोगों को बैठाया जाता है. पीजे नायक कमेटी ने 2014 में ही पब्लिक सेक्टर बैंकों के बोर्ड स्ट्रक्चर में बदलाव की सिफारिश की थी लेकिन कुछ नहीं बदला.
ऐसे में, पीएनबी का बोर्ड भी जवाबदेह क्यों नहीं होना चाहिए? क्या बोर्ड ने Swift सिस्टम के बारे में आवाज उठाई जो कि कोर बैंकिंग से जुड़ा नहीं है? क्या उनके पास नास्ट्रो खाता समझौते की स्टेटमेंट थी? क्या वे जानते थे कि बैंक में कर्मचारी ट्रांसफर नीतियों का सख्ती से पालन नहीं हो रहा था?
अब बात सुपरवाइजर्स की. वो जो समवर्ती ऑडिट संभालते थे और Swift बैंकिंग और कोर बैंकिंग के बीच अंतर को पकड़ने में विफल रहे. और वो नास्ट्रो अकाउंट के लेनदेन पर ध्यान नहीं दे पाए जो आधिकारिक तौर पर जारी किए गए LoU से मेल नहीं खा रहे थे. इन सुपरवाइजर्स की भी बड़ी गलती क्यों न मानी जाए?
साथ ही आरबीआई का जांच करने वाला डिपार्टमेंट भी दोषी है. बैंकिंग रेगुलेटर ऑनसाइट और ऑफसाइट, दोनों तरीके से मॉनिटर करते हैं लेकिन उन्हें कोई गड़बड़ नहीं दिखी?
और आखिर में सबसे जरूरी- सरकार. जो बैंक की सबसे बड़ी मालिक है उन्हें सबसे ज्यादा आरोप खुद पर लेना चाहिए. क्या आप एक निजी कंपनी के प्रमोटरों को अपनी फर्म में धोखाधड़ी के लिए जिम्मेदार नहीं मानेंगे? सरकार सेअलग तरह का व्यवहार क्यों हो?
सरकार ने बैंकिंग सेक्टर को मजबूत करने के लिए अपने शुरुआती सालों में तथाकथित ‘ज्ञान संगम’ का आयोजन किया. उसे पूरे बैंकिंग सेक्टर रिफॉर्म में क्यों नहीं लागू किया गया? हम यहां प्राइवेटाइजेशन की बात नहीं कर रहे, हमारा जोर है गवर्नेंस रिफॉर्म, बोर्ड रिफॉर्म और एचआर रिफोर्म पर.
ये सिर्फ पीएनबी की बात नहीं....
कोई तर्क दे सकता है कि पीएनबी में ये घोटाले का मामला बाहरी है. एक ऐसा केस है जहां हर स्तर पर सिस्टम फेल हुआ. लेकिन क्या ऐसा था? जरा नजर डालिए और दूसरी मुसीबतों पर जिनसे बैंकिंग सेक्टर को रोज रूबरू होना पड़ता है- खराब लोन. ये हर एक पब्लिक और प्राइवेट बैंक की दिक्कत है लेकिन अगर आप गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि पब्लिक बैंक में ऐसे मामले ज्यादा हैं.
इस मामले में मौजूदा मैनेजमेंट पुरानी मैनेजमेंट पर उंगली उठाती है. पुरानी मैनेजमेंट सरकार पर उंगली उठाती है. सरकार रेगुलेटर और पुरानी सरकार की ओर इशारा करती है. पुरानी सरकार ग्लोबल मंदी को इसका कारण बताते हैं. ये दोष हर किसी पर जाता है. बैंक मैनेजमेंट ने सरकारी गाईडलाइंस को अनदेखा कर भारी भरकम लोन दिया. बोर्ड ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया.
पिछली सरकार ने नीति को जोखिम में डाल अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को पटरी से उतारने की अनुमति दी थी. नई सरकार (जो तब विपक्ष में थी), जिन्होंने कोई आवाज नहीं उठाई और रेगुलेटर ने सबकुछ चलने की अनुमति दी.
लेकिन लगता है कि कोई भी इस पूरे मामले में अपनी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है.
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